क्या बढता हुआ संरक्षणवाद वैश्वीकरण के अंत का सूचक है?

नीतू ग्रोवर

संरक्षणवाद वह आर्थिक नीति है जिसका मूल उद्देश्य विभिन्न देशों के बीच आयातित वस्तुओं पर शुल्क लगाना, प्रतिबंधक आरक्षण और व्यापार निरोधक लगाना है। यह नीति अवैश्विकरण से सम्बंधित है और वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार के बिलकुल विपरीत है, जिसमें सरकारी प्रतिबंधक बाधाओं अतिन्युन्य रखा जाता है ताकि विभिन्न देशों के बीच व्यापार सुगमता से चलता रहे। अर्थशास्त्री मानते हैं कि संरक्षणवाद का अर्थ ऐसी नीतियों का अपनाया जाना है जिससे उस देश के व्यापार और कर्मचारियों की विदेशी अधिग्रहण रक्षा की जा सके। इसके लिए उस देश की सरकार द्वारा दूसरे देशों के साथ किये जाने वाले व्यापार का विनियमन या प्रतिबंधन किया जाता है।

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिण्टन ने इतिहास को साक्षी मानते हुए कहा था- “आज तक किसी भी पीढ़ी को ऐसा सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ जो हमें प्राप्त हुआ है; वह है- एक ऐसी वैश्विक अर्थव्यवस्था के निर्माण का जिसमें कोई पिछड़ा हुआ नहीं रहेगा। यह हमारे लिये गंभीर उत्तरदायित्व निभाने का एक बेहतरीन अवसर है। जिसके तहत इस एकीकृत विश्व में लोग वस्तुओं और सेवाओं से लेकर विचारों एव नवाचारों तक का आदान-प्रदान कर पाएंगे।”

अब, इस संदर्भ में अगर हम वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दृष्टिकोण की बात करें तो उनके विचारों का मुख्य सार ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति है। इसके तहत विभिन्न वस्तुओं, सेवाओं एवं नागरिकों के निर्बाध आवागमन पर प्रशुल्क, कोटा एवं वीज़ा के माध्यम से विभिन्न प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिये गए हैं। इसी नीति के तहत ट्रंप सरकार ने प्रशान्त-पारीय, उत्तरी अटलांटिक एवं अटलांटिक-पारीय देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौंतो जैसे- टीपीपी, एनएएफटीए और टीटीआईपी को भी समाप्त करने की घोषणा कर दी है। इन सभी कदमों का मुख्य उद्देश्य अमेरिकी उत्पादकों, व्यापारियों एवं कार्मिकों को आयात प्रतिस्पर्द्धा से संरक्षण प्रदान करना है।

क्लिंटन बनाम ट्रंप अर्थात् वैश्वीकरण बनाम संरक्षणवाद की यह दुविधा अमेरिका ही नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व में विद्यमान है। वर्तमान वैश्विक परिवेश को अगर हम व्यापक दृष्टि से देखें तो सम्पूर्ण विश्व मुख्यतः दो भागों में बंटा हुआ नज़र आता है-

संरक्षणवादी पश्चिम- इसमें पश्चिमी दुनिया के विकसित देश सम्मिलित हैं, जो संरक्षणवादी विचारधारा को प्रोत्साहन दे रहे हैं, मसलन- ब्रिटेन का ‘ब्रेक्जिट’, अमरिका का ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ बाई ‘अमेरिका फर्स्ट’। कुछ इसी तरह विश्व के विकसित एवं उभरते देशों के समूह जी-20 ने भी संरक्षणवादी नीतियों को अपनाने पर बल दिया है। यूरोपीय संघ के देशों द्वारा टीटीआई एवं टीपीपी का विरोध यह स्पष्ट करता है कि सम्पूर्ण पश्चिमी जगत वैश्वीकरण के विरोध में एकजुट हो चुका है।

