सामाजिकता के भाव से सशक्त होंगे दिव्यांग

विश्व विकलांगता दिवस पर विशेष

अभी तक विकलांगता को सिर्फ एक चिकित्सकीय मॉडल के संदर्भ में ही देखा-समझा जाता रहा है। लेकिन बदलते समय में उसके सामाजिक मॉडल पर जोर दिया जाना जरूरी है। अस्सी के दशक तक विकलांगता संबंधी विमर्श में समाज कल्याण के कदम उठाने पर जोर था और इसे मानवाधिकार का मुद्दा बनाने से दुनिया बहुत दूर खड़ी थी। विकलांगता के प्रश्न पर 1978 में प्रकाशित अपनी चर्चित किताब ‘हैंडिकैपिंग अमेरिका’ में विकलांगों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले फ्रैंक बोवे लिखते हैं कि असली मुद्दा विकलांगता के प्रति सामाजिक प्रतिक्रिया

संध्या कुमारी

विकलांगता एक ऐसा विषय है जिसके बारे में हमारे समाज ने कभी भी गंभीरता से नहीं सोचा। सच कहूं तो हमारा समाज जिसे भी निचले दर्जे का व्यक्ति मान लेता है दृउसके प्रति समाज का व्यवहार अत्यंत रूखा और बुरा हो जाता हैय चाहे वो एक भिखारी होए कोई सफाई कर्मचारी होए रिक्शा खींचने वाला होए ठेले वाला हो३ त्वचा के गहरे रंग वाली कोई महिला हो३ या कोई विकलांग हो३ हमारे समाज की नजर में ये सब निचले दर्जे के लोग हैं। इन लोगों को सामाजिक ताने.बाने में आ फंसे ऐसे धागों की तरह देखा जाता है जिनकी जरूरत नहीं है। हमारा समाज इंसानो से मिलकर नहीं बनाय बल्कि अमीर और गरीबए ताकतवर और कमजोरए सुंदर और कुरूपए अक्षम और सक्षम से मिलकर बना है।
ष्नस्लवादष् और ष्यौनवादष् की तरह भले ही यह शब्द हमारे भाषाई विमर्श में उतना प्रचलित न होए लकिन यह उस समझदारी को बयां करता है जहां ष्सामान्य जीवनष् का पैमाना उन लोगों से तय होता हैए जो विकलांग नहीं हैं। इसी वजह से विकलांग लोग अपनी शारीरिक या बौकि क्षमताओं की भिन्नता के कारण मुख्यधारा में अपमान का शिकार होते हैं। सक्षमवाद का अर्थ हैए ऐसे सामाजिक सम्बन्धए व्यवहार और विचारए जो इस धारणा पर आधारित होते हैं कि सभी लोग सक्षम शरीरों वाले होते हैं। सक्षमवादी समाज बहिष्कार पर जोर देता हैए जबकि एक समावेशी समाज सब लोगों को साथ ले चलन का आग्रह करता है। अस्सी के दशक तक विकलांगता सम्बन्धी विमर्श में ष्समाजकल्याणष् कदमों को उठाने पर जोर था और इसे ष्मानवाधिकार का मुद्दाष् बनाने से दुनिया बहुत दूर खड़ी थी।
विकलांगता के प्रश्न पर प्रकाशित अपनी चर्चित किताब ष् हैंडिकैपिंग अमेरिका ष् में विकलांगों के अधिकारों के लिए संघर्षरत फ्रैंक बोवे लिखते हैं कि असली मुद्दा विकलांगता के प्रति सामाजिक प्रतिक्रिया का है। अगर कोई समुदाय भौतिकए स्थापत्यशास्त्रीयए यातायात सम्बंधी तथा अन्य बाधाओं को बनाये रखता है तो वह समाज उन कठिनाइयों का निर्माण कर रहा है जो विकलांगता से पीड़ित व्यक्ित को उत्पीड़ित करते हैं। दूसरी तरफए अगर कोई समुदाय इन बाधाओं को हटाता हैए तो विकलांगता से पीड़ित व्यक्ित अधिक उंचे स्तर पर काम कर सकते हैं।
हमारा दायित्व हैं कि हम विकलांगों की शारीरिक स्थिति को नजर अन्दाज करते हुए उनके आत्मविश्वास एवं मनोबल को बढ़ाये और उनकी कार्य क्षमताओं को देखते हुए उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोडने का प्रसास करें और अपनी इस सोच को बदलना होगा कि विकलांग व्यक्ति घर परिवार समाज पर बोझ हैं। हमारा सिर झुक जाता हैं जिन्हें राष्ट्रीय अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अनेको पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका हैं। अतरू हमारे