बचपन में ही पोलियो के शिकार हो चुके डॉ. कर्ण हिम्मत और जिजीविषा के जीते-जागते उदाहरण थे। बिहार के एक छोटे से गाँव से आकार JNU के ‘अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान’ से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले डॉ. कर्ण अकादेमिक उपेक्षाओं के भी शिकार कम नहीं हुए, फिर भी उनके जोश को देखकर आश्चर्य होता था। उन्हीं के प्रयास से ‘विकलांगता-अध्ययन’ को यूजीसी द्वारा एक विषय के रूप में मान्यता मिली।
उन्होने हजारों विकलांगों को ह्वीलचेयर, लैपटॉप आदि देकर उन्हें सबल बनाने में अपना योगदान दिया। उन्होने विकलांगता विषय पर देश भर में सैकड़ों सेमीनार का आयोजन किया। भारत की ‘डीजेबलिटी समस्या’ पर लिखी गई उनकी अनेक पुस्तक अंतर्राष्ट्रीय अकादेमिक संस्थाओं में संदर्भ ग्रंथ के रूप में पढ़ाई जाती है। उनका जाना मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से बहुत बड़ी क्षति है। वे विकलांगता पर अँग्रेजी के साथ साथ हिन्दी में भी जर्मल निकालते थे।