कृष्णमोहन झा
कर्नाटक में 12 मई को विधानसभा के लिए चुनाव संपन्न हुए। 15 मई को चुनाव परिणाम की घोषणा हुई और 104 सीटें जीतकर भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई। पार्टी ने बीएस येदियुरप्पा को सर्वसम्पति से विधायक दल का नेता चुना और राज्यपाल वाजुवाला ने 17 मई को उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। येदियुरप्पा करीब 55 घंटे ही मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता सुख भोग पाए। उन्हें 19 मई को शाम 4 बजे विधानसभा में बहुमत साबित करना था,लेकिन संख्याबल न होने के कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी। 222 सदस्यीय कर्नाटक विधानसभा में भाजपा के पास उतने ही विधायक थे,जितने 15 मई को विजयी हुए थे। भाजपा को शायद यह उम्मीद थी कि विपक्षी कांग्रेस एवं जनता दल सेक्युलर के कुछ विधायकों को तोड़कर वह अपने पक्ष में लाने में कामयाब हो जाएगी और सदन में बहुमत साबित कर देगी। राज्यपाल के दिए समय अनुसार भाजपा को यह काम पूरा होते भी दिख रहा था,परंतु उच्चतम न्यायालय द्वारा राज्यपाल द्वारा दिये गए समय को घटाकर केवल 28 घंटे करने पर भाजपा की सांसें फूलने लगी। उसे अपने पैरों की जमीन खिसकने का अहसास तक होने लगा। फिर भी येदियुरप्पा और केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर जैसे मंजे हुए नेता यह दावा करते रहे कि सरकार सदन में आसानी से अपना बहुमत साबित कर देगी,परन्तु कांग्रेस एवं जेडीएस की की मजबूत किलेबंदी ने भाजपा के मंसूबों को पूरा नही होने दिया।
येदियुरप्पा एक दिन पहले तक लगातार यह दावा करते रहे कि सदन में बहुमत परीक्षण में सफल होने के बाद शाम को भाजपा पूरे प्रदेश में शानदार जश्न मनाएगी,लेकिन इसमें सफल न होते देख वे सदन में भावुक भाषण देकर सभी विधायकों को धन्यवाद देते हए सदन से राजभवन चले गए। इस दौरान उनके मन मे पश्चाताप के भाव साफ नजर आ रहे थे ,कि सरकार बनाने का दावा पेश कर वे बहुत बड़ी भूल कर बैठे। उन्होंने अब संकल्प लिया है कि कर्नाटक में अब जब भी चुनाव होंगे उनमे वे 150 सीटें जीतकर शान से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठेंगे।अब वह समय कब आएगा यह तो निश्चित तौर पर नही कहा जा सकता है। इस पूरे घटनाक्रम के बाद वे फिलहाल खुद को भी पार्टी में भी अकेला महसूस कर रहे होंगे। उनके शपथ ग्रहण समारोह में न तो भाजपा अध्यक्ष आए न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और न ही किसी भाजपाई मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री ने शिरकत की। पद त्याग के मुश्किल समय में भी कोई बड़ा नेता उनके साथ खड़ा दिखाई नही दिया। इससे यह प्रतीत होता है कि भाजपा ने अधुरेमन से सरकार बनाने का फैसला किया हो, इसलिए भाजपा अध्यक्ष ने भी कर्नाटक जाकर येदियुरप्पा के साथ खड़े होने के बजाय दिल्ली से ही निर्देश देना उचित समझा। सवाल यह उठता है कि प्रकाश जावड़ेकर और अनंत कुमार जैसे वरिष्ठ नेता किस आधार पर यह खुशफहमी पाल चुके थे कि भाजपा कांग्रेस एवं जेडीएस के किले में सेंध लगाने में सफल हो जाएगी।
