दिल्ली में इन दिनों सैकड़ो संस्थाएँ स्थापित हो गयी है जिनका समाज के काम या भलाई का कोई उद्देश्य नहीं होता बस राजनीति करण और चाटुकारिता के पंगु हो गए है। अपनी राजनीति छवि को चमकाने में लगे रहते हैं।जो लोग संस्था को आर्थिक मदद भी नहीं करते हैं वे लोग दिन रात नेताओं के आगे पीछे होकर अपना सम्मान और पुरस्कृत होने के लिए मंच पर विराजमान होकर लोगों को दिखावा करते नजर आते हैं।
रंजना झा ( समाजसेवी)
नई दिल्ली। संस्था,संगठन, या फिर आप की राजनीतिक,सामाजिक गतिविधि कितना कुछ होता है आपके जीवन में। आप का योगदान जो आप समय निकाल कर अपने संस्थाओं को देते हैं। उसमें आप की कितनी भागीदारी होती है? या आपको जिम्मेदारी कितनी मिलती है? ज्यादातर ऐसे संस्थानों में काम करने वालों की उपेक्षा होती है आपका परिहास या फिर मखौल उड़ा दिया जाता है।
दिल्ली में इन दिनों सैकड़ो संस्थाएँ स्थापित हो गयी है जिनका समाज के काम या भलाई का कोई उद्देश्य नहीं होता बस राजनीति करण और चाटुकारिता के पंगु हो गए है। अपनी राजनीति छवि को चमकाने में लगे रहते हैं।जो लोग संस्था को आर्थिक मदद भी नहीं करते हैं वे लोग दिन रात नेताओं के आगे पीछे होकर अपना सम्मान और पुरस्कृत होने के लिए मंच पर विराजमान होकर लोगों को दिखावा करते नजर आते हैं। संस्था को चलाने वाले भी अपने ही लोगों को संस्था में रखते हैं और बड़े बड़े सेठ,साहुकार,और व्यापरियों से पैसा ऐंठ कर संस्था चलाते हैं। इसमें बड़े बड़े नेता भी NGO खोल कर समाज और देश का बंटाधार कर रहे हैं। ये नेता सरकार से लाइसेंस लेकर अपने परिवार के सदस्य का नाम नामांकित करवा देते हैं। NGO के नाम पर मिलने वाली सुविधा वह खुद लेता है और सरकार को कागज दिखा कर उनकी आँखों में धूल झोंकता है। यह भी समाज का एक घिनौना हिस्सा है।गुस्सा तो तब आता है जब आपकी इमानदारी को ठेंस लगती है।आप उस संस्था की सारी बात मानते हैं जो संस्था का अध्यक्ष कहता हैं उसके इसारे पर चलते हैं फिर एक दिन सम्मान समारोह में वही लोग सम्मानित होते हैं जो दबंग या चाटुकार हैं।
और आपको जब कार्यक्रम समाप्त हो जाता हैंं तो आपको दूध में पड़ी मख्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया जाता है। सरकार को चाहिए कि अच्छे संस्था को ढूंढे और उसकी जाँच करे उसमें पारदर्शिता लाने की भरसक कोशिश करें और संस्था के माध्यम से अच्छे लोगों का चयन करें। जितने भी फालतू संस्था है सभी को रद्द कर दिया जाना चाहिए। संस्था में जितने कार्यक्रम होते हैं उसमें संस्था के अध्यक्ष या उनके चाटुकार ही लोग मंच पर बड़े बड़े नेता के इर्द गिर्द नजर आएगें आपको पता भी नहीं चलेगा कि संस्था का संचालन किसके माध्यम से हो हो रहा है आप वहाँ सभागार में मुँह बाये हका बका उस कार्यक्रम को सफल बनाने का एक मात्र
नाटक कर ताली बजाते हुए वहाँ से खिसक लेते हैं।
शर्म आती है ऐसे संस्था और संगठन चलाने वालों पर। क्या समाज को ऐसी संस्था की जरूरत है ?क्या इससे आम आदमी का विकास हो सकता है ? यह एक बड़ा प्रश्न है सरकार से और समाज से भी क्योंकि हम इसी समाज के विभिन्न रूप में काम करते हैं और जीने की अभिलाषा रखते हैं साथ साथ अपना स्वाभिमान भी!