हंसते चेहरों के पीछे छिपा दर्द दिखाएगी ‘10 नहीं 40’

 
 मुंबई। 60 से लेकर 80 तक का दौर। ये एक ऐसा समय है, जो बुजुर्गों के लिए बेहद ही कष्टदायक है। बेटों के पास इतना समय नहीं कि दो पल वे अपने मां-बाप से बात कर पाएं। खुशी देने की बजाय उन्हें अपमान और प्रताड़ना झेलनी पड़ती है क्योंकि अब वे बेटों के लिए बोझ के समान हैं। हंसते चेहरों के पीछे कितना दर्द छिपा है, यह कोई नहीं जानता। बच्चों की तरफ से जब उपेक्षा मिलने लगे, तो ऐसे में बूढ़े मां-बाप कहां जाएं? उनके लिए एक ही रास्ता बचता है ओल्ड एज होम। आज देशभर में न जाने कितने ओल्ड एज होम हैं, जहां बुजुर्ग अपने बच्चों से दूर रह रहे हैं लेकिन आज ऐसे ओल्ड एज होम भी बुरी अवस्था में हैं। बदनामी की वजह से भी बुजुर्ग ऐसी जगहों पर जाने से बचते हैं। ऐसे में उनका अकेलापन कैसे दूर हो? इसका जवाब देने आ रही है अभिनेता और निर्देशक डॉक्टर जेएस रंधावा की फिल्म ‘10 नहीं 40’। फिल्म का नाम भले ही अनोखा लग रहा हो, लेकिन 10 और 40 के अंकों की परिभाषा भी यहां निराले तरीके से दी गई है। दरअसल, रंधावा अपनी इस फिल्म के जरिए दिखाना चाहते हैं कि अकेलापन झेल रहे बुजुर्ग लोग 60 से लेकर 80 तक की उम्र में भी 10 साल इतने मज़ेदार तरीके से बिता सकते हैं कि उन्हें यही लगने लगेगा कि उनकी उम्र 40 साल बढ़ गई है। ये 10 साल उन्हें डे केयर सेंटर देगा, जो ओल्ड एज होम का आधुनिक रूप है। बुजुर्ग अभिनेताओं से काम लेना पाना कितना मुश्किल रहा? इस सवाल पर जेएस रंधावा कहते हैं कि अनुभवी होने के कारण उन्हें काम ले पाना आसान रहा। नए अभिनेता गलती करते हैं, उन्हें बार-बार समझाना पड़ता है जबकि बुजुर्ग अभिनेता सीन को खुद ही इम्प्रोवाइज़ करते हैं और गलतियां नहीं करते। उन्होंने शूटिंग का ही एक उदाहरण देते हुए बताया कि हम कार वाले एक दृष्य की शूटिंग दिल्ली के एक फॉर्महाउस में कड़कती ठंड के बीच आधी रात तक करते रहे। बीरबल, मनमौजी आदि बुजुर्ग अभिनेताओं ने ऐसा महसूस ही नहीं होने दिया कि उन्हें सर्दी की वजह से कोई तकलीफ हो रही है। ये उनका अनुभव ही था, जो अब जाकर काम आया। रंधावा कहते हैं कि ‘10 नहीं 40’ मेरी तीसरी फिल्म है और मेरा मकसद अर्थपूर्ण फिल्म बनाना है न कि कॉमर्शियल फिल्में बनाकर सिर्फ अपनी जेब भरना। पैसा मैं अपने डॉक्टरी पेशे में भी कमा रहा हूं, लेकिन मेरा दायित्व बनता है कि समाज को भी मैं कुछ दे सकूं, चाहे वो फिल्म के जरिए क्यों न हो।

निर्देशक रंधावा का मानना है कि फिल्म में हमने बीरबल, मनमौजी, रमेष गोयल आदि बुजुर्ग अभिनेताओं को इसलिए लिया है ताकि वे अपने किरदारों के जरिए लोगों को बता सकें कि डे केयर सेंटर उनका अकेलापन कैसे दूर कर सकता है। इस सेंटर में एंटरटेन्मेंट भी होगा और विभिन्न खेल खेलने का मौका भी मिलेगा। फैशन के रंग भी बिखरेंगे। कुल मिलाकर बुजुर्ग लोग युवाओं जैसी मस्ती करेंगे और उन्हें अहसास होगा कि बच्चों के बिना भी उनकी ज़िंदगी में रंग भरे जा सकते हैं। उन्हें पता चलेगा कि घर से बाहर भी एक अनोखी दुनिया है जहां उनकी देखरेख करने वाले लोग हैं, जो उनकी भावनाओं को समझते हैं।

  • अनिल बेदाग

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