क्या ममता हार मान चुकी है?

डॉ नीलम महेंद्र

आज़ाद भारत के इतिहास में शायद पहली बार चुनावी हिंसा के कारण देश के एक राज्य में चुनाव प्रचार को 20 घंटे पहले ही समाप्त करने का आदेश चुनाव आयोग ने लिया है। बंगाल में चुनावों के दौरान होने वाली हिंसा के इतिहास को ध्यान में रखते हुए ही शायद चुनाव आयोग ने बंगाल में सात चरणों में चुनाव करवाने का निर्णय लिया था लेकिन यह वाकई में खेद का विषय है कि अब तक जो छः चरणों में चुनाव हुए हैं उनमें से एक भी बिना रक्तपात के नहीं हो पाया। यह चुनावी हिंसा बंगाल में कानून व्यवस्था और लोकतंत्र की स्थिति बताने के लिए काफी है। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि ममता अपने राज्य में होने वाले उपद्रव के लिए अपने प्रशासन को नहीं मोदी को जिम्मेदार ठहरा रही हैं। वैसे तो ममता बनर्जी ने अपने इरादे इसी साल के आरंभ में ही जता दिए थे जब उन्होंने मोदी के विरोध में कलकत्ता में 22 विपक्षी दलों की एक रैली आयोजित की थी।

इस रैली में उन्होंने मंच से ही कहा था कि बीजेपी नेताओं के हेलीकॉप्टर बंगाल में उतरने ही नहीं देंगी और देश ने देखा, जो उन्होंने कहा वो किया। इससे पहले भी देश में लोकतंत्र की चिंता करने वाली इस नेत्री ने 2018 में बीजेपी को रथयात्रा की अनुमति नहीं दी थी। आश्चर्य इस बात का भी होना चाहिए कि बंगाल में ममता की रैलियां तो बिना किसी उत्पात के हो जाती हैं लेकिन भाजपा की रैलियों में हिंसा हो जाती है। यह अत्यंत दुखद है कि जिस वामपंथी शासन काल में होने वाली हिंसा और अराजकता से मुक्ति दिलाने के नाम पर ममता ने बंगाल की जनता से वोट मांगे थे आज सत्ता में आते ही वो खुद भी उसी राह पर चल पड़ी हैं । अभी पिछले साल ही बंगाल में हुए पंचायत चुनाव बंगाल की राजनीति की दिशा और वहाँ पर लोकतंत्र की दशा बताने के लिए काफी थे। वो प्रदेश जिसकी मुख्यमंत्री ने इसी साल जनवरी में “लोकतंत्र और संविधान की रक्षा” के लिए सम्पूर्ण विपक्ष के साथ मिलकर रैली की थी उसी प्रदेश में उसी मुख्यमंत्री के कार्यकाल में मात्र सात माह पहले हुए पंचायत जैसे चुनाव भी बिना हिंसा के संपन्न नहीं होते। आप इसे क्या कहिएगा कि इन पंचायत चुनावों की 58692 सीटों में से 20159 सीटें तृणमूल कांग्रेस द्वारा बिना चुनाव के ही जीत ली जाती हैं। जी हाँ, इन सीटों पर एक भी वोट नहीं पड़ता है और तृणमूल के उम्मीदवार निर्विरोध जीत जाते हैं। क्योंकि इन सीटों पर लोगों को नामांकन दाखिल ही नहीं करने दिया जाता। और अब लोकसभा चुनावों के दौरान हिंसा का जो तांडव बंगाल में देखने को मिल रहा है वो देश के किसी राज्य में नहीं मिल रहा यहां तक कि बिहार और जम्मू कश्मीर तक में नहीं। वो भी तब जब राज्य में केंद्रीय बलों की 713 कंपनियाँ और कुल 71 हज़ार सुरक्षा कर्मी तैनात किए गए हों। सोचने वाली बात यह है कि जिस राज्य में इतने सुरक्षा बल के होते हुए एक राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की रैली में उस स्तर की हिंसा होती है कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़ दी जाती है और अमित शाह को कहना पड़ता है कि अगर सीआरपीएफ की सुरक्षा न होती तो मेरा बंगाल से बचकर निकलना बहुत मुश्किल था। ऐसे राज्य में एक आम आदमी की क्या दशा होती होगी? इस हिंसा के लिए भाजपा ने सीधे सीधे ममता को दोषी ठहरा कर चुनाव आयोग से शिकायत की जबकि ममता का कहना है कि इस हिंसा के लिए भाजपा जिम्मेदार है। लेकिन एक मुख्यमंत्री के तौर पर ममता बनर्जी को यह बोलने से पहले इस बात को समझना चाहिए कि अगर वे सही कह रही हैं और यह हिंसा भाजपा की रणनीति का हिस्सा थी तो एक मुख्यमंत्री के तौर पर यह उनकी प्रशासनिक विफलता है।

