नहीं रहे विकलांगो के योद्धा समाजसेवी डॉ. जी. एन. कर्ण

नई दिल्ली। विकलांग जनों के हकों के लिए जीवन भर लड़ने वाले और सतत उनकी सहायता के लिए तत्पर रहने वाले डॉ. जी. एन. कर्ण आज हमारे बीच नहीं रहे। वे पिछले कुछ वर्षों से कैंसर से जूझ रहे थे।  डॉ. कर्ण नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन में डीजेबलिटी कोर ग्रुप के मेंबर थे। इसके अलावा नीति आयोग के पैनल में रुरल इकोनोमी, ग्लोबल रिसर्च नेटवर्क जैसी कई राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से वे जुड़े हुए थे। वे अपनी संस्था ‘Society for Disability and Rehabilitation Studies’ के माध्यम से देश भर में विकलांगों के अधिकार के लिए अंतिम समय तक संघर्षशील रहे।

बचपन में ही पोलियो के शिकार हो चुके डॉ. कर्ण हिम्मत और जिजीविषा के जीते-जागते उदाहरण थे। बिहार के एक छोटे से गाँव से आकार JNU के ‘अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान’ से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले डॉ. कर्ण अकादेमिक उपेक्षाओं के भी शिकार कम नहीं हुए, फिर भी उनके जोश को देखकर आश्चर्य होता था। उन्हीं के प्रयास से ‘विकलांगता-अध्ययन’ को यूजीसी द्वारा एक विषय के रूप में मान्यता मिली।

उन्होने हजारों विकलांगों को ह्वीलचेयर, लैपटॉप आदि देकर उन्हें सबल बनाने में अपना योगदान दिया। उन्होने विकलांगता विषय पर देश भर में सैकड़ों सेमीनार का आयोजन किया। भारत की ‘डीजेबलिटी समस्या’ पर लिखी गई उनकी अनेक पुस्तक अंतर्राष्ट्रीय अकादेमिक संस्थाओं में संदर्भ ग्रंथ के रूप में पढ़ाई जाती है। उनका जाना मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से बहुत बड़ी क्षति है। वे विकलांगता पर अँग्रेजी के साथ साथ हिन्दी में भी जर्मल निकालते थे।

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