परिंदे और प्रवासी मजदूर : कैलाश सत्यार्थी

नोबेल शांति पुरस्‍कार से सम्‍मानित विश्व प्रसिद्ध बाल अधिकार कार्यकर्ता श्री कैलाश सत्‍यार्थी लॉकडाउन से बेरोजगार हुए प्रवासी मजदूरों और उनके बच्चों को लेकर चिंतित हैं। उनकी मदद के लिए व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास के साथ-साथ वे इसके लिए लगातार सरकार और कोरपोरेट जगत के लोगों से बातचीत कर रहे हैं। पिछले दिनों अपने गांवों की तरफ लौटते भूख से तड़पते प्रवासी मजदूरों को देखकर श्री सत्‍यार्थी इतने व्‍यथित हुए कि उन्‍होंने अपनी व्‍यथा और संवेदना को शब्दों में ढाल दिया। वे घर लौट रहे दिहाड़ी मजदूरों की व्‍यथा को इस कविता में प्रतीकात्‍मक अंदाज में व्‍यक्‍त करते हैं। इस कविता के जरिए वह भारत के भाग्‍य विधाता और सभ्‍यताओं के निर्माता इन मजदूरों प्रति असीम कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए यह उम्मीद भी जताते हैं कि एक दिन उनके जीवन में सब कुछ अच्छा होगा….

परिंदे और प्रवासी मजदूर

– कैलाश सत्यार्थी

मेरे दरवाज़े के बाहर घना पेड़ था,
फल मीठे थे
कई परिंदे उस पर गुज़र-बसर करते थे
जाने किसकी नज़र लगी
या ज़हरीली हो गईं हवाएं

बिन मौसम के आया पतझड़ और अचानक
बंद खिड़कियां कर, मैं घर में दुबक गया था
बाहर देखा बदहवास से भाग रहे थे सारे पक्षी
कुछ बूढ़े थे तो कुछ उड़ना सीख रहे थे

छोड़ घोंसला जाने का भी दर्द बहुत होता है
फिर वे तो कल के ही जन्मे चूज़े थे
जिनकी आंखें अभी बंद थीं, चोंच खुली थी
उनको चूम चिरैया कैसे भाग रही थी
उसका क्रंदन, उसकी चीखें, उसकी आहें
कौन सुनेगा कोलाहल में

घर में लाइट देख परिंदों ने
शायद ये सोचा होगा
यहां ज़िंदगी रहती होगी,
इंसानों का डेरा होगा
कुछ ही क्षण में खिड़की के शीशों पर,
रोशनदानों तक पर
कई परिंदे आकर चोंचें मार रहे थे
मैंने उस मां को भी देखा, फेर लिया मुंह
मुझको अपनी, अपने बच्चों की चिंता थी

मेरे घर में कई कमरे हैं उनमें एक पूजाघर भी है
भरा हुआ फ्रिज है, खाना है, पानी है
खिड़की-दरवाज़ों पर चिड़ियों की खटखट थी
भीतर टीवी पर म्यूज़िक था, फ़िल्में थीं

देर हो गई, कोयल-तोते,
गौरैया सब फुर्र हो गए
देर हो गई, रंग, गीत, सुर,
राग सभी कुछ फुर्र हो गए

ठगा-ठगा सा देख रहा हूं आसमान को
कहां गए वो जिनसे हमने सीखा उड़ना
कहां गया एहसास मुक्ति का, ऊंचाई का
और असीमित हो जाने का

पेड़ देखकर सोच रहा हूं
मैंने या मेरे पुरखों ने नहीं लगाया,
फिर किसने ये पेड़ उगाया?
बीज चोंच में लाया होगा उनमें से ही कोई
जिनने बोए बीज पहाड़ों की चोटी पर
दुर्गम से दुर्गम घाटी में, रेगिस्तानों, वीरानों में
जिनके कारण जंगल फैले, बादल बरसे
चलीं हवाएं, महकी धरती

धुंधला होकर शीशा भी अब,
दर्पण सा लगता है
देख रहा हूं उसमें अपने बौनेपन को
और पतन को
भाग गए जो मुझे छोड़कर
कल लौटेंगे सभी परिंदे
मुझे यक़ीं है, इंतजार है
लौटेगी वह चिड़िया भी चूज़ों से मिलने
उसे मिलेंगे धींगामुश्ती करते वे सब मेरे घर में
सभी खिड़कियां, दरवाज़े सब खुले मिलेंगे
आस-पास के घर-आंगन भी
बांह पसारे खुले मिलेंगे।

– कैलाश सत्यार्थी

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