इस साल भी कम नहीं है गरीबी के चुनावी समर का खेल

देश के सामने भले तमाम तरह की समस्याएं हैं लेकिन तमाम समस्यायों से जूझती जनता को राजनीति खूब भाती है। चुकी गरीब जनता राजनीति में बदलाव लाकर अपनी हालत बदलना चाहती है इसलिए राजनीति करने वाले खेल करने से बाज नहीं आते। वर्ष 2018 भी राजनीतिक रूप से काफी अहम् है। इस साल भी सियासत में घमसान के पूरे आसार हैं।

अखिलेश अखिल

हम नए साल में आ गए हैं। यह साल भी राजनीतिक रूप से काफी उथल पुथल वाला ही है।भले ही राजनीति हमें कुछ ना दे लेकिन उसके बिना रह भी नहीं सकते। फिर राजनीति में विकास कैसा ? दोनों दो ध्रुव है। राजनीति ठगी पर आधारित होती है जबकि विकास मानव कल्याण से जुड़ा है। जनता की बढ़ी आय,जनता का उन्नयन और जनता को मिल रहे शिक्षा ,स्वास्थ्य और रोजगार सेवाएं ही किसी भी सरकार का का मकसद होता है। लेकिन इस मकसद पर अटल कौन है ? सभी दलों के अजेंडे में बाते तो यही दर्ज होती है लेकिन वे करते कुछ और ही है। यही वजह है कि जो हमें चाहिए वह नहीं मिलता और जिसकी कल्पना भी नहीं करते वह हमारे सर पर डाल दिया जाता है। आलम यही है कि मरते रहिये लेकिन राजनीति राजनीति खेलते रहिये। यही है गरीबी पर चुनावी सतरंज का हमला।
देश के सामने भले तमाम तरह की समस्याएं हैं लेकिन तमाम समस्यायों से जूझती जनता को राजनीति खूब भाती है। चुकी गरीब जनता राजनीति में बदलाव लाकर अपनी हालत बदलना चाहती है इसलिए राजनीति करने वाले खेल करने से बाज नहीं आते। वर्ष 2018 भी राजनीतिक रूप से काफी अहम् है। इस साल भी सियासत में घमसान के पूरे आसार हैं।
वर्ष 2018 के पूर्वार्द्ध में चार राज्यों- कर्नाटक, मेघालय, त्रिपुरा और नागालैंड- तथा उत्तरार्द्ध में चार राज्यों- मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम- की विधानसभाओं के लिए चुनाव हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा की सरकारें हैं तथा इन राज्यों में पार्टी ने विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में लगातार शानदार जीत हासिल की है। इन राज्यों में उसका सीधा मुकाबला कांग्रेस से है, जिसका प्रदर्शन हालिया उपचुनावों तथा नगर निकायों और ग्राम पंचायत चुनावों में उल्लेखनीय रहा है। दोनों ही पार्टियों के लिए इन राज्यों के चुनाव निश्चित रूप से जीवन-मरण के प्रश्न होंगे और यहां के परिणामों का असर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। यदि भाजपा अपनी पकड़ मजबूत रखती है, तो न सिर्फ उसकी सरकारें कायम रहेंगी, बल्कि कांग्रेस की चुनौती भी कमजोर पड़ जायेगी। चूंकि यहां किसी क्षेत्रीय दल का खास वजूद नहीं है। इसलिए दोनों मुख्य पार्टियों और उनके शीर्ष नेताओं- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी- के करिश्मे पर इस साल नजर रहेगी, जैसा कि पिछले महीने गुजरात के चुनाव में देखा गया था।
