बच्चों में कैसे बोये सृजनात्मकता के बीज

मैं बेहद शुक्रगुजार हूँ लुईस एल हे की जिन्होंने स्वयं से प्रेम करने की कला बहुत सहजता से लोगो को अवगत करवाया। स्वयं से प्रेम करना उतना ही जरूरी हैं जितना कि दूसरों से…अक्सर आँख खोलते ही हमारे दिमाग में एक खाका बन जाता है कि आज सारा दिन हम लोगो के लिए क्या क्या करेंगे पर कभी ऐसा हम सोचते ही नहीं कि आज सारे दिन हम स्वयं को खुश करने के लिए क्या करेंगे? जब भी यह प्रश्न आता है हम एक घिसा पीटा सा उत्तर स्वयं को देते हैं कि दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी है। प्रश्न उठता है कि जिसको यह पता ही न हो कि उसकी खुशी किस में है तो भला वो दूसरों की खुशी के बारे में कैसे ख्याल रख सकता है। चलो यह मान भी लिया कि बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो अपना सारा जीवन इस बात में लगा देते  हैं कि कैसे दूसरों को खुश रखा जाये। ऐसा करके उनको एक क्षणिक आत्म सन्तुष्टि भी मिलती है क्योंकि उनके पास बताने के लिए होता है कि उन्होंने दूसरों के लिए क्या क्या त्याग किये है पर साथ ही उनकी बातचीत में एक कसक झलकती है कि किस तरह दूसरों को खुश करने में उन्होंने कभी अपनी खुशी का ख्याल ही नहीं किया और आज वही लोग जिनको वो प्रशन्न करने में लगे थे उनकी तरफ पलट कर देखते भी नहीं है। अधिकांश बूढ़े हो चुके माता-पिता की कसक यही होती है कि उन्होंने सारा जीवन जिस सन्तान के लिए समर्पित कर दिया वही उनको छोड़कर चली गई। ऐसे माता-पिता को सुनते समय अक्सर लोग उनके सामने उनकी सन्तान की बुराई शुरू कर देते है कि आज की पीढी ही असंवेदनशील है। वैसे हर पुरानी पीढी को नई पीढी खुद की तुलना में थोड़ी असंवेदनशील लगती है। प्रश्न यह है कि इस समस्या का हल कैसे निकाला जाए।

क्या इस समस्या का हल सिर्फ इतना भर है कि माता-पिता सन्तान को और सन्तान माता- पिता को कोसते रहें। इस विषय का व्यवहारिक हल क्या है? इस समस्या का समाधान इस नजरिये में छुपा है कि जीवन जीने के तरीके को सन्तुलित किया जाए। बचपन से ही माता-पिता को एक व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। एक ऐसा दृष्टिकोण जिसमें बच्चों की भावनात्मक जरूरतें भी पूरी हो पर साथ ही भावनात्मक आत्म- निर्भरता की भावना भी पैदा हो। अक्सर देखा गया कि प्रेम के नाम पर माता-पिता बच्चों को भावनात्मक ही नहीं शारीरिक रूप से भी पंगु बना देते हैं। बचपन से ही बच्चों का हर छोटा बड़ा काम अभिभावक स्वयं करके अपना लाड जताते है और धीरे- धीरे बच्चे इसके अभ्यस्थ हो जाते है। बच्चों को भावनात्मक और शारीरिक रूप से आत्म-निर्भर बनाने की शुरुआत इस बात से की जा सकती है कि उनको जीवन की चुनौतियों का सामना करने दे। उनको अपने काम स्वयं करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।  उनके अंदर जूझने की क्षमता विकसित होने दे। उनको प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि जीवन में चुनौतियां उनको हतोत्साहित करने के लिए नहीं वरन् जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा बनकर आती है। उनको चुनौतियों को सकारात्मक रूप से लेने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए लेकिन यह प्रशिक्षण वही माता-पिता दे सकते हैं जिन्होंने स्वयं को सकारात्मक रखने का प्रशिक्षण प्राप्त किया हो। अक्सर माता-पिता शिकायत करते नजर आते हैं कि बच्चों को हम कितना बोलते हैं पर वो हमारी एक बात नहीं सुनते। ऐसा क्यों होता होगा? ऐसा तब होता है जब आप जो सद्गुण बच्चों को अपनाने की सलाह दे रहे होते हैं खुद उनको अपने व्यवहार में नहीं उतारते। बच्चों को जब अभिभावक की कथनी और करनी में साम्यता नजर नहीं आती तो उनकी रूचि भी उनसे कुछ भी ग्रहण करने में समाप्त हो जाती है। दरअसल एक गलती हर माता-पिता करते हैं वो अपनी सन्तान को स्वयं से कम विवेकवान मान लेते हैं। उनको लगता है कि उनका अनुभव आदर्श है जबकि सच है कि बच्चों में बड़ो की तुलना में अधिक ग्रहण शीलता और परीक्षण की शक्ति होती है।  कुलमिला बच्चों के भीतर सकारात्मकता का बीज बोने से पहले माता-पिता को उसे अपने भीतर पल्लवित करने की आवश्यकता है ताकि बच्चों को भावनात्मक और शारीरिक रूप से आत्म- निर्भर बनाया जा सकें।

जब भी भावनात्मक आत्म-निर्भरता की बात की जाती है तो अभिभावक उदास हो जाते है। उनको लगता है कि उनकी तो भूमिका ही समाप्त हो गयी। दरअसल अभिभावको की भूमिका समाप्त नहीं हुई है वरन् उनकी भूमिका को पुनर्परिभाषित  करने को कहा जा रहा है। अभिभावको को सिर्फ इतना करना है कि जो बात आप अपने बच्चों को कह कर समझना चाहते हैं उसको अपने व्यवहार के माध्यम से समझाये। आप चाहते है कि आपका बच्चा सुबह जल्दी जागे और अनुशासित जीवन जीये तो उनको यह कहने की जगह की वो ऐसा करें उनके सामने उदाहरण प्रस्तुत करें। खासकर माताएं यदि चाहती है कि उनकी बच्चियां आत्म-निर्भर और आत्मविश्वास से भरी नज़र आये। उनके सामने दुखियारी नजर आना बंद कर दे। माता-पिता शायद भूल जाते हैं कि उनके शब्दों से अधिक उनका व्यवहार बच्चों के चरित्र का निर्माण करता है। जब माता-पिता उदाहरण प्रस्तुत करने की रणनीति पर काम करेंगे को वो अकेले अपने बच्चों का भला नहीं करेंगे वरन् खुद का भला भी करेंगे।

जीवन में सबसे आसान काम है दूसरों को यह बताना कि उनको क्या करना चाहिए और उससे थोड़ा मुश्किल है अर्जित ज्ञान को अपने जीवन में उतारकर स्वयं को एक मिसाल के रूप में प्रस्तुत करना। यदि यह एक काम हम कर पाये तो सिर्फ माता-पिता और सन्तान का रिश्ता खूबसूरत नहीं होगा वरन् हर रिश्ते में लाजबाब सौंदर्य पैदा होगा। लुईस एल हे के आत्म ज्ञान और आत्म प्रेम का सार यही है कि अपना दीपक स्वयं बना जाए और अपने आत्म प्रेम के आलोक से दूसरों को स्वयं से प्रेम करने के लिए प्रेरित किया जाए।

 

डॉ. दीपमाला

लेखिका, मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता, मोटिवेशनल स्पीकर

 

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