वैश्वीकृत पूर्व- इसमें एशिया, मध्य एशिया एवं अफ्रीका महाद्वीप के विकासशील एवं अल्पविकसित देश शामिल हैं। जहाँ मुक्त व्यापार समझौंते, उदारीकृत कर व्यवस्था एवं निवेश आकृष्ट करने हेतु नियमों के सरलीकरण की प्रक्रिया आज भी जारी है। यह यहाँ की जनता एवं सरकार का वैश्वीकरण में बढ़ते विश्वास को अभिव्यक्त करता है। आज वैश्विक अर्थव्यवस्था एशिया में स्थानांतरित हो चुकी है और भारत विश्व के सबसे बड़े बाज़ार एवं मैन पावर से युक्त है, जो स्वयं में एक विश्व है। इसकी विविधता ने ही यहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की संस्कृति को पल्लवित एवं पोषित किया है। चीन एवं जापान इस क्षेत्र की महाशक्तियाँ हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था निर्यातोन्मुखी है। वहीं दूसरी ओर अफ्रीका एवं एशिया के विकासशील व अल्पविकसित राष्ट्र विकास के लिये विदेशी निवेश एवं विदेशी व्यापार पर निर्भर हैं। अतः संरक्षणवादी नीतियाँ इन राष्ट्रों के लिये वज्रपात के समान होंगी।

2007-08 की वैश्विक आर्थिक मंदी जिसने दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों को अपनी आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार करने हेतु बाध्य कर दिया और इस विचार-मंथन से जो निष्कर्ष उभरकर आया है, वह है- ‘वैश्वीकरण का अंत और संरक्षणवाद का प्रारम्भ।’ यह सत्य है कि संरक्षणवाद लघुकाल के लिये लाभप्रद हो सकता है लेकिन इसके साथ यह भी सत्य है कि इससे महज घरेलू समस्याओं का ही समाधान हो पाएगा, जबकि वैश्विक समस्याएँ अधिक विकराल रूप धारण करके हमारे समक्ष उपस्थित होंगी, मसलन- जब बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ किसी एक देश में सिमट जाएंगीं तो पहले से जिन-जिन देशों में कार्यरत थीं, वहाँ अनुत्पादकता, बेरोज़गारी एवं अभावों को छोड़कर जाएंगी, जबकि अपने गृह राष्ट्र में ये अनावश्यक बोझ के समान होंगी। सारांशतः कहें तो अनेक कम्पनियों को अपने उत्पादों के लिये बाज़ार नहीं मिलेंगे, वहीं कई बाज़ारों को उत्पाद नहीं मिलेंगे। विश्व व्यापार संगठन, व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन तथा आर्थिक सहयोग संगठन की ओर से तैयार रिपोर्ट में ये बात कही गई कि आर्थिक मंदी के इस दौर में बढ़ती संरक्षणवादी नीतियां विश्व व्यापार बेहद प्रभावित करेंगी।

आज हमें आवश्यकता है एक ऐसी सन्तुलित व्यवस्था की जिसका दृष्टिकोण वैश्विक हो एवं क्रियान्वयन स्थानीय हो अर्थात् ‘ग्लोकल एप्रोच’ जिसमें ‘थिंक ग्लोबल’ एवं एक्ट लोकल’ पर बल दिया जाता है। ‘ग्लोकल’ वास्तव में आर्थिक गतिविधियिों का वैश्विक एकीकरण है। इसका उद्देश्य दुनिया का कोई भी उत्पादक विश्व के किसी भी कोने में सस्ती एवं बेहतर तकनीक से उत्पादन करे और उसे दुनिया के किसी भी बाज़ार में बेचकर वाजिब लाभ कमाए। अतः सारांश में कह सकते हैं कि ‘ग्लोकल’ में ‘वसुधैव-कुटुम्बकम’ का भाव निहित है। जिसमें अतीत का अनुभव, वर्तमान की ताकत एवं भविष्य की चुनौतियों से निपटने का समाधान समाहित है।

नीतू ग्रोवर

 

 

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