कर्नाटक में कांग्रेस और त्रिपुरा में वाम मोर्चे की सरकारें हैं। यहां मुख्य चुनौती भाजपा के रूप में है। यदि कर्नाटक भाजपा के हाथ आ जाता है, तो दक्षिण भारत में उसके प्रसार का बड़ा मुकाम होगा और 2019 के लिए कांग्रेस की चुनौती को करारा झटका लगेगा। कांग्रेस के पास पंजाब के अलावा बड़े राज्यों में सिर्फ कर्नाटक ही बचा है। यह बात और है कि कर्नाटक में कांग्रेस की हालत अभी ठीक है लेकिन बीजेपी को भी कमतर नहीं माना जा सकता। येदुरप्पा की पूरी राजनीति बीजेपी को सत्ता में लाने की है तो उधर जनता दल सेक्युलर की हालत भी कुछ इलाकों में काफी मजबूत है। इसलिए वहाँ चुनाव त्रिकोणात्मक होने हैं।
त्रिपुरा का मामला भी पेचीदा हो सकता है। बीते तीन सालों में भाजपा ने पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में सरकारें बनायी हैं और पार्टी के प्रभाव क्षेत्र में तेज विस्तार हुआ है। इसी का नतीजा है कि त्रिपुरा में कांग्रेस की जगह इस बार भाजपा के वाम मोर्चे के सामने खड़े होने की संभावना जतायी जा रही है। इस प्रकार मुकाबला त्रिकोणीय होगा। त्रिपुरा के नतीजे आम चुनाव में वाम मोर्चे की भूमिका तथा उसके कांग्रेस के साथ मिल कर भाजपा गठबंधन को चुनौती देने की रणनीति पर भी असर डालेंगे। नागालैंड में अभी गठबंधन की सरकार है, जिसका मुख्य घटक नागा पीपुल्स फ्रंट है। फ्रंट के साथ भाजपा के अच्छे संबंध है। हालांकि भाजपा के यहां मुख्य खिलाड़ी बनने के आसार बहुत कम हैं, पर वह अगर चुनाव के बाद गठबंधन की सरकार में शामिल होती है, तो यह उसके लिए एक उल्लेखनीय उपलब्धि होगी। इस संदर्भ में देश की नजर नागा मसले पर विभिन्न पक्षों के रवैये पर भी रहेगी।
मेघालय में मुकुल संगमा के नेतृत्व में कांग्रेस की गठबंधन सरकार है। इस बार भाजपा ने सभी सीटों पर अकेले लड़ने का इरादा जताया है। लोकसभा के चुनाव में उसे कुछ हिस्सों में बहुत अच्छे मत मिले थे। पार्टी को उम्मीद है कि उसकी हिंदुत्व की छवि के बावजूद ईसाई-बहुल राज्य में उसकी मजबूत उपस्थिति बनेगी। मिजोरम में भी कांग्रेस की सरकार है। भाजपा ने स्थानीय पार्टी मारालैंड डेमोक्रेटिक फ्रंट को विलय कर सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है। यह भी दिलचस्प है कि पार्टी ने मिजो नेशनल फ्रंट से कोई भी चुनाव-पूर्व गठबंधन से इंकार कर दिया है, जबकि यह फ्रंट भाजपा के नेतृत्ववाले नॉर्थ-इस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस का हिस्सा है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि एक दशक पुरानी यहां की कांग्रेस सरकार को भाजपा से इस बार कड़ी चुनौती मिल सकती है।
पिछले साल अलग-अलग चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ की शिकायतें सामने आयीं तथा अनेक राजनीतिक दलों और कई मतदाताओं ने मशीन में गड़बड़ी की बात कही। कुछ लोग तो बैलेट पेपर की वापसी की मांग कर रहे हैं। इस मुद्दे पर आयोग ने स्पष्टीकरण दिया है, पर ऐसा लग रहा है कि इस साल भी यह विवाद बरकरार रहेगा। कह सकते हैं कि 2018 से 2019 तक देश में चुनाव ही चुनाव हैं। लोग अपनी समस्यायों से झुझते रहेंगे और राजनीतिक पार्टियां जनता को बरगलाती रहेगी। चुनावी परिणाम जो भी निकले सच तो यही है कि किसी भी राजनितिक दल को सिर्फ जीत से मतलब है जन सरोकार से कोई लेना देना नहीं।

(लेखक राजनीतिक मामलों के जानकार हैं।)

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