स्थायी नहीं होते हैं मनोभाव

क्लासिक करेक्टर – कुमार गिरी
उपन्यास: चित्रलेखा, लेखक: भवगतीचरण वर्मा

प्रेम किसीके लिए शाश्वत और चिरंतन है तो किसीके लिए यह आग का दरिया है। कोई इसे खूबसूरत अहसास का नाम देता है, तो किसीके लिए यह जन्नत का सफर है। चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है-पाप क्या है? उसका निवास कहां है? कहानी की शुरूआत होती है इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्य, श्वेतांक और विशालदेव। जो क्रमशः सामंत बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि की शरण में जाते हैं। कहानी आकर्षक, मनोरम और अति सुंदरी स्त्री चित्रलेखा के ईर्दगिर्द घूमती है। चित्रलेखा जो एक विधवा नर्तकी है। बीजगुप्त की प्रेमिका तो है, लेकिन कुमारगिरि भी उसके मायाजाल से नहीं बच पाए हैं। एक तरफ भोगविलास प्रिय पुरूष बीजगुप्त दूसरी तरफ मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक समाधी पुरूष कुमारगिरि। कहानी में चित्रलेखा, बीजगुप्त, कुमारगिरि, श्वेतांक, विशालदेव, मृत्युंजय और यशोधारा के प्रमुख चरित्र के अलावा छोट-मोटे अन्य किरदार भी मौजूद हैं, लेकिन जिनकी मौजूदगी न के बराबर है। भगवती चरण वर्मा का यह उपन्यास चित्रलेखा 1934 में लिखा गया है। उपन्यास ऐतिहासिक नहीं, काल्पनिक है। भले कहानी का काल चंद्रगुप्त मौर्य काल चुना गया है।
असल में, उपन्यास प्रेम कहानी या भूत की कहानी नहीं पाप और पुण्य की खोज है। इस पाप और पुण्य की खोज में हर उपन्यास का हर पात्र लगा हुआ है। चाहे चित्रलेखा हो, कुमार गिरी हो, बीजगुप्त हो, श्वेतांक हो या अन्य कोई। असल में उपन्यास को पढ़ने या मंचन या फिल्म देखने के बाद उपन्यास का मूल मंत्र आपको समझ आएगा। हाल ही में रंगकर्मी सुनील चैधरी के निर्देशन में मैंने जब इसका मंचन देखा, तो इसको भलीभांति समझ पाईं। आखिर बेकार है पाप और पुण्य की तलाश। असल में, पाप और पुण्य परिस्थितियों के आधीन हैं। किसी समय उक्त चीज आपके लिए पाप है, तो दूसरे व्यक्ति के लिए उक्त चीज पुण्य। पाप और पुण्य परिस्थ्यिों का लबादा ओढ़ती हैं। उपन्यास चित्रलेखा का ऐसा ही पात्र है कुमार गिरी। यह संन्यासी का लबदा ओढ़कर संसार के विरक्त हो जाता है। सालों साल परमात्मा की भक्ति दूरदराज जंगल में करता है, जहां उसे मनुष्य की भिनक तक नहीं हो। तपस्या के उसके कठोर क्रम में वह मोह, माया, प्रेम, काम पर विजय प्र्राप्त कर लेता है। जिसका घमंड उसे जरूर होता है। कुछ सालों के बाद जब चित्रलेखा उससे दीक्षा लेना चाहती है, तो वह उस पर आसक्त हो जाता है। भले ही बाहरी तौर पर ढिंढोरा पीटे कि प्रेम जैसी कोई चीज उसे हिला नहीं सकती। जैसे-जैसे चित्रलेखा उसके पास आती है, वैसे-वैसे कुमार गिरी उसे पाना चाहता है, उसे छूना चाहता है। साधु-संत के आवरण में प्रेम का शारीरिक रूप यह कुमार गिरी का नहीं, बल्कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कई साधु-संत का असली चेहरा है।
भगवती चरण वर्मा के इस उपन्यास में यह पात्र कितना आज भी प्रासंगिक हैै। कुछ नहीं बदला है। साधु-संत प्रेम में किसी स्त्री के साथ शारीरिक प्रेम का सुख लें, तो बात दब जाती हैै। इसे पाप नहीं, अपितु पुण्य माना जाता है कि फ्लां साधु ने उक्त स्त्री को शारीरिक प्रेम से अवगत कराया। फ्लां साधू कितने महान हैं। दूसरों की भलाई के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं। ऐसे में पाप, पुण्य बन जाता है। हां, फ्लां साधू की शिष्य उस पर आकर्षित होकर सीमा लांघ जाए और जगजाहिर हो जाए। ऐसे में लोग ही पाप व पुण्य के कटघरे में दोनों को खड़ा कर देते हैं। वर्षों पहले ऐसा ही तो भगवती चरण वर्मा ने इस उपन्यास में बताया था। जो पूर्ण सच था। कुमार गिरी चित्रलेखा पर इतना आकर्षित हो जाता है कि अपने ओहदे और इंद्रियों पर काबू सब भूल जाता है। बस, उसकी भक्ति हो जाती चित्रलेखा को छूना, उससे शारीरिक प्रेम करना। यह प्रेम नहीं पाप है। यदि हम कुमार गिरी की नजर से देखें तो उसकी पाप-पुण्य की यह परिभाषा गलत नहीं है। उसने वर्षों बाद किसी से प्रेम करना चाहा तो क्या यह पाप है। दूसरा यदि उसने देखा कि चित्रलेखा भी उस पर आकर्षित हो रही है, तो उसे उसकी चाहत वाला सुख देना पुण्य नहीं तो और क्या है!

दीप्ति अंगरीश

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