कृष्णमोहन झा
आखिरकार आशाराम को अपनी एक नाबालिक भक्त के साथ दुष्कर्म के आरोप में अदालत से कोई राहत नहीं मिली। जिन आशाराम बापू के देश विदेश में लाखों भक्त होने का दावा किया जाता है, उन्हें जोधपुर की एक अदालत में उम्र कैद की सजा सुनाई है। इसके साथ ही उनके अधिनस्थों को 20-20 वर्ष की सजा से दण्डित किया गया है। आशाराम के भक्त और स्वयं आशाराम खुद भले ही इस फैसले पर सवाल खड़े कर रहे हों, परन्तु आशाराम और उसके दो अधिनस्थों को दी गई कठोर सजा का आम जनता द्वारा स्वागत किया जा रहा है। अदालत ने इन तीनों का जघन्य अपराध का दोषी मानते हुये उन्हें जो सजा सुनाई है, वह सजा देश के उन पाखण्डी आध्यात्मिक संतों के अंधविश्वासी भक्तों को सचैत करने का काम करेगी, जो अपने कथित आध्यात्मिक दैवीय चमत्कारों से अपने भोले-भाले अनुयायियों को मोहजाल में फंसाकर उनका सर्वस्व लूट लेने में जरा भी संकोच नहीं करते हैं। ऐसे कथित आध्यात्मिक संत अपने भक्तों की अटूट आस्था से तो खिलवाड़ करते ही है, साथ में उन्हें नारकीय स्थिति में पहुंचाने में भी तरस नहीं खाते। विडम्बना यह है कि जब उन्हें अपने ‘आराध्य’ की असलियत का पता चलता है तब कि बहुत देर हो चुकी होती है। उनके कुछ अभागे भक्त या तो अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं या फिर अपनी अपार धन सम्पदा तक गवां बैठते है। इन कथाकथित आध्यात्मिक संतों के आश्रम के अन्दर गरीब तबकों से आनेवाले भक्तों को नारकीय जीवन जीने को मजबूर किया जाता है। इस नारकीय जिन्दगी की भनक तक चार दीवारी के बाहर लगने नहीं दी जाती है।
इन बाबाओं के मामले में भगवान के घर देर है,अन्धेर नहीं वाली कहावत जरूर साकार हो जाती है। इन जैसे पाखण्डी बाबाओं का पाखण्ड एक न दिन जनता के सामने आ ही जाता है। आशाराम जैसे पाखण्डी आध्यात्मिक संतों को इस कहावत की सत्यता पर पहले इसलिए भरोसा नहीं होता है क्योंकि वह स्वयं को भक्तों के समक्ष ईश्वर के अवतार के रूप में प्रस्तुत करने में सफल हो जाते है, परन्तु जब राम रहीम और आशाराम जैसे कथित धर्म गुरूओं की कूदृष्टि का शिकार बनी हुई अबलाएं, सबला बनकर उनका पाखण्ड समाज के सामने लाने का साहस दिखाती है,तब उन श्रद्धालुओं को स्तब्ध रह जाना पड़ता है, जो अपने इन बाबाओं को ईश्वर का अवतार मानकर उनकी पूजा करते रहते हैं। भोले भाले और अन्धविश्वासी भक्तों को अपने मायाजाल में फसाकर उनकी भावनाओं से खिलवाड़ करना मानों इन पाखण्डी बाबाओं की फितरत बन गया है। दुख की बात तो यह है कि इस सिलसिले के थमने के आसार ही दिखाई नहीं दे रहें हैं। थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद देश में किसी ऐसे पाखण्डी संतों की कलंक कथा उजागर हो ही जाती है, जो लोगों की आस्था एवं विश्वास को अन्दर तक हिलाकर रख देती है। इनकी करतूतों के कारण उन सन्तों को भी संदिग्ध दृष्टि से देखा जाने लगता हैं, जो अपने त्याग, तपस्या और अनुकरणीय आचरण के बल पर संत परम्परा के ध्वजवाहक बने हुए है।।
