कृष्णमोहन झा
इस साल के अंत में होने वाले मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनावों के लिए सत्तारूढ़ भाजपा एवं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने चुनावी तैयारियों की शुरुआत संगठन के चेहरे बदलकर की है। पहले भाजपा ने प्रदेशाध्यक्ष बदलने की अपरिहार्यता महसूस की और उसके बाद एक पखवाड़े के अंदर ही कांग्रेस ने संगठन का चेहरा बदल दिया। भाजपा के नए प्रदेशाध्यक्ष राकेश सिंह के मुकाबले कमलनाथ का राजनितिक कद निश्चित रूप से बड़ा प्रतीत होता है लेकिन राकेश सिंह के पास मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की लोकप्रियता का सम्बल भी है।इस नजरिए से राकेश सिंह को अपनी राह आसान प्रतीत हो रही है।प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद की बागडोर थामने के बाद उन्होंने अपने पहले सम्बोधन में कहा भी था की वे इस नई जिम्मेदारी को चुनौती नहीं एक अवसर के रूप में देखते है। कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ को इस अहसास का भलीभाँति अहसास हो होगा की लगभग डेढ़ दशक से सत्ता से निर्वासन का दंश भोग रही कांग्रेस की सत्ता में वापसी का सुनहरा स्वप्न साकार करने के लिए उनके पास मात्र 6 माह का समय है। इन 6 माह के संक्षित्त अवधि में उन्हें न केवल संगठन को पटरी पर लाना है बल्कि उसे सत्तारूढ़ न को कड़ी चुनौती देने के लिए रणनीतिक रूप से तैयार भी करना है।
कमलनाथ को अपने पूर्व प्रदेशध्यक्ष अरुण यादव से विरासत में जो संगठन मिला है वह सत्तारूढ़ भाजपा को आगामी विधानसभा चुनावों में कड़ी चुनौती देने में सक्षम होता तो प[इस तरह नेतृत्व परिवर्तन की नौबत ही नहीं आती। यद्यपि अरुण यादव के हाथों में संगठन की बागडोर रहते हुए कांग्रेस ने झाबुआ लोकसभा व अटेर चित्रकूट मुंगावली और कोलारस विधासभा क्षेत्रों में प्रतिष्ठापूर्ण संघर्ष में सफलता भी अर्जित की है परन्तु उन उपचुनावों की जीत पार्टी हाईकमान को यह सन्देश नहीं दे सकी की अरुण यादव के नेतृत्व में ही कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनावो में सत्ता तकसत्ता के दरवाजे तक पहुचने का सुनहरा स्वप्न संजो सकती है। यही चिंता भाजपा को भी सता रही थी इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी ने भी प्रदेशाध्यक्ष की बागडोर नंदकुमार सिंह चौहान से लेकर राकेश सिंह के हाथों में सौप दी। दोनों प्रमुख प्रतिद्व्न्दी दलों के पास अब 6 माह का एक सा समय है जिसमे उन्हें राज्य विधानसभा चुनावों के लिए अपनी अपनी पार्टी की जीत के लिए रणनीति तैयार कर हाईकमान के भरोसे पर खरा उतरना है। लेकिन कांग्रेस इस हकीकत से इंकार नहीं कर सकती है कि नए प्रदेशाध्यक्ष की तमाम खूबियों के बाद भी आगामी चुनाव में सत्ता में वापसी का सपना साकार होने की उम्मीद कर लेना अभी जल्दबाजी होगा।
कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी ने अपने वर्तमान पहले कार्यकाल में पहली बार किसी प्रदेश के संगठन में इतने बड़े पैमाने पर फेरबदल किया है। मध्यप्रदेश में पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष पद की बागडोर नौ बार के सांसद एवं चार बार के केंद्रीय मंत्री रह चुके कमलनाथ को सौपकर सत्तारूढ़ भाजपा को यह सन्देश तो दे ही दिया है कि डेढ़ दशक तक सत्ता में रहने के बाद तक सत्ता में रहने के बावजूद आगामी चुनावों में अभी से अपनी शानदार जीत सुनिश्चित मान लेने का आत्मविश्वास अतिआत्मविश्वास भी साबित हो सकता है। कांग्रेस हाईकमान द्वारा कमलनाथ को प्रदेशाध्यक्ष की बागडोर सौपने के फैसले का पार्टी के सभी तबकों में आमतौर पर स्वागत ही किया जा रहा है। अब पार्टी कार्यकर्ताओं को उम्मीद की एक किरण दिखाई देने लगी है। संगठन की बागडोर कमलनाथ के हाथों में आने से राजनीतिक विश्लेषक भी अब यह मान रहे है कि इस चुनाव में दोनों दलों के बीच अब बराबरी के मुकाबले की स्तिथि निर्मित होने की संभावनाएं बढ़ गई है। कमलनाथ कांग्रेस के एक ऐसे हाईप्रोफाइल नेता माने जाते है जिनकी लोकप्रिय राजनीति निर्विवाद मानी जा सकती है। वे संगठन के सभी गुटों को एक साथ लेकर चलने में विश्वास रखते है। कमलनाथ निःसन्देश महाकौशल में पार्टी नेता के रूप में दूसरे क्षेत्र से कही अधिक लोकप्रिय है। इसका लाभ पार्टी को इस क्षेत्र की पचास से अधिक विधानसभा सीटों पर मिलने की उम्मीद की जा सकती है।
