त्रिपुरा का चुनाव ‘लाल बनाम भगवा’ में तब्दील हो चुका है। दोनो ही पार्टियों के लिए यह कितना महत्वपूर्ण है, इसे इन पार्टी के रणनीतिकारों के बयानों से समझा जा सकता है। भाजपा के राज्य पर्यवेक्षक सुनील देवधर के अनुसार बाकी देश में भले मोदीजी ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया हो, त्रिपुरा में भाजपा ‘कम्युनिस्ट मुक्त भारत’ के नारे पर काम कर रही है।
अजय बोकिल
क्या पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में इस बार लाल सूरज अस्त होगा या और तेजस्विता से चमकेगा? क्या भगवा की आंधी हंसिए-हथौड़े की पैनी धार पर भारी पड़ेगी ? ये वो सवाल हैं, जो इस बार त्रिपुरा विधानसभा चुनाव नतीजों को लेकर पूछे जा रहे हैं। क्योंकि एक तरफ ईमानदार छवि वाले कामरेड मुख्यमंत्री मानिक सरकार हैं तो दूसरी तरफ एंटी इनकम्बैंसी की लहर पर सवार होकर सत्ता साकेत तक पहुंचने के सपने पाले हुए भाजपा है। खुदा-न-खास्ता वह चुनाव जीत गई तो पहली बार किसी कम्युनिस्ट किले पर उसकी सीधी फतह होगी। अगर हारी तो यही माना जाएगा कि जनवाद के आगे जुमलावाद पानी भरने लगता है। हालांकि इस छोटे और प्राकृतिक सुंदरता से भरे राज्य में भाजपा के पास खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। पिछले विस चुनाव में उसकी वोट हिस्सेदारी महज 1.5 फीसदी थी। लेकिन देश की बदली राजनीतिक हवा ने त्रिपुरा में भी बदलाव की संभावनाअोंको हवा दे दी है। उधर सत्तारूढ़ माकपा को अपनी जनहितैषी नीतियों और कामों पर भरोसा है। लेकिन पहली बार उसे अपना किला बचाने के लिए तगड़ा पसीना बहाना पड़ रहा है।
बहरहाल त्रिपुरा का चुनाव ‘लाल बनाम भगवा’ में तब्दील हो चुका है। दोनो ही पार्टियों के लिए यह कितना महत्वपूर्ण है, इसे इन पार्टी के रणनीतिकारों के बयानों से समझा जा सकता है। भाजपा के राज्य पर्यवेक्षक सुनील देवधर के अनुसार बाकी देश में भले मोदीजी ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया हो, त्रिपुरा में भाजपा ‘कम्युनिस्ट मुक्त भारत’ के नारे पर काम कर रही है। देवधर लोकसभा चुनाव में मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी के प्रभारी रह चुके हैं। दूसरी तरफ माकपा के राज्य सचिव बिजन धार का कहना है कि इस बार का विधानसभा चुनाव वास्तव में ‘कम्युनिज्म बनाम कम्युनलिज्म’ मुकाबला है। हालांकि वे राज्य में भाजपा को बड़ी चुनौती नहीं मानते। कारण माकपा यहां बीते 25 सालों से सत्ता में है। इन सालों में उसके कैडर की पैठ गांव-गांव तक है और प्रतिपक्ष के तौर पर उसने कांग्रेस और तृणमूल को भी कमजोर कर दिया है। इस बार भी पार्टी का नारा है ‘अष्टम बाम फ्रंट सरकार गोरहोबोई’ ( आठवीं बार भी वाम मोर्चे की सरकार बनेगी)। बिजन धार का कहना है कि त्रिपुरा में माकपा का सूरज अस्त होने का सपना देखने वालों को पहले गुजरात में भाजपा के सूर्यास्त के आरंभ को देखना चाहिए।
लेकिन माकपा का यह आत्मविश्वास जितना सतह पर दिखता है, उतना हकीकत में है नहीं। इसके कई कारण हैं। बेशक राज्य के मुख्य मंत्री मानिक सरकार निष्कलंक छवि के हैं, लेकिन लोग शायद यह ईमानदार चेहरा देख देख कर ऊब गए हैं। दूसरे, लंबे समय से सत्ता में रही पार्टी के प्रति स्वाभाविक असंतोष अगर धार्मिक रैपर में लहर बन गया तो सरकार की उपलब्धियां हाशिए पर चली जाएंगी। अलबत्ता वोट शेयर की बात की जाए तो माकपा बेहद मजबूत स्थिति में है। पिछले विधानसभा चुनाव में उसे 