नई दिल्ली। कोरोना वायरस के इस संक्रमण काल में लोगों की मदद के लिए सरकार कुछ न कुछ कर रही है, अच्छी बात है। मगर उन पत्रकारों के लिए कुछ भी नहीं कर रही है, जो देश-दुनिया की खबर जनमानस तक पहुंचाते हैं, पर अपनी दिक्कत या परेशानियों का दिल पर बोझ लिए घुटकर रह जाते हैं। क्या उनका कोई परिवार नहीं? उनके बच्चे नहीं? वह बीमार नहीं पड़ते? या फिर उनकी कोई जरूरत नहीं होती? किसी फोरम या संगठन में भी इस मुद्दे पर कम ही चर्चा हो पाती है। हजारों पत्रकारों के समक्ष आज जीवनयापन की समस्या एक यक्ष प्रश्न की तरह खड़ी हो गयी है। सभी पत्रकार या मीडियाकर्मी हर तरह से संपन्न ही होते हैं, यह सच्चाई नहीं है। कुछ मीडिया हाउस को छोड़कर मंझोले या छोटे मीडिया हाउस की स्थिति आज किसी से छुपी हुई नहीं है। इतना ही नहीं, केंद्र और राज्य सरकार द्वारा प्रत्यायित स्वतंत्र पत्रकारों की हालत और भी बदतर है। उनके पास आज काम नहीं है। जिन पब्लिकेशनों या मीडिया संस्थानों में वो काम करते थे, वह स्वयं आर्थिक तंगी की चपेट में हैं। उनकी दलील है कि जिन विज्ञापनों के जरिए सरकार के कामकाज की सूचनाएं जन-जन तक पहुंचती थीं और मीडिया हाउस को आर्थिक बल मिलता था, आज वही नगण्य है।
राज्य और केंद्र सरकार को जगाने के लिए राजधानी दिल्ली के कुछ पत्रकार संगठनों ने हालांकि उनकी आवाज बुलंद की है। मसलन वर्किंग जर्नलिस्ट ऑफ इंडिया और नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट समेत कई संगठनों ने मीडियाकर्मियों के हित में अच्छी पहल की है। केंद्र और राज्य सरकार को इस बावत पत्र भी लिखा है। पूर्व से आर्थिक रूप से लड़खड़ाते मीडिया संस्थानों की कोरोना संकट ने कमर तोड़ डाली है। इसमें भी ज्यादातर छोटे या मंझोले पत्रकार ही मारे गए हैं। ये ऐसे पत्रकार हैं, जो दुख या अभाव में कहीं हाथ भी फैला नहीं सकते। किसी राहत शिविर की लाइन में भी खड़े नहीं हो सकते। बीमार पड़ जाए तो इलाज के लिए दर-दर भटकते हैं। इतना ही नहीं, काम करते हुए अगर किसी सफाईकर्मी की मौत हो जाए तो सरकार के पास उनके आश्रितों के लिए मुआवजा, सुरक्षा और नौकरी तक के प्रावधान है। मगर पत्रकारों के साथ ऐसा हो जाए, तो कोई पूछने वाला भी नहीं।
और तो और, कोरोना लॉकडाउन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार यह कहा है कि इस संकट में कोई भी निजी संस्थान अपने कर्मचारी को नौकरी से नहीं निकाले, उनकी सैलरी न काटे। मगर प्रधानमंत्री की इस संवेदनशील अपील को कई मीडिया हाउस ने बड़ी बेदर्दी से अवहेलना कर दी है। इन संस्थानों में कटनी-छंटनी शुरू हो गई है। इससे भी दुखद तो यह कि कई जगहों पर पत्रकारों के श्रम से अर्जित किए गए बकाया पारिश्रमिक भी इस संकट की घड़ी में भी वह देने को तैयार नहीं। भारतीय दंड संहिता में अगर कोरोना लॉकडाउन का उल्लंघन कानूनी अपराध है या दूसरे सख्त कानूनी कार्रवाई का प्रावधान है, तो ऐसे मालिकों या संपादकों पर इन दिनों कौन सी धाराएं लगनी चाहिए? ऐसे में पत्रकार संगठनों का सरकार के समक्ष आर्थिक पैकेज की मांग अनुचित नहीं है। दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार समेत अन्य सरकारों को भी ऐसे पत्रकारों को आर्थिक मदद के लिए आगे आना चाहिए।
सरकार के साथ-साथ तमाम मीडिया संस्थानों से अपील है कि पत्रकार भी इन दिनों कोरोना वायरस के पीड़ितों से कम नहीं हैं। वे देश का संबल हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ हैं और हर संकटकाल की तरह ही आज की संकट की घड़ी में भी खतरों से खेलकर रिपोर्टिंग के जरिए देशवासियों तक खबरें पहुंचा रहे हैं। इस महामारी पर चिंतन कर रहे हैं। लोगों को सही जानकारी देने का माध्यम बन रहे हैं। मगर इन पत्रकारों के प्रति बेहतर समझ न रखने वाले कुछ लोग इन्हें ‘कोरोना वॉरियर्स’ के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं। उनकी सोच पर यही कह सकते हैं कि ‘मानो तो देव, नहीं तो पत्थर।’ सरकार द्वारा कोरोना वॉरियर्स के लिए 50 लाख की सुरक्षा बीमा कवर दिए जाने का फैसला स्वागतयोग्य है। लेकिन पत्रकारों की उपेक्षा अत्यंत दुखद है। डॉक्टर, पुलिस, सफाईकर्मी के साथ मीडियाकर्मियों को भी वही सम्मान, वही सुरक्षा और वही सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए। लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को बिसरा देना कहां का न्याय है? मायूसी, हताशा-निराशा, असुरक्षा और संसाधन विहिन होकर कोरोना जैसे महामारी के खिलाफ आखिर वह कैसे लोकहित में जंग लड़ पाएगा? यह देश को सोचने की जरूरत है।
-सुशील देव