आशाराम को जब अपने ही आश्रम की एक नाबालिक भक्त के दुष्कर्म सहित अन्य धाराओं में आजीवन कारावास और जुर्माने की सजा सुनाई गई तो उसने इस आधार पर अदालत से कम सजा देने की बात कही कि वह बुजुर्ग है. उसने अच्छे काम किए है।समाज को अच्छे सन्देश दिए है। आदि आदि। आश्चर्य की बात है कि समाज को जो अच्छे सन्देश देने का दावा आशाराम ने किया है, उनपर स्वयं अमल करने की उसे आवश्यकता कभी भी महसूस नहीं हुई। दरअसल उसने तो स्वयं को भगवान के समकक्ष मान लिया था।इसलिए उसे यह अहंकार हो गया था कि उस पर कभी किसी गलत काम के लिए उंगली नहीं उठाई जा सकती है। आशाराम ने अपने वृद्धावस्था की दुहाई देकर रहम की गुहार लगाई थी, परंतु उसे अपनी बेटी से भी कम उम्र की नाबालिक पर दृष्टि डालने को अदालत ने जघन्य सामाजिक व क़ानूनी अपराध माना । आशाराम को कभी अपने किए का पछतावा नहीं हुआ। उसने कभी अपना गुनाह स्वीकार नहीं किया। वह अभी भी स्वयं को निर्दोष बता रहा है, जबकि उसपर लगाए गए सारे आरोप सही साबित हो चुके है। खेद की बात है कि आशाराम के आश्रमों से सम्बन्ध लोग भी निचली अदालत के फैसले पर इस आधार पर सवाल उठा रहे है कि अभी ऊपरी अदालत ने सजा की पुष्टि नहीं की है। आश्रम के प्रबंधकों एवं प्रवक्ताओं को ध्यान रखना चाहिए कि ऊपर की अदालतों के फैसले आने तक आशाराम एक सजायाप्ता अपराधी से ज्यादा कुछ नहीं है ।
पिछले दिनों डेरा सच्चा सौदा के मुखिया राम रहीम को भी इसी तरह के मामले में दस वर्ष की सजा हो चुकी है।अब आशाराम को अदालत ने सजा सुनाई है। राम रहीम और आशाराम के बारे में यह जगजाहिर था कि उनकी राजनीतिक पहुच भी बहुत गहरी है। अनेक राजनीतिक दलों के नेता व बड़े बड़े सरकारी अधिकारी उनके आश्रम में जाकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते रहे है। चूंकि इनके भक्तों की संख्या लाखों में थी, इसलिए इन दलों के नेताओ ने चुनावी लाभ लेने के लिए उन्हें उपकृत करने में कोई संकोच नहीं किया। सबसे बड़ा आश्चर्य तो तब होता है,जब ऐसे पाखण्डी बाबाओ को किसी आपराधिक मामले में सजा हो जाती है तब भी उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने वाले ये बड़े लोग उनकी निंदा करने से भी परहेज करते है।
अतः अब समय आ गया है कि राजनीतिक दलों के नेता ऐसे पाखंडी संतों का महिमा मंडन करने से न केवल परहेज करे, बल्कि उन श्रद्धालुओं और धर्मप्रेमी जनता को सचेत करने का साहस दिखाए ,जो लच्छेदार शैली में प्रवचन कर श्रद्धालुओं को अपने मोहजाल में फंसाकर अपने अनैतिक आचरण का शिकार बनाते है। निश्चित रूप से ऐसे पाखंडी बाबाओं की पहचान कर उन्हें अलग -थलग करने का अब समय आ गया है ,जो न केवल अपने आर्थिक साम्राज्य का विस्तार करते है ,बल्कि अपनी महिला भक्तों तथा छोटी बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाने को अपना अधिकार समझते है.
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और आईएफडब्ल्यूजे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)