केन्द्र में एक दशक तक सत्ताधारी गठबंधन का नेतृत्व करने वाली पार्टी आज लोकसभा में मात्र 44 सीटों पर सिमट चुकी है और सबसे बड़ी विपक्ष पार्टी होने के बावजूद लोकसभा में विपक्ष के नेता पद के लिए दावा करने की हैसियत अर्जित करने में असफल रही। उसे बार बार अपमान सहने के लिए विवश होना पड़ा। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के कार्यकाल में पार्टी को केन्द्र में एक दशक तक सत्ताधारी गठबंधन का नेतृत्व करने का सौंभाग्य मिला और लगभग 20 राज्यों में सत्ता की बागडोर उसके हाथों में रही। आज स्थित बिल्कुल विपरीत है।
कृष्णमोहन झा
कांग्रेस के 84 वे अधिवेशन में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी का जो नया अवतार नजर आया वह जरूर पार्टी को मजबूत बनाने में मुख्य भूमिका निभा सकता है और इसके लिए उन्होंने जो कार्यकर्ताओं और नेताओं को प्रेम के जरिये पार्टी हित का पाठ पढ़ाया उससे वरीष्ठ नेता भी कही न कही खुश होंगे। 17 -18 मार्च को दिल्ली में हुए इस अधिवेशन राहुल गांधी ने कहा था कि पीछे जो हमारे कार्यकर्ता बैठे हैं, उनमें ऊर्जा है, देश को बदलने की शक्ति है लेकिन उनके और नेताओं के बीच में एक दीवार खड़ी है। मेरा पहला काम उस दीवार को तोडऩे का है। गुस्से से नहीं प्यार से। राहुल के इस बयान को कांग्रेस पार्टी के सीनियर नेताओं के लिए संकेत माना जा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि पार्टी में अभी जो भी आपसी लड़ाई है चुनाव बाद लड़ेंगे, पहले पार्टी के लिए काम करेंगे। 2019 लोकसभा चुनाव को देखते हुए राहुल गांधी का यह भाषण काफी अहम माना जा रहा है। देखना दिलचस्प होगा कि पिछली बार की तरह राहुल के आक्रामक तेवर सिर्फ भाषण तक ही सीमित रहते हैं या फिर उसका कांग्रेस पार्टी के संगठन पर भी असर दिखता है।
कांग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह से सधे अंदाज में बीजेपी पर हमला बोलते हुए उसके शीर्ष नेतृत्व पर संभवतया सबसे तीखे निजी हमले बोले, उससे यह सवाल उठ रहा है कि क्या राहुल गांधी वास्तव में 2019 के लिहाज से पीएम मोदी को ललकारने की स्थिति में पहुंच गए हैं? क्या अध्यक्ष पर संभालने के बाद उनमें अपेक्षित आत्मविश्वास आ गया है? ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर वार करते हुए कहा कि मोदी नाम भ्रष्ट कारोबारी और भारत के प्रधानमंत्री के बीच सांठ-गांठ का प्रतीक है। कांग्रेस के 84वें अधिवेशन में एक घंटे के भाषण में राहुल गांधी ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को हत्या का आरोपी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) पर न्यायपालिका, संसद और पुलिस समेत संस्थानों पर नियंत्रण करने की कोशिश करने का आरोप लगाया।
ये सही है कि राहुल गांधी ने अपने भाषण में बीजेपी के विकल्प के तौर पर पार्टी और नेता के रूप में उम्मीद जगाई है। हालांकि इससे पहले भी ऐसा कई बार हुआ है अमेरिकी यूनिवर्सिटी में भाषण और उसके बाद गुजरात चुनावों में जिस तरह से उन्होंने मोर्चा संभाला, उस वक्त भी कमोबेश यही स्थिति उत्पन्न हुई थी, लेकिन गुजरात में बराबरी की टक्कर देने के बाद भले ही कांग्रेस हार गई लेकिन उसके बाद मीडिया में आने में उनको दो दिन लग गए। केवल ट्विटर पर पोस्ट करके ही रह गए उसके बाद त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड के चुनावों में उनकी दमदार उपस्थिति नहीं दिखी। इससे यह संदेश जाता है कि ये ठीक है कि अब राजनेता के तौर पर परिपक्व हो रहे हैं लेकिन अभी भी उनकी गति में निश्चितता नहीं दिखती।