विकलांग साथियों ने भी यह सिद्ध कर दिया हैं कि वह किसी से कम नहीं हैं। उन्हें समानता के अवसर मिलने चाहिऐ उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए और न ही उन्हें सहानुभूती दिखाकर दया का पात्र बनाये। हमारी सरकार ने उनके पुर्नवास की व्यवस्था की हैं अर्थात् विकलांग व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकेंए लेकिन इस राह में भी बहुत परेशानियां आती हैं। जिनसे उनका मनोबल टूटने लगता हैं और फिर व्यक्ति आत्म हत्या जैसे कृत्यो को अपनाता हैं। इनके लिए समाज को अपनी सोच को बदलना होगाए और ऐसी स्थिति निर्मित न हो इसके लिए उन्हें समानता का अधिकार देते हुए उन्हें अवसर प्रदान करना चाहिए। यदि आप बहुत अधिक दया और सहानुभूती जताते हैं तो उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुंचती जिससे उसकी उन्नति में बाधा पहुंचती हैं। एनण्जीण्ओण् की भुमिका भी बहुत महत्वपूर्ण हैं यदि शासन के साथ एनण्जीण्ओण् कार्य करते हैं तो उन विकलांग की योजना का क्रियान्वय आसानी से हो सकता हैं। किन्तु ध्यान देने योग्य बात ये हैं कि क्या सरकारे पुर्नवास योजनाओं हेतु जो धन राशि जारी कर रही हैं उसका कितना अंश विकलांगो के हितो में उपयोग हो रहा हैं। यदि नहीं तो क्या समाज उन कमियों के लिए आवाज उठा रहा हैं बस यह हमारी पहचान होती हैं कि हम कितने जिम्मेदार नागरिक हैं । क्या हमने उन्हें अपना समझकर सहयोग प्रदान किया हैं। अतः सामाजिक नैतिकता की दृष्टि से विकलांगो का पुर्नवास एक पुनीत कार्य हैं। समाज से मेरा निवेदन हैं विकलांग को अभिशाप न समझे ब्लकि विकलांगता से बचने के उपाय शारिरिक क्षति के कारण को दूर करने के कौन से उपकरणो को उपयोग हो विकलांगो के हितों में बने अधिनियम की जानकारी दे कर उन्हें सामान्य जीवन जीने का अवसर प्रदान करें। हमें विकलांग का मनोबल बढ़ाना चाहिए उन्हें जिन्दगी के खेलो में हारने नहीं देना चाहिए उन्हें उनकी मंजिल तक पहुंचाने के लिए हमें सहयोग प्रदान करना चाहिए। यदि समाज हमारे विकलांग साथियों को सामाजिक सुरक्षा की गारन्टी मानवीय अधिकारों के परिपेक्ष्य में दे तो शारिरिक मानसिक आर्थिक कमजोरियों के भार को कम किया जा सकता हैं। विकलांगों के अधिकारों को व्यवहारिक धरातल पर आत्मीय मान्यता देने का प्रथम दायित्व तो परिवार का ही हैं समाज और सरकार को रोल तो बाद में आता हैं।
बात थोडी पुरानी है। कुछ वर्ष पहले की। याद कीजिएए जब टेलीविजन पर आमिर खान का शो ष्सत्यमेव जयतेष् आया था। सत्यमेव जयते में दिखाए गए दिल्ली बस अड्डे के सीन को ध्यान से देखिए। इसमें दिखाया गया है किस तरह बस अड्डे पर बने ढलाव ;रैम्पद्ध पर व्हीलचेयर चढ़ाने के लिए चार लोगों को जोर लगाना पड़ा ;इस बाबत मैं अपने अगले लेख में विस्तार से बात करूंगाद्ध ३ लेकिन क्या आपने उस दृश्य में व्हीलचेयर के आस.पास लगी भीड़ देखीघ् क्या कोई तमाशा हो रहा हैघ् पहले कोई व्हीलचेयर नहीं देखी या उस पर बैठे किसी व्यक्ति को नहीं देखाघ् आप कह सकते हैं कि भीड़ कैमरे के कारण लगी थीए लेकिन मुझसे पूछिएए अगर कैमरा नहीं भी होता तो भी समां कुछ ऐसा ही रहता।
