ताऊ बोल्या के ठाठ , हर फिल्म में हरियाणवी का तडका

एक समाचारपत्र ने ताऊ बोल्या व्यंग्य कार्टून क्या शुरू किया , धीरे धीरे यह सर्वप्रिय हो गया । फिर प्रवीण मुखीजा नाम के एंकर ने भी हरियाणवी लहजे में ही प्रस्तुतिकरण किया और उसका भी चोखा रंग जमा । फिर तो फिल्मों में भी हरियाणवी बोली छाने लगी । एक फिल्म में तो अमिताभ बच्चन भी हरियाणवी लहजे में बोलते नजर आए ।
दंगल और सुल्तान ने तो धूम ही मचा दी । हरियाणवी लहजा आमिर खान ने अपनाया और – हमारी छोरियां छोरों से कम है के तो बच्चे की जुबान पर चढ गया ।
पर दुखांत यह है कि हरियाणवी फिल्म बनाने वाले इस दंगल और सुल्तान को पहचान न सके । कैसे एक कार्यक्रम सत्यमाव जयते में से आमिर खान एक पूरी फिल्म ही निकाल लाए । यह हासिल हरियाणवी फिल्म निर्माता  और निर्देशक क्यों नहीं पकड पाए ? वह पारखी नजर आमिर और सलमान खान के पास ही क्यों ? हरियाणवी फिल्मों के सफल न होने के पीछे लगातार कलाकार एक ही बात कहते हैं कि असल में हरियाणवी बोली में एकरूपता नहीं है । यही वजह है कि सभी शहरों में सफल नहीं हो पाती । कहां तो चंद्रावल हरियाणा से बाहर यूपी में भी सिल्वर जुबली मना गयी और कहा पगडी -द ऑनर अपने ही शहर हिसार में दर्शकों के लिए तरस गयी जबकि सारी काॅस्ट हिसार की । हर छोटा बडा कलाकार हिसार का । बेशक फिल्म को श्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड मिला और बलजिंद्र कौर को सह अभिनेत्री का अवार्ड मिला । हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने भी दस लाख रुयये दिए लेकिन अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के बावजूद घाटे से उबर नहीं पाई । निर्माता निर्देशक राजीव भाटिया कैसे नयी फिल्म बनाने के बारे में सोच सकते हैं ? इसी प्रकार जींद के संदीप शर्मा ने सतरंगी फिल्म बनाई । इसे भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिला लेकिन घाटा सहना पडा । आजकल यशपाल शर्मा पंडित लखमीचंद बनाने की कोशिश में लगे हैं । खुद लखमीचंद के गेटअप में दिखते हैं । ऑडिशन भी शहर शहर जाकर लिए हैं । इस बहाने फिल्म को प्रचार भी मिल गया है । फिल्म अभी सैट पर नहीं आई है। यह फिल्म एक इम्तिहान होगा यशपाल शर्मा का । यदि चल गयी तो नया इतिहास रच देंगे ।
पत्रकार से निर्देशक बने अश्वीनी चौधरी ने बढिया तकनीक से लाडो फिल्म बनाई लेकिन समय से आगे विषय के चलते इसे विरोध का सामना भी करना पडा। लाडो को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिला । इसी प्रकार अरूण गोवलीकर ने भी हरियाणवी फिल्मों में भाग्य आजमाया लेकिन बात न बनती देख देख लगान जैसी फिल्म बनाई ।
हरियाणा की कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के युवा कल्याण विभाग के निदेशक अनूप लाठर ने चंद्रावल और लाडो बसंती में रोल किए लेकिन हरियाणवी संस्कृति की सेवा के लिए निदेशक पद पर ही काम करना बेहतर समझा । कई वर्ष बाद अपने मित्र भाल सिंह बल्हारा की फिल्म वादा तेरा वादा में प्रिंसिपल का छोटा सा रोल किया । भाल सिंह बल्हारा ने भी फिल्म बनाई अपने बेटे अंकित को लांच करने के लिए लेकिन हीरोइन हिंदी में डायलाॅग बोल रही थी । हरियाणवी बोलने वाली हीरोइन भी न ढूंढ पाए तो फिल्म का क्या भविष्य होता ? हालांकि तकनीक हिंदी फिल्मों को टक्कर देने वाली थी । ऊषा शर्मा ने चंद्रावल का पार्ट टू बनाया लेकिन फिल्म पहले जैसी सफलता न दोहरा सकी बल्कि पंचकूला से आगे जा ही नहीं पाई । यह कितना बडा दुखांत रहा । एक सफल फिल्म का इस तरह पिट जाना ।
हरियाणवी फिल्म निर्माताओं को फिल्म महोत्सवों में पूरी फीड बैक मिल रही है । यह खुशी की बात है कि यमुनानगर व हिसार में फिल्म महोत्सव होने लगे हैं । जिससे सभी कलाकार आपस में मिल बैठने लगे हैं । दुआ करते हैं कि हरियाणवी फिल्में भी अन्य भाषाई फिल्मों की तरह चलेंगी ।
 
कमलेश भारतीय 

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