132 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी में राहुल गांधी अब नंबर वन की हैसियत पा चुके हैं। राहुल गांधी ने ऐसे समय में पार्टी अध्यक्ष बनना स्वीकार किया है जब उनके पास यह पद स्वीकार कारने के अलावा कोई विकल्प भी शेष नहीं रह गया था। सोनिया गांधी ने जिस तरह गुजरात विधानसभा चुनावों से अपने को पूरी तरह अलग रखा उससे यह संकेत तो मिलता ही है कि वे राहुल गांधी को ही गुजरात चुनावों में पार्टी की सफलता का पूरा श्रेय देने की इच्छुक थीं। अब यह उत्सुकता का विषय है कि कर्णाटक,मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ ,राजस्थान में होने वाले विधानसभा चुनाव राहुल के लिये अग्नि परीक्षा से कम नहीं है।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पार्टी के राष्ट्रीय महाधिवेशन में अपने संबोधन के दौरान महाभारत का जिक्र करते हुए बीजेपी को कौरव और कांग्रेस पार्टी को पांडव की संज्ञा दी। इसके साथ ही अपनी पार्टी के नेताओं को भी नसीहत की घुट्टी पिलाते हुए पार्टी में बड़े बदलाव की बात कही। इस तरह के दावे तो वह पहले भी करते आए हैं लेकिन सवाल उठता है कि क्या पुराने नेताओं की जगह नए चेहरों को लाने में उनको परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ेगा? क्या इससे पार्टी में ओल्ड गार्ड बनाम युवा तर्क की महाभारत नहीं छिड़ेगी? ऐसा इसलिए क्योंकि इन दावों के बावजूद अभी तक पार्टी की पुरानी परिपाटी को तोड़ा नहीं जा सका है। इसकी बानगी इस बात से समझी जा सकती है कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में अगले कुछ महीनों में ही चुनाव होने वाले हैं लेकिन वहां पुराने चेहरों की जगह ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट को पार्टी का चेहरा अभी तक घोषित नहीं किया जा सका है।
राहुल गांधी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि वर्तमान व्यवस्था में रोजगार की बात करें तो हमारा सीधा मुकाबला चीन से है। चीन हमारे देश में हर जगह है. लेकिन आप हमारे युवाओं से पूछिए कि आप क्या करते हैं और आपको जवाब मिलेगा कुछ नहीं पीछे की पंक्ति में खड़े कार्यकर्ता में भी ऊर्जा है, नेतृत्व क्षमता है, लेकिन हमारे नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच एक दीवार है, उस दीवार को गिराना होगा. चुनावों में जमीनी कार्यकर्ता को टिकट मिलेगा, पैराशूट नेता को नहीं। कांग्रेस देश के संविधान की इज्जत करती है और संघ देश के संविधान को खत्म करके केवल एक ही संविधान लागू करना चाहता है और वह है आरएसएस का संविधान। मीडिया कांग्रेस के बारे में खूब उल्टा-सीधा लिखती है फिर भी कांग्रेस हमेशा मीडिया की रक्षा और अधिकारों के लिए उनके साथ है और रहेगी। कांग्रेस के नेताओं से जब कोई गलती होती है, तो वे सभी के सामने अपनी गलती स्वीकार करते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी ने देश को बर्बाद कर दिया, फिर भी वे अपनी गलती मानने को तैयार नहीं हैं। बीजेपी की राजनीति और धर्म सिर्फ सत्ता को छीनने के लिए है, जबकि हम जनता के लिए खड़े होते हैं उन्हीं के लिए लड़ते हैं हम नफरत नहीं करते हैं। किसान कहते हैं कि खेती से कुछ नहीं बचता, आत्महत्या करनी पड़ती है नौजवानों को रोजगार नहीं मिल रहा है. नौजवानों ने जो भरोसो नरेंद्र मोदी पर किया वह पूरी तरह टूट गया है अगर हिंदुस्तान को बदलना है तो हर जाति और हर धर्म के लडक़े-लड़कियों को समझना होगा. इस देश को ना तो नरेंद्र मोदी बदल सकते हैं ना कोई और. नौजवनों की शक्ति के बिना देश नहीं बदल सकता। विदेश नीति पर केंद्र पूरी तरह विफल साबित रहा है. पाकिस्तान लगातार संघर्ष विराम का उल्लंघन कर रहा है. तिब्बत, मालदीव और डोकलाम में चीन की मौजूदगी चिंताजनक है। कांग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह से सधे अंदाज में बीजेपी पर हमला बोलते हुए उसके शीर्ष नेतृत्व पर संभवतया सबसे तीखे निजी हमले बोले, उससे यह सवाल उठ रहा है कि क्या राहुल गांधी वास्तव में 2019 के लिहाज से पीएम मोदी को ललकारने की स्थिति में पहुंच गए हैं? क्या अध्यक्ष पद संभालने के बाद उनमें अपेक्षित आत्मविश्वास आ गया है?
