मैत्री को संबंध का बंधन रूप न देना

मैत्री को संबंध का बंधन रूप न देना
बस यूँ ही
इक दूजे के दिल में संबद्धता से रहना।
क्योंकि
संबंध तो होता है बंधन से स्थापित
जो हो सकता कभी भी विस्थापित
संबंध में दिखती जो सार्वभौमिकता
नहीं होती भाव भूमि में वास्तविकता
संम्पूर्णता में जब होता एकाकीपन
तभी स्मृति में आते अपने मित्रगण
बस इसलिए
मैत्री को संबंध का बंधन रूप न देना
बस यूँ ही
इक दूजे के दिल में संबद्धता से रहना।

अशेष स्वाभाविक संवेदना है मित्रता
जो हमारे अंतस्थ में है सतत बसता
ये है भाव में समाहित स्वाभाविकता
अभेद्य स्वभाव कभी नहीं बिखरता
भौतिक मानसिक स्तर की है मुक्तता
न बचती स्व औ पर की पृथक सत्ता
बस इसलिए
मैत्री को संबंध का बंधन रूप न देना
बस यूँ ही
इक दूजे के दिल में संबद्धता से रहना।

मैत्री है हमारे अंतह् का आत्म भाव
जहाँ नहीं है स्वभाव से भी अलगाव
स्वयं को ही जोड़ने की है यह चेतना
आकर्षण विकर्षण से पृथक हो देखना
मैत्री स्त्रोत की होती है जब सामीप्यता
मिल जाती है हमें इक संपूर्ण सुदृढ़ता।
बस इसलिए
मैत्री को संबंध का बंधन रूप न देना
बस यूं ही
इक दूजे के दिल में संबद्धता से रहना।

 

अंजना झा
फरीदाबाद, हरियाणा

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