नोएडा आकर योगी ने तोडा मिथक, दिखाया जज्बा

नोएडा। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री नोएडा आने से डरता है। किसी अपशकुमन के आशंका मात्र से आना नहीं चाहता। लेकिन, सोमवार को योगी आदित्यनाथ ने यहां आकर अपना जज्बा दिखाया और यह संदेश दिया कि वे अपने कार्यों और लक्ष्यों के आगे किसी मिथक को नहीं मानते। सुनी सुनाई बातों पर यकीन नहीं करते हैं। कर्म उनके लिए प्रधान है।
योगी की नोएडा यात्रा पर तंज कसते हुए पूर्व मुख्यमंत्री और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव तो इस बावत यहां तक कह गए कि बिल्ली भी अगर रास्ता काट देती है तो हम रुक जाते हैं। आगे नहीं बढ़ते लेकिन भाजपा वालों की भगवान से डाइरेक्ट सेटिंग है। वे धर्म को भी नहीं मानते। इसे कहते हैं आत्मबल का अभाव। कमजोर दिल का आदमी। ये वही अखिलेश यादव हैं जो अपने पांच साल के कार्यकाल में कभी नोएडा नहीं गए। यह अलग बात है कि उनके पास उत्तर प्रदेश में शानदार बहुमत की सरकार थी लेकिन नोएडा जाने से हमेशा डरते रहे। नोएडा जाने की बजाए, लखनऊ स्थित अपने सरकारी आवास से ही वे वहां की योजनाओं का बटन दबाकर शिलान्यास करते रहे। जब भी नोएडा यात्रा की चर्चा होती तो वे अभी बहुत समय है, कहकर मामले को टाल जाते।
योगी आदित्यनाथ की नोएडा यात्रा इसलिए भी चर्चा के केंद्र में है क्योंकि पिछले 29 साल से उत्तर प्रदेश का नवविकसित औद्योगिक नोएडा अभिशप्त है। वहां जाने में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भय खाते रहे हैं कि कहीं उनकी कुर्सी न चली जाए। उनके हाथ से सत्ता न खिसक जाए। मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने 75 जिलों का दौरा शुरू किया था लेकिन संयोगवश वे नोएडा नहीं पहुंच सके थे। तब से आज तक उनके आत्मबल पर भी सवाल उठ रहे थे। लोग जानना चाह रहे थे कि योगी आदित्यनाथ अपने कार्यकाल में नोएडा जाएंगे भी या नहीं। नोएडा के अभिशप्त होने की अंधविश्वासी गाथा तब चर्चा में आई जब कांग्रेस सरकार में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और गोरखपुर के निवासी वीर बहादुर सिंह 23 जून 1988 को नोएडा गए। इसके अगले दिन परिस्थितियां ऐसी बनीं कि उनको अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। उस दिन से यह माना जाने लगा कि जो भी मुख्यमंत्री नोएडा जाता है उसकी कुर्सी चली जाती है। 1989 में नारायण दत्त तिवारी और 1999 में कल्याण सिंह की भी नोएडा गए और इसके बाद दैवयोग से उनकी भी कुर्सी चली गई। वर्ष 1995 में मुलायम सिंह यादव को भी नोएडा आने के कुछ दिन बाद ही अपनी सरकार गंवानी पड़ गई थी। योगी से पहले मायावती ने अगस्त 2011 में इस मिथक को तोड़ने की कोशिश करते हुए अगस्त, 20011 में 700 करोड़े के प्रेरणा पार्क का उद्घाटन किया था लेकिन 2012 में राजनीतिक समीकरण बदलने पर वे सत्ता से बाहर हो गईं। कुर्सी जाने के भय से अखिलेश यादव तो कभी नोएडा गए ही नहीं। राजनाथ सिंह, राम प्रसाद गुप्ता यहां तक कि मुलायम सिंह यादव भी नोएडा जाने से परहेज करते रहे। इस अंधविश्वास के चलते नोएडा में यादव सिंह सरीखे अधिकारी फलते-फूलते रहे। करोड़ों-अरबों का घोटाला करते रहे और पूर्व की सरकारें सब कुछ जानते हुए भी मूकदर्शक बनी रहीं।
योगी आदित्यनाथ आत्मबल के धनी हैं। वे अंधविश्वासों पर नहीं, काम करने में विश्वास रखते हैं। उन्हें कुर्सी की नहीं, दायित्व निर्वहन की चिंता होती है। वे ईश्वरीय शक्ति पर, अपने प्रबल पुरुषार्थ पर विश्वास रखते हैं। यह अलग बात है कि उनके विरोधी खुश हैं कि वहां जाते ही समय उनके विपरीत होगा और सत्ता उनके हाथ से चली जाएगी। योगी का अनभल चाहने वाले विरोधी दल ही हों, ऐसा नहीं है, उनकी अपनी पार्टी में भी उनके बहुतेरे विरोधी हैं।

संगठित अपराध को नियंत्रित करने के लिए लाए गए विधेयक ‘यूपीकोका’ से केवल विपक्षी ही चिंतित हों, ऐसा नहीं है। कुछ भाजपा विधायक भी इससे डरे हुए हैं। उनकी चिंता वर्तमान को लेकर नहीं है। भविष्य को लेकर है। उनकी मानें तो योगी आदित्यनाथ संत हैं, ईमानदार हैं। वे चाहकर भी इस कानून का दुरुपयोग सपा, बसपा और कांग्रेस के विधायकों, सांसदों या अन्य पार्टी नेताओं के खिलाफ नहीं होने देंगे जब तक कि कोई बड़ा ठोस कारण सामने न हो लेकिन जब भाजपा सत्ता में नहीं रहेगी, सत्ता सपा-बसपा के हाथ में होगी तो यही कानून भाजपा विधायकों, सांसदों और पार्टी पदाधिकारियों के गले की फांस बन जाएगा। ऐसे भाजपा नेताओं की चिंता को कुछ हद तक वाजिब कहा भी जा सकता है। दूर की सोचना और दूर की कौड़ी फेंकना मानवीय स्वभाव है। इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। वैसे भाजपा नेताओं की यह सोच आत्मरक्षार्थ ही नहीं है। योगी आदित्यनाथ के प्रति अंदरूनी दुराव भी इसकी वजह हो सकती है। तरक्की से विरोधी ही परेशान नहीं होते, अपने भी होते हैं। इसलिए यह कहना ज्यादा मुनासिब होगा कि योगी आदित्यनाथ के नोएडा जाने के बाद उनका क्या होगा, इस पर सर्वाधिक नजर उनके विरोधियों की ही रहेगी।

 

 

 

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