नई दिल्ली/ टीम डिजिटल। आज आपातकाल को याद करने का वक्त है । आज से साढे चार दशक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट से अपने चुनाव संबंधी फैसला आने के बाद देश पर अपने छोटे बेटे संजय गांधी की सलाह। पर इमरजेंसी यानी आपातकाल लगा दिया था और विपक्षी नेताओं और कुछ संगठनों के लीडर्ज को जेल में ठूंस दिया था । यहां तक कि बीमार जयप्रकाश नारियण को भी । जिन्होंने संपूर्ण क्रांति आंदोलन चला कर सारे देश में जागरूकता और कांग्रेस विरोधी माहौल तैयार कर दिया था । बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव और आजकल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उसी संपूर्ण क्रांति आंदोलन की उपज हैं ।
आपातकाल के बाद जब चुनाव हुए तब जनता ने सारा बदला चुका लिया और जनता पार्टी सत्ता में आई लेकिन सत्ता की महत्त्वाकांक्षा में सिर्फ अढाई वर्ष के बाद चुनाव की नौबत आ गयी और फिर से इंदिरा गांधी सत्ता में लौट आई । इसलिए आपातकाल न केवल कांग्रेस बल्कि दूसरे दलों के लिए भी किसी सबक से कम नहीं है । लोकतंत्र में आपातकाल जैसा कदम उठाना आत्मघाती कदम ही माना जाएगा । संविधान के दिए मौलिक अधिकार छीन लिए गये थे । अभिव्यक्ति का संकट था और अखबारों पर सेंसर का पहरा । समाचारपत्र संपादकीय की जगह खाली छोड कर अपना गुस्सा जाहिर कर रहे थे । बडे बडे नेता जेलों में बंद थे । अब भी लालकृष्ण आडवानी रोहतक जेल देखने आते हैं क्योंकि वे इसी जेल में बंदी थे ।
बडी बात यह कि क्या आज आपातकाल को याद करना उचित है ? शायद हां क्योंकि बुरे सबक को याद रखना चाहिए और सीख लेते रहना चाहिए । यदि ऐसा नहीं करेंगे तो फिर हम भी वैसी गलती दोहरा सकते हैं । सयाना व्यक्ति दूसरों की गलतियों से सीखता है । आज भी दबी जुबान में कहा जा रहा है कि मीडिया पर तो अघोषित आपातकाल लगा है । पुण्य प्रसून वाजपेयी और अब रवीश कुमार अपनी तेजतर्रार पत्रकारिता के चलते पृष्ठभूमि में डाल दिए गये । जो बिहार के मुजफ्फरनगर के बच्चों के बीमारी से मरने की वजह सिर्फ डॅक्टरों से पूछे और मुख्यमंत्री से पूछे कि आम कौन सा पसंद है , वही पत्रकार टिक सकते हैं । सत्ता की आंख में आंख डालकर सवाल पूछने पर पृष्ठभूमि में भेज दिए जाओगे । इसलिए आपातकाल की घोषणा न कर और न कोई इल्जाम सिर पर लेकर आपातकाल लगाना ही सबसे बेहतर विकल्प है ।