बाकी सारी चीजे तभी ठीक होंगी जब विकलांगजनों का तमाशे की तरह देखा जाना बंद होगा। भ्रष्टाचार का केवल एक इलाज हैय और वो है समाज की मानसिकता व संस्कृति में बदलाव। आप कितने भी लोकपाल बिठा लीजिए दृभ्रष्टाचार कम तभी होगा जब लोगों की सोच बदलेगी। ठीक इसी तरह आप कितनी भी सरकारी योजनाएँ या विभाग बना दीजिए दृलेकिन कोई ठोस बदलाव तभी आएगा जब आम आदमी की विकलांगजन और विकलांगता के प्रति सोच बदलेगी। किसी जमाने में रोम के लिए कहा जाता था कि श्रोमन समाज केवल एक भीड़ हैश्३ मेरे विचार में फिलवक्त भारतीय समाज भी काफी हद तक लोगों की केवल एक भीड़ ही है। जो संवेदनशील नहीं होता वो इंसान नहीं बल्कि केवल एक भ्वउव ेंचपमदे होता है३ भ्वउव ेंचपमदे को प्रकृति बनाती है दृजबकि इंसान अनुभवए परिश्रम और संवेदनशीलता का उत्पाद है। भ्वउव ेंचपमदे भीड़ बनाते हैंय इंसान समाज बनाते हैं।
आंकडों के आधार पर बात करूंए तो संयुक्त राष्ट्रसंघ का आकलन है कि यह संख्या 65 करोड़ हैए जिनके लिए किसी न किसी किस्म के विशिष्ट अवसरों की आवश्यकता हैए ताकि वह शेष समाज के साथ आगे बढ़ें। वैसे एक तरफ जहां व्यापक समाज में विकलांगता के मसल को लेकर संवेदनशीलता की बढ़ोत्तरी के समाचार मिलते हैंए वहीं हम यह भी पाते हैं कि कार्पोरेट जगत के कर्णधार इस मामले में स्मृतिलोप का शिकार हैं। यह अकारण नहीं था कि कुछ वक्त पहले उद्योग परिसंघ के एक सम्मेलन में खुद पूर्व वित्तमंत्री पीण् चिदम्बरम को उद्योग जगत के इन कप्तानों को यह अपील करनी पड़ी कि वे अपने ष्मानवीय पक्ष को उजागर करेंष् और ष्अलग ढंग से सक्षम लोगों को नौकरी दें।ष् ऐसी अपील करन की फौरी वजह थी सरकार के सामने उजागर हुई यह हकीकत कि बजट में विकलांगों के कल्याण के लिए किए गए आवंटित की गई राशि का छह माह बाद भी अछूता रह जाना। चालू वित्त वर्ष की शुरुआत में पेश बजट में वित्तमंत्री ने विकलांगों की सहायता के मद में 1ए800 करोड़ रूपए की राशि रखी थी। इसके अन्तर्गत विकलांगों को नौकरी पर रखे जाने की स्थिति में सामाजिक सुरक्षा और कर्मचारियों की दी जाने वाली प्रोत्साहन राशि इस बजट से हासिल की जा सकती है। सरकार का यह भी आकलन था कि इसके माध्यम से एक लाख लोगों तक आसानी से पहुंचा जा सकेगा। बाद में सफाई के अन्दाज में यह कहा कि उन लोगों को इस योजना का पता ही नहीं था। यह भी मुमकिन है कि सरकारी अधिकारियों ने इसका विधिवत प्रचार नहीं किया होए लकिन क्या यह स्पष्टीकरण समूच कार्पोरेट जगत के लिए लागू हो सकता हैघ् दिक्कत यह है कि निजी क्षेत्रों में विकलांगों के रोजगार अवसर नाममात्र ही हैं। जहां बड़ी निजी फर्मों में यह आंकड़ा 0ण्3 फीसदी दिखता है तो विकलांगता के रूप में इंसानियत के सामने बड़ी चुनौती सामने है। अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन के हिसाब से दुनिया में 60 करोड़ लोग विकलांगता से पीडित हैंए तो संयुक्त राष्ट्र संघ का आंकड़ा 65 करोड़ का है। अलग बात है कि मुख्यधारा का समाज अब भी सक्षमवाद से मुक्त नहीं हो सका है। यह उस समझदारी को बयां करता हैए जहां श्सामान्य जीवनश् का पैमाना उन लोगों से तय होता है जो विकलांग नहीं हैं। इसी वजह से विकलांग अपनी शारीरिक या बौद्धिक क्षमताओं की भिन्नता के कारण मुख्यधारा में अपमान का शिकार होते हैं। सक्षमवाद को यूं परिभाषित किया जाता हैए श्ऐसे सामाजिक संबंधए व्यवहार और विचार जो इस धारणा पर आधारित होते हैं कि सभी लोग सक्षम शरीरों वाले होते हैं। एक सक्षमवादी समाज कम या भिन्न क्षमता वाले लोगों को छांट कर अलग कर देने पर जोर देता हैए जबकि एक समावेशी समाज सब लोगों को साथ ले चलने का आग्रह करता है।

(लेखिका जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधार्थी हैं।)

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