प्रकृति से साक्षात्कार कराता है छठ महापर्व

खेतों में लहलहाती धान की फसल, उसकी सोने सरीखी पीली-पीली बालियाँ देखकर किसान मन प्रकृति के प्रति सहज ही कृतज्ञता से झुक जाता है और वह तुभ्यम वस्तु गोविंद, तुभ्यमेव समर्पये के भाव के साथ प्रकृति के प्रतीक सूर्य देव के आगे करबद्ध होकर उनकी आराधना करने लगता है।

गुड़िया सिंह

आदि देव भगवान भास्कर की आराधाना का यह महापर्व असल में प्रकृति की आराधना का भी त्योहार है। महापर्व छठ धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ आमजनों को पर्यावरण संरक्षण, जैव संरक्षण, एवं प्रकृति से जुड़े रहने की प्रेरणा देता है। प्रकाश, ताप एवं सृष्टि के जनक सूर्य की उपासना एवं पूजा अर्चना का यह त्योहार सीधे वैज्ञानिकता से जुड़ा है। यह ऐसा पूजा विधान है जिसे वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाभकारी माना गया है। खासकर वर्तमान समय में पर्यावरण पर मंडराते खतरे एवं कृत्रिमता के बढ़ते प्रभाव से उत्पन्न विकृतियों को देखते हुए इस त्योहार का महत्व और बढ़ गया है।
छठ पूजा बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश की कृषक सभ्यता का महापर्व है। खेतों में लहलहाती धान की फसल, उसकी सोने सरीखी पीली-पीली बालियाँ देखकर किसान मन प्रकृति के प्रति सहज ही कृतज्ञता से झुक जाता है और वह तुभ्यम वस्तु गोविंद, तुभ्यमेव समर्पये के भाव के साथ प्रकृति के प्रतीक सूर्य देव के आगे करबद्ध होकर उनकी आराधना करने लगता है। छठ पूजा के आयोजन से जुड़े लोग बताते हैं कि यह एक ऐसा त्योहार है जिसका बाजार से कोई खास वास्ता नहीं है। इसका अपना ही बाजार होता है जो खास इसी अवसर पर दिखाई देता है। उनका कहना है कि सूर्य देव को अर्घ्य देने के लिए जो भी वस्तुएँ लाई जाती हैं, वे सभी एक किसान के घर में सहज ही उपलब्ध होती हैं। केला, मूली, नींबू, नारियल, अदरक, ईख, गेहूँ के आटे से बना ठेकुआ, सबकुछ किसान खुद ही उपजाता था। जिस बाँस की टोकरी में अर्घ्य का यह सारा सामान रखा जाता है, वह भी खेती-किसानी करने वाले लोग खुद ही बना लेते थे।
यह दीगर बात है कि शहरों में आ चुके पुरबिया लोगों को अब यह सारा सामान बाजार से खरीदना पड़ता है। लेकिन छठ पूजा का बाजार भी बिल्कुल अलग है। आज भी सारा सामान पटना और बनारस से आता है। जाहिर तौर पर छठ पूजा के रंग भी सबसे ज्यादा यही दिखाई देते हैं।
इसका अपना सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। यह मूलतः लोकपर्व है जिसका दायरा पहले बिहार और उत्तरप्रदेश के गंगा के तटीय एवं मैदानी इलाकों तक सीमित था, लेकिन आज इसका दायरा देश व विदेश के अन्य हिस्सों तक है। यह लोक आस्था का महान पर्व एवं अत्यंत कठिन व्रत है। इसमें चार दिनों तक बिना जल और अन्न के रहना पड़ता है। यह पहला पर्व है जिसमें प्रकृति के महान प्रतिनिधि सूर्य की साक्षात आराधना होती है जो हमें जीवन देता है। इस पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और अध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी(माटी) के बर्त्तनों, गन्ने का रस, गुड़(मीठा), चावल(चाउर) और गेहूँ से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
शास्त्रों और पुराणों से भिन्न यह आमजन द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गयी उपासना पद्धति है। इसके केंद्र में वेद, पुराणों जैसे धर्मग्रन्थ न होकर किसान, मजदूर और ग्रामीण जीवन है। इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है न पुरोहित, गुरु या पंडित के अभ्यर्थना की। जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के सहयोग की जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक प्रस्तुत रहता है। इस उत्सव के लिए जनता स्वयं अपने सामूहिक अभियान संगठित करती है। नगरों की सफाई, व्रतियों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबन्धन, तालाब या नदी किनारे अर्घ्य दान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए समाज सरकार के सहायता की राह नहीं देखता। इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है। यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा-भाव और भक्ति-भाव से किये गये सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है।
छठ पूजा के अनुष्ठान के दौरान गाया जाने वाला पारंपरिक गीत केरवा जे फरेला घवध से ओहपर सुग्गा मंड़राय, सुगवा जे मरवो धनुख से सुग्गा जइहें मुरझाए..,रोवेली वियोग से, आदित्य होख ना सहाय.., जैसे गीत इस बात को दर्शातें हैं कि लोग पशु-पक्षियों के संरक्षण की याचना कर उनके अस्तित्व को कायम रखना चाहते हैं। इसी तरह इस अनुष्ठान के दौरान कोशी भरने के लिए प्रयुक्त होने वाले मिट्टी की बर्तन पर हाथी की आकृति बनाने की परम्परा भी जैव संरक्षण की प्रेरणा प्रदान करता है।

 

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