48.1 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 49 सीटों पर भारी जीत मिली थी। जबकि मुख्य विपक्षी पार्टी 36.5 फीसदी वोट लेकर मात्र 10 सीटें ही जीत पाई थी। लेकिन देश की तरह त्रिपुरा में भी 2014 के बाद से राजनीतिक सीन काफी बदल गया है। अच्छा काम करने के बावजूद राज्य में माकपा की छवि ‘बंगालियों की पार्टी’ की बन गई है। उसके खिलाफ गैर बंगाली और राज्य की जनजातियां उठ खड़ी हुई हैं। इनका मानना है कि बंगालियों ने उनका हक छीना है। इसलिए वे अपने लिए स्वतंत्र राज्य ‘तिप्राह’ की मांग कर रही हैं। बीजेपी ने इस बार इन्हीं जनजातियों की पीठ पर हाथ रखा है। हालांकि यह खेल भस्मासुर भी साबित हो सकता है, लेकिन सत्ता के खेल में सब जायज है। त्रिपुरा में जनजाीय वोटरों की संख्या करीब 30 फीसदी और सीटें 20 हैं। इसके अलावा भाजपा प्रदेश में विपक्ष का स्पेस भरने की पूरी कोशिश कर रही है। इसके लिए उसने व्यक्तियों की छवि के बजाए उनकी उपयोगिता देखी है। इन्हीं में से एक चेहरा हैं, सुदीप राॅय बर्मन। बर्मन पिछले चुनाव में मानिक सरकार से हारे थे। तब वो कांग्रेस में थे फिर तृणमूल में गए और अब भाजपा में हैं। बर्मन पर विधानसभा में स्पीकर की छड़ी लेकर भागने जैसे और भी गंभीर आरोप हैं। बर्मन में राज्य के पूर्व मुख्यीमंत्री समीर रंजन बर्मन के बेटे हैं और प्रदेश की राजनीति पर उनकी गहरी पकड़ है। वे भाजपा के लिए दूसरे हेमंत बिस्वा सरमा साबित हो सकते हैं।
खास बात यह है कि भाजपा त्रिपुरा में हिंदुत्व के बजाए विकास के मुददे पर चुनाव लड़ रही है। यही कारण है कि उसने यहां राम को भी छोड़ दिया है। जय श्रीराम की जगह केवल ‘वंदे मातरम’ के नारे लग रहे हैं। अपने संकल्प पत्र में भाजपा ने राज्य में एम्स खोलने और किसानों की हालत सुधारने का वादा िकया है। भाजपा की कोशिश है कि लेफ्टर सरकार के प्रति नाराजी को भगवा लहर में समेटा जाए। इसके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित कई बड़े नेता राज्य में प्रचार कर चुके हैं।
इधर माकपा राज्य में अपनी उपलब्धियों जैसे देश में सर्वाधिक साक्षरता, बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं और धान उत्पादन में वृद्धि आदि िगनाकर मतदाताअों से फिर से समर्थन मांग रही है। वह भाजपा पर फूट डालो नीति अपनाने का आरोप लगा रही है। साथ ही उसने भाजपा को कमजोर करने के लिए जनजातीय संगठन आईपीएफटी में फूट डाल दी है। पार्टी ने इस चुनाव को आरपार की लड़ाई मानकर अपने कैडर को एकजुट किया है। राज्य में कांग्रेस की भी थोड़ी पकड़ है। यदि कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़ी तो वह भाजपा की संभावनाअों को धुंधला करेगी।
एक बात और। राजनीतिक आधार पर त्रिपुरा में वो विभाजन बहुत पहले हो चुका है, जो भाजपा आज शेष भारत में करने का प्रयास कर रही है। यानी कि राज्य में या तो आप माकपा समर्थक हैं या फिर माकपा विरोधी हैं। बीजेपी इस माकपा विरोधी वोट, जिसमें बंगालियों के अलावा आदिवासी वोट भी हैं, गोलबंद करने की जी तोड़ कोशिश कर रही है। राज्य में पार्टी का नारा है- ‘चालो पलटाई’ अर्थात चलो परिवर्तन करें। पार्टी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्मे पर भरोसा है। यहां अगर भगवा लहर बनी भी तो मोदी के आवरण में ही होगी। कुल िमलाकर मुकाबला दिलचस्प और कांटे का है। नया सूरज लाल होगा या भगवा यह 18 फरवरी को वोटर ही तय करेंगे।
(साभार: सुबह सवेरे)