अगर यह हिंसा तृणमूल की साज़िश थी तो यह उनकी राजनैतिक पराजय की स्वीकारोक्ति है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण विषय यह है कि जब अपने प्रदेश की कानून व्यवस्था को काबू में रखने में जब वे विफल होती हैं और ऐसे में जब चुनाव आयोग को दखल देना पड़ता है तो उन्हें चुनाव आयोग में आर एस एस के लोग नज़र आते हैं। जब राज्य में हिंसा को रोकने में नाकाम रहने के कारण चुनाव आयोग को चुनाव प्रचार पर समय से पहले रोक लगाने का फैसला सुनाना पड़ता है तो ममता प्रेस कांफ्रेंस करके चुनाव आयोग पर भाजपा का एजेंडा चलाने जैसे आरोपों की बौछार लगा देती हैं। जबकि वे जानती हैं कि चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संस्था है और वो इससे पहले योगी आदित्यनाथ मेनका गांधी साध्वी प्रज्ञा सिद्धू आज़म खान अनेक नेताओं पर भी फैसला दे चुकी है और इन सभी ने चुनाव आयोग के फैसले का सम्मान किया किसी ने आरोप नहीं लगाए लेकिन दीदी को गुस्सा ज़रा ज्यादा आता है। सहिष्णुता की बात करने वाली दीदी को समझना चाहिए कि उनकी सहनशीलता देश देख रहा है। इससे पहले भी जब शारदा चिटफंड घोटाले की जाँच करने के लिए सीबीआई के अफसर बंगाल आए थे तो ममता के रवैये से राज्य में संवैधानिक संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।

बंगाल में राजनैतिक प्रतिद्वंदिता या दुश्मनी

इतना ही नहीं अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करने वाली दीदी का एक मीम बनाने पर एक महिला को जेल में डाल देती हैं। और तो और कोर्ट के उस महिला को तत्काल रिहा करने के आदेश के बावजूद उस महिला को 18 घंटे से अधिक समय तक जेल में ही रखा जाता है और रिहा करने से पहले उनसे एक माफीनामा भी लिखवाया जाता है। दीदी को यह समझना चाहिए कि आज सोशल मीडिया का ज़माना है। मीडिया को मैनेज किया जा सकता है सोशल मीडिया को नहीं। उन्हें समझना चाहिए कि देश की जनता पर “वो क्या कहती है उससे अधिक प्रभाव वो क्या करती हैं” का पड़ता है। एक तरफ वो लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की बात करती हैं तो दुसरी तरफ वो उसी संविधान का तिरस्कार करती हैं जब वो एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने हुए प्रधानमंत्री को प्रधानमंत्री मानने से ही इनकार कर देती हैं। वो उन्हें जेल भेजने की बात करती हैं। इतना ही नहीं वो एक मिनिट में बीजेपी के दफ्तर पर कब्ज़ा कर लेने की बात करती हैं। इस प्रकार की बयानबाजी करने से पहले उन्हें सोचना चाहिए कि अगर वो विपक्षी गठबंधन की स्थिति में खुद को देश के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखती हैं तो क्या उनके इस आचरण से देश भी उनमें अपने लिए एक प्रधानमंत्री देख पाएगा?

दरअसल दीदी की राजनैतिक महत्वाकांक्षा ने बीजेपी से उनकी राजनैतिक प्रतिद्वंतिता को कब राजनैतिक दुश्मनी का रूप दे दिया शायद वे भी नहीं समझ पाईं। लेकिन बंगाल में ताज़ा हिंसा के दौर ने जिसमें अनेक राजनैतिक हत्याएं तक शामिल हैं, सभी सीमाओं को लांघ दिया है। यह चुनाव अब ममता बनाम मोदी की सीमा से बाहर आ चुका है। बंगाल में यह लड़ाई केंद्र सरकार और राज्य सरकार के दायरे से भी बाहर आ गई है। अब यह लड़ाई है देश के एक राज्य के लोगों के अधिकारों की , कि क्या वो राज्य देश के संविधान और कानून से चलेगा या तानाशाही पूर्ण रवैये से।

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