राज्य में पार्टी के जो चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए है उनका कार्यक्षेत्र प्रदेश के अंदर ही सीमित रहा है इसलिए कमलनाथ लोकप्रियता के पैमाने पर उन सभी से आगे है। प्रदेशाध्यक्ष पद पर कमलनाथ की ताजपोशी के बाद चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाने का असल मकसद विभिन्न गुटों में बंटी कांग्रेस के बीच समन्वय स्थापित करना है। बाला बच्चन रामनिवास रावत सुरेंद्र चौधरी व जीतू पटवारी के रूप में चार कार्यकारी अध्यक्ष प्रदेश कांग्रेस के इतिहास में पहली बार बनाए गए है। इन नियुक्तियों के जरिये क्षेत्रीय संतुलन साधने में पार्टी को कितनी सफलता मिलेगी यह तो समय ही बताएगा परन्तु इससे यह आभास तो होता ही है कि पार्टी को गुटबाजी से निजाद दिला पाना नए प्रदेशाध्यक्ष के लिए बड़ी चुनौती है। चारो कार्यकारी अध्यक्षों के बीच समन्वय कायम करने की जिम्मेदारी भी अब कमलनाथ के कंधों पर ही होगी।
गौरतलब है कि नए प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ ने प्रदेश कांग्रेस की नई कार्यकारिणी गठित करने का फैसला किया है ,जिसमे हर गुट को प्रतिनिधित्व प्रदान करना एक चुनौती होगा। चारो कार्यकारी अध्यक्षों के अपने प्रभाव क्षेत्र है। इसलिए उनके जरिये पार्टी ने पुरे प्रदेश में चुनावी लाभ की मंशा से यह फैसला किया है। बाला बच्चन पर निमाड़ की 16 सीटों पर रामनिवास रावत पर ग्वालियर चंबल की 34 सीटों पर सुरेंद्र चौधरी पर बुंदेलखंड की 35 सीटों पर एवं जीतू पटवारी पर मालवा की 50 सीटों पर उम्मीदवारों की ताकत बनेंगे। लेकिन पुरे प्रदेश में कांग्रेस का असली चेहरा कमलनाथ ही होंगे। पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश कांग्रेस के चुनावी अभियान समिति की बागडोर सौपी गई है। हालाँकि सिंधिया भी पिछले काफी समय से प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी पर अपनी सशक्त दावेदारी जता रहे थे लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह द्वारा कमलनाथ के नाम पर सहमति जताए जाने के बाद सिंधिया को वही जिम्मेदारी दी गई जो गत विधानसभा चुनावों में उनके पास थी। प्रदेश कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के मुखियां के रूप में उम्मीदवारों के चयन में सिंधिया की राय अहम साबित होगी, परन्तु गुटों को संतुष्ट कर पाना उनके लिए भी आसान नहीं होगा। सिंधिया ने गत चुनावों में जिस तरह से चुनाव अभियान समिति के मुखिया के रूप में जो अहमियत हासिल की थी उसे देखते हुए वे प्रदेशाध्यक्ष के पद पर अपनी ताजपोशी के प्रति पूरी तरह आशान्वित थे लेकिन कमलनाथ के नाम पर दिग्विजय सिंह की सहमति के कारण उन्हें चुनाव अभियान समिति के मुखिया के पद पर ही संतुष्ट होना पड़ा।
इधर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह पहले ही कह चुके है कि वे प्रदेश में कोई भी पद लेने के इच्छुक नहीं है, लेकिन पार्टी के सारे फैसलों में उनकी राय को तवज्जों मिलना तय है। पूर्व मुख्यमंत्री ने नर्मदा परिक्रमा समाप्त करने के बाद यह कहने में संकोच नहीं किया था कि वे एक राजनेता है इसलिए आगे भी राजनीति ही करेंगे। उनके इस बयान से साफ जाहिर होता है कि वे पार्टी में फिर से महत्वपूर्ण भूमिका पाने का इन्तजार कर रहे है। दिग्विजय सिंह को फिलहाल तो आगामी विधानसभा चुनाव में प्रमुख रणनीतिकार ,मार्गदर्शक और मुख्य परामर्शदाता की भूमिका का निर्वहन करना है और इसके लिए वे पूरी तरह तैयार भी है। राज्य में आगामी विधानसभा चुनावों में सत्ता से भाजपा की बेदखली की कोई संभावना अभी से व्यक्त कर देना दूर की कौड़ी लाने से अधिक कुछ नहीं होगा। लेकिन यह सवाल तो स्वभाविक है कि कांग्रेस प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए किसे अपना चेहरा घोषित करेगी। कमलनाथ की दावेदारी इस मामले में ज्यादा प्रतीत होती है। पार्टी को एकता के सूत्र में बांधना ,कार्यकर्ताओं का खोया मनोबल लौटाना, सारे गुटों में सामंजस्य बिठाना उनकी पहली जिम्मेदारी होगी। यह सही है कि गत चुनाव में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के करिश्मे ने पहले ही जीत सुनिश्चित कर दी थी वह इस बार निर्विवाद नहीं है। पिछले साढ़े चार सालों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लोकप्रियता के शिखर पर बने रहने के लिए काफी मशक्क्त करनी पड़ी है। इस बार एंटी इनकम्बेंसी का फेकटर चुनावों में शानदार जीत के दावों पर सवालिया निशान लगा रहा है। इसे देखते हुए कमलनाथ की निर्विवाद छवि कांग्रेस की संभावनाओं को बेहतर बना सकती है बशर्ते कि वे पार्टी को एकता के सूत्र में बांधने में सफलता हासिल कर ले।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और आईएफडब्ल्यूजे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)