सकारात्मक पहल है मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देना

विभय कुमार झा

यह कई शोधों में सिद्ध हो चुका है और कई शिक्षाविद् भी इस बात की ओर इशारा दे चुके हैं कि कोई भी बच्चा अपनी मातृभाषा में चीजों को जल्दी सीख पाता है। कई वर्षों से मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने की बात हो रही थी। जब से प्रधानमंत्री की कमान नरेंद्र मोदी के हाथों आईं, इस ओर सकारात्मक कदम उठाने की बात हुई। पूर्व केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर इस संदर्भ में कई सार्वजनिक मंचों पर अपनी राय व्यक्त कर चुके थे। आखिकर इसे मूर्त रूप दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबनेट ने देश की नई एजुकेशन पॉलिसी (एनईपी-2020) को मंजूरी दे दी। इसके साथ ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नाम को भी बदलकर शिक्षा मंत्रालय (एजुकेशन मिनिस्ट्री) कर दिया गया है। इसरो के पूर्व प्रमुख के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाले पैनल ने कुछ समय पहले ही नई शिक्षा नीति का ड्राफ्ट एचआरडी मिनिस्टर रमेश पोखरियाल निशंक को सौंप दिया था।
नई शिक्षा नीति के तहत अब सरकार भारतीय शिक्षा के पूरे ढांचे को ही बदलने पर ध्यान देना चाहती है, ताकि ऐसा सिस्टम विकसित किया जा सके, जो 21वीं सदी के लक्ष्य के हिसाब से हो और भारत की परंपराओं से भी जुड़ा रहे। नई शिक्षा नीति के तहत प्री-प्राइमरी एजुकेशन (3-6 साल के बच्चों के लिए) का 2025 तक वैश्वीकरण किया जाना है। साथ ही सभी के लिए आधारभूत साक्षरता मुहैया कराना है। इसके अलावा सभी को शिक्षा मुहैया कराने के लक्ष्य के साथ नई शिक्षा नीति में 2030 तक 3 से 18 साल के बच्चों के लिए शिक्षा को अनिवार्य किया जाना है। नई शिक्षा नीति में सरकार ने छात्रों के लिए नया पाठ्यक्रम तैयार करने का भी प्रस्ताव रखा है। इसके लिए 3 से 18 साल के छात्रों के लिए 5़3़3़4 का डिजाइन तय किया गया है। इसके तहत छात्रों की शुरुआती स्टेज की पढ़ाई के लिए 5 साल का प्रोग्राम तय किया गया है। इनमें 3 साल प्री-प्राइमरी और क्लास-1 और 2 को जोड़ा गया है। इसके बाद क्लास-3, 4 और 5 को अगले स्टेज में रखा गया है। क्लास-6, 7, 8 को तीन साल के प्रोग्राम में बांटा गया है। आखिर क्लास-9, 10, 11, 12 को हाई स्टेज में रखा गया है।नई शिक्षा नीति के तहत सबसे खास बदलाव स्कूली शिक्षा को लेकर किया गया है। अब पांचवीं तक बच्चों की पढ़ाई मातृभाषा में होगी। इसके अलावा बोर्ड एग्जाम को दो भाग में बाटा जाएगा। बच्चों पर पढ़ाई के बोझ को संतुलित करने के प्रयास होंगे। इसके लिए अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन के लिए एनसीईआरटी द्वारा पाठ्यक्रम तैयार होगा। बुनियादी शिक्षा (6 से 9 वर्ष के लिए) के लिए फाउंडेशनल लिट्रेसी एंड न्यूमेरेसी पर नेशनल मिशन शुरु किया जाएगा। स्कूली शिक्षा की रुपरेखा 5+3+3+4 के आधार पर तैयारी की जाएगी, जिसमें अंतिम 4 वर्ष 9वीं से 12वीं की शिक्षा शामिल है।
छात्रों को आर्ट्स, ह्यूमैनिटीज, साइंस, स्पोर्ट्स और वोकेशनल सब्जेक्ट में ज्यादा छूट और कई सब्जेक्ट्स के विकल्प देने का भी प्रावधान किया गया है। ताकि छात्र अफनी पसंद के विषय पर ज्यादा ध्यान दे सकें। इसके अलावा चूंकि स्टूडेंट्स 2 से 8 साल की उम्र में जल्दी भाषाएं सीख जाते हैं। इसलिए उन्हें शुरुआत से ही स्थानीय भाषा के साथ तीन अलग-अलग भाषाओं में शिक्षा देने का प्रावधान रखा गया है। गौरतलब है कि तीन भाषाओं का फॉर्मेट 1968 से ही शिक्षा नीति में शामिल है।
