झारखण्ड को चाहिए आदिवासी मुख्यमंत्री ?

झारखण्ड में भले ही पूर्ण बहुमत वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार को, लेकिन सरकार और संगठन के बीच सबकुछ अच्छा नहीं चल रहा है। आदिवासी बहुल इस राज्य में लोकसभा चुनाव 2014 से पूर्व ही नरेंद्र मोदी ने संथाल परगना पर अधिक फोकस किया था। उस समय उनका मानना था कि यदि भाजपा ने संथाल में जमीन मजबूत कर ली, तो राज्य में सत्ता-शासन में रहने में कोई अधिक परेशानी नहीं होगी। इसका नतीजा यह हुआ कि विधानसभा चुनाव में पहली बार भाजपा पूर्ण बहुमत में आई। लेकिन, बमुश्किल दो साल ही हुए कि मुख्यमंत्री रघुवर दास भाजपा नेताओं से बेहतर तालमेल नहीं रख पाए। नतीजा, संथाल में भाजपा लडखडा रही है। हाल में संथाल क्षेत्र के दिग्गज नेता साइमन मरांडी ने भाजपा खासकर मुख्यमंत्री के कामकाज पर तल्ख टिप्पणी की है। दूसरे नेता हेमलाल भी रघुवर दास के कामकाज से खुश नहीं हैं।

सुभाष चंद्र

कहा जाता है कि झारखंड में जिसने आदिवासियों को जीत लिया, मुख्यमंत्री की कुर्सी उसी की होती है। हैरत की यह बात है कि जिस आदिवासी बहुल राज्य की राजनीति पूरी तरीके से जनजातियों और पिछड़ों के इर्द-गिर्द घुमती है, वहां की सत्ता में सीधा दखल ना के बराबर है। यूं तो झारखंड में 30 जनजातियां पाई जाती हैं, लेकिन राज्य बंटवारे के बाद से अब तक यहां की चार ही आदिवासी समुदाय के लोग विधानसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा पाए हैं। यानी केवल चार ही आदिवासी समुदाय के लोग राजनीति में सीधे तौर पर शामिल हुए हैं।मालूम हो कि राज्य में आदिवासी 26 प्रतिशत हैं, लेकिन अब तक इसी समाज के लोग यहां मुख्यमंत्री बनते आए हैं। राज्य में अब तक तीन बार हुए विधानसभा चुनावों में केवल मुंडा, उरांव, हो और संथाल जनजाति के नेता ही विधायक और सांसद बन पाए हैं। जबकि यहां बराईक, बिरजिया, असुर, बिरहोर, लोहरा, सारक, पहाड़िया, माल्टो आदि 30 जनजाति समुदाय के लोग रहते हैं। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा की राज्य ईकाई के कद्दावर नेता अर्जुन मुंडा ’मुंडा’ जनजाति से आते हैं। राज्य राजनीति में खास दखल रखने वाला सोरेन घराना ’संथाल’ जनजाति के हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखदेव भगत ’उरांव’ जनजाति से हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मधुकोड़ा और प्रदीप बलमुचु ’हो’ जनजाति से आते हैं। हर चुनाव में आदिवासी और गैर-आदिवासी मुद्दा होता है। यह पहली बार है कि वर्तमान मुख्यमंत्री रघुवर दास गैर-आदिवासी हैं। राज्य में राजनीतिक संतुलन बना रहे, इसलिए भाजपा ने आदिवासी नेता को अपना प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। पहले ताला मरांडी और वर्तमान में लक्ष्मण गिलुआ हैं।

