ट्रिपल तलाक़ सरकारी दख़ल और मंशा पर सवाल…

सुप्रीम कोर्ट ने तलाक़ ऐ बिद्दत याने एक बार में तीन तलाक़ पर स्थाई निषेधाज्ञा जारी कर सरकार को इसपर क़ानून बनाने की सलाह दी थी तब सरकार ने इस निर्णय का स्वागत तो किया था लेकिन क़ानून बनाने पर मौन थी , अचानक गुजरात चुनाव के दौरान क़ानून बनाने की ख़बरें चर्चाओं के केंद्र में आईं। किसी भी माध्यम से ट्रिपल तलाक़ अवैध और अपराध के दायरे में लाने की सरकार की योजना है लेकिन यह निर्णय जितना स्वाभाविक दिखता है उतना है नही इसके कई विवादित और सियासी पहलू हैं जो सरकार के निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।

रिज़वान अहमद सिद्दीक़ी

 

उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान ज़ोर पकड़ने वाले ट्रिपल तलाक़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद एक बार फिर गुजरात चुनाव में चर्चित हुये इस मामले में आख़िर गुरुवार को केंद्रीय कैबिनेट ने भी एक बड़ा और विवादित निर्णय लिया है । अब यह विधेयक संसद में पेश करने की योजना है , जिसमें ट्रिपल तलाक़ को ग़ैरक़ानूनी बनाने के साथ संज्ञेय और ग़ैरज़मानती अपराध बनाये जाने की तैयारी है।
सुप्रीम कोर्ट ने तलाक़ ऐ बिद्दत याने एक बार में तीन तलाक़ पर स्थाई निषेधाज्ञा जारी कर सरकार को इसपर क़ानून बनाने की सलाह दी थी तब सरकार ने इस निर्णय का स्वागत तो किया था लेकिन क़ानून बनाने पर मौन थी , अचानक गुजरात चुनाव के दौरान क़ानून बनाने की ख़बरें चर्चाओं के केंद्र में आईं। किसी भी माध्यम से ट्रिपल तलाक़ अवैध और अपराध के दायरे में लाने की सरकार की योजना है लेकिन यह निर्णय जितना स्वाभाविक दिखता है उतना है नही इसके कई विवादित और सियासी पहलू हैं जो सरकार के निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। क़ानून के जानकार मानते है कि इसमें 3 वर्ष की सज़ा का प्रावधान इस कानून को सर्वाधिक विवादास्पद और अव्यवहारिक बनायेगा। निकाह एक निजी , भावनात्मक , धार्मिक और पारिवारिक मसला है तलाक़ जिसकी अलोकप्रिय और अपवाद स्परूप अंतिम परिणीति है जिसके शरीयत में मियां- बीवी के कई अधिकार निहित हैं लेकिन यदि तलाक़ की स्थिति में महिला पति के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करवाती है तो उसके जेल जाने और या सज़ायाफ़्ता होने की स्थिति में पत्नी और अन्य आश्रितों के भरणपोषण का दायित्व किसका होगा साथ ही देश में इस प्रकार किसी भी विवाह विच्छेद में सज़ा का प्रावधान नही है तो इस मामले में सज़ा या संज्ञेय अपराध के प्रावधान अलोकप्रिय या दुरूपयोग या परिवारिक बिखराव की वजह भी बन सकते हैं यह आशंका ज़ोर पकड़ेगी।
इस क़ानून को जल्दबाज़ी में यूँ सामने लाना सत्तापक्ष बीजेपी के महज़ सियासी पैंतरे के तौर पर भी देखा जाने लगा है। सरकार साबित करने की कोशिश करेगी कि वह मुस्लिम महिलाओं के संरक्षण में बेहद गम्भीर है, ऐसे में विपक्ष के समर्थन या विरोध दोनों का ही वो राजनितिक लाभ लेने का प्रयास करेगी । विरोध करने की परिस्थिति में विपक्ष को कटघरे में लेने का उसे अवसर भी मिलेगा । विपक्ष की इस मामले में स्थिति सांप छछुंदर सी भी हो सकती है।
उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ के परम्परा के विपरीत आये फ़ैसले के बावजूद मुस्लिमों के बीच सवाल तो कई उठे लेकिन इसपर प्रतिक्रिया न के बराबर सामने आई लेकिन बीजेपी सरकार के इस क़दम के ख़िलाफ़ देशभर से तीख़ी प्रतिक्रियाओं की आशंका प्रतीत होने लगी है। यह मुद्दा भी हिन्दू मुस्लिम ध्रुवीकरण का आधार बन सकता है। इसमें शामिल कई कठोर प्रावधान से मुस्लिम महिलाएं कितनी सन्तुष्ट होती हैं , यह अलहदा है लेकिन मुस्लिमों को मिले विशेष शरिया अधिकार से नाख़ुश हिंदूवादी विचार के लोग तो अवश्य प्रसन्न होंगे।
इतना महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले सरकार यदि सभी सामाजिक और सियासी पक्षों को भरोसे में लेकर क़ानून बनाने की दिशा में बढ़ती तो बेहतर होता और उसकी मंशा पर शक की गुंजाईश भी जाती रहती । वैसे भी मुसलमानों के बीच बीजेपी के सामने विश्वास का संकट है, ऐसे में इस क़ानून पर बखेड़ा खड़ा होना तय सा माना जा रहा है।
तलाकशुदा या इस तरह प्रताणित मुस्लिम महिला के सामाजिक और आर्थिक संरक्षण में सरकार कोई स्पष्ट प्रावधान करे तो बेहतर होगा । एक बार तीन तलाक़ पर रोक से क्या तलाक़ में कमी आ जायेगी क्योकि तीन अलग अलग समय में तलाक़ देने का शरई हक़ तो अभी लागू रहेगा।
सरकार की मंशा पर इसलिये भी प्रश्नचिन्ह लग रहा है क्योंकि वैवाहिक सम्बंधों में विश्वासघात अन्य विवाह होने आदि में हिन्दू महिला के संरक्षण के लिये इस प्रकार की सज़ा आदि का प्रावधान नही है जैसे यदि एक पत्नी के होते हुये एक या एक से अधिक महिला से पुरुष वैवाहिक सम्बन्ध बना ले तो उस पुरुष के ख़िलाफ़ किसी भी प्रकार के आपराधिक प्रकरण का प्रावधान नही है , ऐसे मामलो में तो लिवइन में रहने वाली महिला के संरक्षण के भी कई न्याय दृष्टान्त है। हिन्दू महिलाओं को संरक्षण देने के पूर्व मुस्लिम महिलाओं को अधिकार देने की सरकार की यह आतुरता कई सवालों और शंकाओं को जन्म देती है।
यदि महिला को संरक्षण देने वाली मेहर की रकम संतान के भरण-पोषण आदि के स्पष्ट प्रावधान निकाहनामे में होने लगें तो मुस्लिम महिलाओं को बेहतर संरक्षण मिल सकता है लेकिन यह प्रावधान सरकार के अधिकार क्षेत्र के बाहर हैं तो बेहतर होता मुस्लिम महिलाओं को संरक्षण देने के लिये सरकार मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड,ओलेमा काउंसिल आदि संस्थानों को भरोसे में लेकर पहल करती। इतना तो तय है इस मामले में विरोध ज़ोर पकड़ेगा और सियासी फ़ायदे उठाने के लिये राजीनतिक रोटियां भी सेंकी जायेंगी। इस अब देखना यह है कि क्या सरकार मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक को अमली जामा पहना सकेगी।

(एडीटर इन चीफ़, न्यूज़ वर्ल्ड सेटेलाइट चैनल, मप्र / उप्र/छग)

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