नई शिक्षा नीति में पाँचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। हालांकि नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा। एनसीईआरटी 8 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा (एनसीपीएफ़ईसीसीई) के लिए एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचा विकसित करेगा। स्कूलों में शैक्षणिक धाराओं, पाठ्येतर गतिविधियों और व्यावसायिक शिक्षा के बीच ख़ास अंतर नहीं किया जाएगा। सामाजिक और आर्थिक नज़रिए से वंचित समूहों की शिक्षा पर विशेष ज़ोर दिया जाएगा।
मैं मिथिला क्षेत्र से आता हूं। यहां की कला संस्कृति, भाषा-साहित्य और संस्कार बेहद समृद्ध है। बिहार में समय समय पर मैथिली में प्राथमिक शिक्षा देने की बात भी जोर पकडती जा रही है। मेरे विचार में जैसे ही मैथिली में प्राथमिक शिक्षा देने की व्यवस्था होगी, इससे लोगों को रोजगार भी मिलेगा। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से। विदित हो कि संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल मैथिली एक स्वतंत्र भाषा है, जिसकी अपनी लिपि, अपना व्याकरण, अपना भाषाविज्ञान और सभी विधाओं में अपना विपुल साहित्य-भंडार है। लिखित साक्ष्य के रूप मे मैथिली लगभग 1000 वर्ष पुरानी भाषा है। विश्वविद्यालय स्तर पर एवं साहित्य अकादेमी में इसे भाषा के रूप में 1960 के दशक से ही मान्यता प्राप्त है। अतः मेरा सुझाव है कि इसे कोई आंचलिक भाषा न समझा जाए, बल्कि अष्टम अनुसूची में शामिल अन्य भाषाओं की तरह ही प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा में एक भाषा के रूप में इसके अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हो।
यही नहीं, प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर मैथिली पठन-पाठन का माध्यम बने और सभी विषयों की पाठ्य-पुस्तकें मैथिली भाषा में प्रकाशित करवाई जाएं। इसके लिए प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में मैथिली शिक्षकों की अलग से नियुक्ति की व्यवस्था होनी चाहिए। आज मैथिली भाषी लोग सिर्फ बिहार, झारखंड, नेपाल में ही नहीं रहते, बल्कि देश के लगभग सभी प्रांतों में लाखों की संख्या में मैथिली भाषी लोग आंतरिक प्रवासी के रूप में रहते हैं। उनके बच्चों की मातृभाषा मैथिली है। उन्हें अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाने का अधिकार है, इसलिए पूरे देश में मैथिली में शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था हो। बिहार और झारखंड ही नहीं, देश के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में भी मैथिली भाषा की पढ़ाई हो। इसके लिए अन्य जो भी व्यवस्थाएं करनी पड़े, सरकार को उसे करना चाहिए, ताकि करोड़ों मैथिली भाषी लोगों के बच्चे अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाने से वंचित न रह जाएं। अनेक अध्ययनों से यह प्रमाणित हो चुका है कि जो बच्चे अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाते हैं, उनके सीखने (अधिगम) की गति तेज होती है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का ड्राफ्ट 2019 में ही तैयार कर लिया गया था, जिसकी मंजूरी आज, 29 जुलाई 2020 को दी गयी है। बता दें कि इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1986 में अपने कार्यकाल में नई शिक्षा नीति बनाई थी, जिसे 1992 में संशोधित किया गया था। दस्तावेज के अनुसार नई शिक्षा नीति फंडामेंटल पिलर एक्सेस, सामर्थ्य, इक्विटी, गुणवत्ता और जवाबदेही पर आधारित है। नई नीति बदलते विश्व परिवेश और इसके साथ छात्रों को अपडेट रखने की आवश्यकता पर भी ध्यान देती है।

(लेखक स्वयंसेवी संस्था अभ्युदय के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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