आदिवासियों में पैठ नहीं बना पा रही रघुवर सरकार

आदिवासी बहुल राज्य झारखण्ड की राजनीति आसपास के चार प्रदेशों में आदिवासी राजनीति को प्रभावित करती है। बीते विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम और चेहरे पर आदिवासी समाज ने भी उम्मीदों के संग भाजपा को वोट किया था। अव्वल तो यह कि जिस संथाल में सोरेन परिवार का एक तरह से कब्जा रहा है, वहां भी दुमका से निवर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन चुनाव हार गए। कई आदिवासी नेता साइमन मरांडी जैसे भाजपा में आए। लेकिन, महज दो साल में ही रघुवर दास के नेतृत्व वाली सरकार ने एक के बाद एक आदिवासी विरोधी निर्णय लिए। आदिवासियों का मोह भंग हुआ। साइमन मरांडी दोबार झामुमो में चले गए और लिट्टीपाडा को जीतने का सपना भाजपा का धरा ही धरा रह गया। यह सीधे सीधे रघुवर सरकार की विफलता है। सीएनटी एक्ट पर जिस प्रकार से आदिवासी नेताओं का विश्वास नहीं जीता गया। उन्हें पूरा प्रारूप नहीं समझाया गया, उसी का नतीजा रहा कि विधानसभा में काफी दिनों तक इस पर गतिरोध बना रहा। और तो और, महामहिम राज्यपाल ने भी अब तक उस पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं।
ऐसे में बरबस ही सवाल उठता है कि आखिर रघुवर सरकार ऐसे अलोकप्रिय फैसले क्यों कर रही है? क्या यह किसी हड़बड़ी में है? क्या वाकई कोई दबाव है, जैसा कि इस सरकार पर आरोप लगाया जाता रहा है? राज्य के पहले मुख्यमंत्री, जो उस समय भाजपा में ही थे, बाबूलाल मरांडी की माने तो इसका जवाब है- हां, सरकार हड़बड़ी में है। उनका कहना है कि भाजपा यह समझ गई है 2019 में उनका लौटना मुश्किल है। राज्य के 28 फीसदी आदिवासी, 17 फीसदी मुस्लिम और करीब 11 फीसदी दलित अगले चुनाव में उसे वोट नहीं देंगे। पिछले चुनाव में भाजपा की लहर के बावजूद उसे 37 सीटें (वोट शेयर 35 फीसदी) ही मिली थी। तब सबने उसे वोट दिया था।
मुख्यमंत्री रधुवर दास दो बातों पर जोर दे रहे हैं। एक तो यह कि विकास के लिए जमीन चाहिए और इसके लिए वर्तमान कानून में संशोधन जरूरी है। दूसरी बात यह कि संशोधन से आदिवासी-मूलवासी जमीन मालिकों का कोई नुकसान नहीं होगा। क्योंकि, कृषिभूमि का उपयोग परिवर्तन स्वयं उनके हित में भी है। वे खेती के अतिरिक्त अन्य व्यवसायिक कार्यों के लिए उक्त जमीन का इस्तेमाल कर सकेंगे। हालांकि, संशोधन विरोधी उनकी नीयत पर शक करते हैं। कहते हैं कि वर्तमान कानून में भी इस बात के लिए प्रोविजन हैं। आजादी के बाद कई कल-कारखाने यहां लगे हैं, कई डैम बनाए गए हैं। बिजली परियोजनाएं हैं। रेल लाइन बिछाने का मामला हो या सड़क बनाने का क्या कभी जमीन की समस्या हुई? आदिवासी अपनी जमीन पर खेती करे या कोई और काम क्या किसी ने उसे रोका है? सरकार असली बात दबाना चाहती है। वह अडानी जैसे पूंजीपतियों को जमीन सौंपनेवाली है।

आदिवासी पर होती है राजनीति

कहा जाता है कि झारखंड में जिसने आदिवासियों को जीत लिया, मुख्यमंत्री की कुर्सी उसी की होती है। हैरत की यह बात है कि जिस आदिवासी बहुल राज्य की राजनीति पूरी तरीके से जनजातियों और पिछड़ों के इर्द-गिर्द घुमती है, वहां की सत्ता में सीधा दखल ना के बराबर है। यूं तो झारखंड में 30 जनजातियां पाई जाती हैं, लेकिन राज्य बंटवारे के बाद से अब तक यहां की चार ही आदिवासी समुदाय के लोग विधानसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा पाए हैं। यानी केवल चार ही आदिवासी समुदाय के लोग राजनीति में सीधे तौर पर शामिल हुए हैं।
राज्य में अब तक तीन बार हुए विधानसभा चुनावों में केवल मुंडा, उरांव, हो और संथाल जनजाति के नेता ही विधायक और सांसद बन पाए हैं। जबकि यहां बराईक, बिरजिया, असुर, बिरहोर, लोहरा, सारक, पहाड़िया, माल्टो आदि 30 जनजाति समुदाय के लोग रहते हैं।
मुंडा जनजाति के लोग छोटानागपुर और कोल्हान के इलाके में पाए जाते हैं। वहीं उरांव जनजाति की बहुलता भी छोटानागपुर और कोल्हान में ही है। 65,000 वर्ग किलो में फैला छोटानागपुर का इलाका रांची, हजारीबाग और कोडरमा है। इसके अलावा श्होश् जनजाति के लोग कोल्हान के इलाके में बसते हैं। संथाल जनजाति के लोग कोयलांचल यानी धनबाद, बोकारो, गिरिडीह और इसके आसपास के इलाकों में फैला है।राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा की राज्य ईकाई के कद्दावर नेता अर्जुन मुंडा श्मुंडाश् जनजाति से आते हैं। राज्य राजनीति में खास दखल रखने वाला सोरेन घराना श्संथालश् जनजाति के हैं। भाजपा के हेमलाल मुर्मू भी श्संथालश् जनजाति से आते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मधुकोड़ा और प्रदीप बलमुचु श्होश् जनजाति से आते हैं।

रघुवर की जगह आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने की मांग

झारखण्ड के कई भाजपा आदिवासी विधायक अपने समुदाय से मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर रहे हैं। इसने साथ वैसे भाजपाई भी साथ हो लिए हैं, जो यह मानते हैं कि झारखण्ड आदिवासी बहुल राज्य है। इसलिए यहां की संपदा और सत्ता पर पहला अधिकार मूलवासी यानी आदिवासियों का होना चाहिए। साथ ही पार्टी के कई रणनीतिकार भी मानते हैं कि यदि झारखण्ड में आदिवासी समुदाय से मुख्यमंत्री बनाया जाता है, तो उसका लाभ भाजपा को केवल झारखण्ड ही नहीं, बल्कि आस-पडोस के चार आदिवासी बहुल राज्यों में मिलेगा। जिससे मोदी और भाजपा का मिशन 2019 आसान होगा। ऐसे लोग यह कहते हैं कि आदिवासी चेहरा ऐसा हो, जो पढा लिखा हो। साफ-सुथरी छवि का हो। जो विधायी समझ रखता हो। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा वर्तमान में विधानसभा के सदस्य भी नहीं है। ऐसे में दिनेश उरांव पर जाकर सबकी निगाहें रूक जाती हैं।

 

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