राहुल गांधी को कांग्रेसाध्यक्ष के रूप में पार्टी के उन बुजुर्ग नेताओं को संतुष्ट करना होगा जो नए अध्यक्ष के साथ काम करने में झिझक महसूस कर सकते है। गांधी को दरअसल पार्टी अध्यक्ष के रूप में अब यह तय करना है कि पार्टी के वरिष्ठ अनुभवी बुजुर्ग नेताओं के अनुभव का लाभ किस तरह लिया जाए और युवा कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को अग्रिम मोर्चे पर किस तरह महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी जाएं। यह तो तय है कि कांग्रेस के नए अध्यक्ष अपनी टीम में युवा नेताओं को ही तरजीह देंगे और इसमें भी दो राय नहीं है कि राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपने का सर्वाधिक आग्रह भी पार्टी के युवा वर्ग द्वारा ही किया जा रहा था। राहुल गांधी ने अभी तक जो भी फैसले किए है उन्हें देखकर यही निष्कर्ष निकला जा सकता है कि वे कड़े फैसले लेने का साहस प्रदर्शित करने से नहीं हिचकेंगे। महाधिवेशन के समापन भाषण के दौरान राहुल गांधी ने पार्टी के अंदर लोकतंत्र लाने की बात भी कही और अधिक से अधिक संख्या में कार्यकर्ताओं को मौका देने की वकालत की. लेकिन अधिवेशन के कुछ ही देर बाद ही कांग्रेस पार्टी के अंदर वर्षों से जारी पुरानी परिपाटी को ही अपनाया गया. राहुल को कार्यसमिति के सदस्यों को मनोनीत करने का पूरा अधिकार दे दिया गया. उन्होंने भी इसका विरोध नहीं किया और अपने पसंद के 24 लोगों को उन्होंने नॉमिनेट करना पसंद किया। हो सकता है कि पार्टी के एक वर्ग को राहुल गांधी के इन कड़े फैसलों से कोई लाभ मिलने की उम्मीद न हो परंतु राहुल गांधी के सामने अब इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है कि पार्टी का कायाकल्प करने के लिए कड़े फैसले लेने से परहेज न किया जाए। पार्टी आज जिस संकट के दौर से गुजर रही है वह दरअसल पहिचान का संकट ही है। अधिकांश राज्यों में वह सत्ता से बेदखल हो चुकी है। केन्द्र में एक दशक तक सत्ताधारी गठबंधन का नेतृत्व करने वाली पार्टी आज लोकसभा में मात्र 44 सीटों पर सिमट चुकी है और सबसे बड़ी विपक्ष पार्टी होने के बावजूद लोकसभा में विपक्ष के नेता पद के लिए दावा करने की हैसियत अर्जित करने में असफल रही। उसे बार बार अपमान सहने के लिए विवश होना पड़ा। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के कार्यकाल में पार्टी को केन्द्र में एक दशक तक सत्ताधारी गठबंधन का नेतृत्व करने का सौंभाग्य मिला और लगभग 20 राज्यों में सत्ता की बागडोर उसके हाथों में रही। आज स्थित बिल्कुल विपरीत है। केन्द्र में और उन राज्यों में जहां वह सत्ता से बेदखल हो चुकी है। पार्टी की सत्ता में वापिसी की उम्मीदें तो दूर की बात है वह सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने में भी समर्थ नहीं है। अगले साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने है वहां पार्टी के संगठन में इतना बिखराव हो चुका है कि उसे एक साल के अंदर एकजुट कर पाना टेढ़ी खीर प्रतीत होता है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और आईएफडब्ल्यूजे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)