कर्नाटक में कांग्रेस ने भाजपा को उसी चाल से मात दी है,जिस चाल से भाजपा ने इसे मणिपुर ,गोवा एव मेघालय में मात दी थी। कर्नाटक में कांग्रेस एवं जेडीएस के गठबंधन को राज्यपाल ने पंद्रह दिनों में बहुमत साबित करने का समय दिया है। फिलहाल तो संख्याबल के आधार पर यह मुश्किल भी नही लग रहा है। भाजपा को तो अब इन दोनों दलों की दोस्ती में गांठ पड़ने का इंतजार करना चाहिए। जेडीएस से गठबंधन का इतिहास इस बात की आशंका को भी बलवती बना सकता है कि यह नई सरकार अबोध गति से पांच साल चल सके। यहां यह बात विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा कि यदि सुप्रीम कोर्ट का 28 घंटे का आदेश नही होता और यदि येदियुरप्पा सरकार को 15 दिनों का ही समय मिला होता तो शायद उनकी की कुर्सी बचने की संभावनाएं बढ़ सकती थी ,परंतु न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद पूरा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया। भाजपा मायूस हो गई और कांग्रेस की बांहें खिल गई। इसे लोकतंत्र की जीत कहा जाए या राजनीतिक विडंबना कि 104 सीटें जीतकर बहुमत से मात्र आठ स्थान दूर बैठी भाजपा को मनमसोसकर विपक्ष में बैठना होगा,वही मात्र 38 सीटें जीतकर तीसरे स्थान पर रहने वाली जेडीएस के हाथों में गठबंधन के कारण मुख्यमंत्री पद की बागडौर आ गई। 78 सीटें जीत कर दूसरे स्थान पर रहने वाली कांग्रेस की कृपा से जेडीएस नेता एच डी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का सौभाग्य तो मिल गया है, किन्तु यह 1996 की तरह दोहराया नही जाएगा यह कहना मुश्किल है। गौरतलब है कि 1996 में अटलजी जी सरकार गिरने के बाद जेडीएस नेता एक डी देवेगौड़ा कम सीटें होने के बाद भी कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बन गए थे ,लेकिन उन्हें जल्द ही कांग्रेस के कोप का भागी बन कुर्सी छोड़ना पड़ा था। भाजपा तो यह मान चुकी है कि इस स्थिति को आने में ज्यादा समय नही लगेगा।
कांग्रेस एवं जेडीएस इस हकीकत से भी अच्छी तरह वाकिफ है कि अगले लोकसभा चुनाव तक गठबंधन बनाए रखने में उनका ही फायदा है। सत्ता में रहते हुए यदि वे संयुक्त रूप से चुनाव लड़ेंगे तो राज्य में बेहतर प्रदर्शन करने की स्थिति में होंगे। बिहार में कुछ इस तरह का प्रयोग राजद एवं जेडीयू मिलकर कर चुके है, और उसमें वह सफल भी हुए थे। भाजपा के विजयी रथ को उत्तर प्रदेश में भी गोरखपुर एवं फूलपुर लोकसभा के उपचुनाव में बसपा एवं सपा ने भी इसी तरह का गठबंधन कर रोक दिया था। यहां गौर करने वाली बात यह है कि उत्तरप्रदेश की यह दोनों सीटों पर भाजपा की जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी किंतु इस सियासी गठबंधन ने भाजपा को स्तब्धकारी हार झेलने पर मजबूर कर दिया था। इस तरह के गठबंधनों ने देश के दूसरे राज्यों के क्षेत्रीय दलों को यह संदेश दिया है कि अगले लोकसभा चुनाव में यदि सभी मिलकर भाजपा का मुकाबला करे तो उसके लिए आगे की राह 2019 आसान नही रह जाएगी। तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा राजद जैसी पार्टिया कर्नाटक से सबक लेकर निश्चित रूप से भाजपा की परेशानी बड़ा सकती है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या ऐसा सचमुच संभव हो पाएगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और आईएफडब्ल्यूजे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)