“बेटी है तो कल है”

रंजना झा

समाज में बेटियों के प्रति आज भी कहीं न कहीं विसंगतियां देखने को मिलती है घर ,समाज , ऑफिस, हर मोड़ पर –जैसे बेटियों को जन्म से ही श्रापित होने के लिए छोड़ दिया गया है।
कदम कदम पर बेटियों को एहसास कराना कि तुम बेटी हो यह काम तुम्हारा है बेटियों को निर्णय लेने का भी अधिकार नहीं होता है।बेटी समाज की कठपुतली होती नजर आती है कभी वह तरह तरह के ताने सुनने को विवश होती है। घर की जिम्मेदारी भी सबसे ज्यादा बेटियों को ही दी जाती है।
दूसरी तरफ संस्था,संगठन, या फिर सरकार उनकी तरफ से हजारो योजनायें बनती है। कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं जिसमें केवल 5% ही बेटियाँ लाभान्वित हो पाती हैं बाकी 95% आज भी बेटियाँ उपेक्षित या भेंट की बलि चढ़ जाती हैं।
बेटा बेटी में भेद भाव आज से नहीं प्राचीन काल से चली आ रही हैं राजस्थान,हरियाणा में तो जन्म से पहले बेटियों को गर्भ में मार दिया जाता है जिसका खामियाजा यह है कि वहाँ लड़कों की शादी के लिए लड़की मिलना मुश्किल हो रहा है। सरकार भी “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” जैसी योजना लागू कर कन्या भ्रूण हत्या जैसी घटनायें कम करने की कोशिश कर रही है। लेकिन यह काफी नहीं है जब तक देश का हर नागरिक अपनी सोच में बदलाव नहीं लायेगा तब तक बेटी को सही मायने में इंसाफ नहीं मिल पायेगा।
कुछ समय पूर्व स्टार प्लस पर ‘सत्यमेव जयते’ नामक कार्यक्रम प्रदर्शित हुआ था जिसमें कन्याभ्रूण पर भी एक परिचर्चा थी। उसमें कई ऐसी महिलाओं की आपबीती थी जिससे पता चला कि बेटी पैदा होने पर एक माँ के साथ हैवानियत जैसा व्यवहार किया गया। पेशे से डॉ. महिला को भी कन्याभ्रूण हत्या जैसी क्रूर मानसिकता का शिकार होना पङा। बालिकाओं के प्रति संवेदनाहीन एवं तिरस्कार जैसी भावना किसी भी देश के लिए चिंताजनक है।
सामाजिक सन्तुलन को बनाये रखने के लिये, समाज में लड़कियाँ भी लड़कों की तरह महत्वपूर्ण है। कुछ वर्ष पहले, पुरुषों के मुकाबले में महिलाओं की संख्या में भारी गिरावट थी। ये महिलाओं के खिलाफ अपराधों को बढ़ने के कारण था जैसे: कन्या भ्रूण हत्या, दहेज के लिये हत्या, बलात्कार, गरीबी, अशिक्षा, लिंग भेदभाव आदि। समाज में महिलाओं की संख्या को बराबर करने के लिये, लोगों को बड़े स्तर पर कन्या बचाने के बारे में जागरुक करने की आवश्यकता है। भारत की सरकार ने कन्याओं को बचाने के सन्दर्भ में कुछ सकारात्मक कदम उठाये है जैसे: महिलाओं की घरेलू हिंसा से सुरक्षा अधिनियम 2005, कन्या भ्रूण हत्या पर प्रतिबंध, अनैतिक तस्करी (रोकथाम) अधिनियम, उचित शिक्षा, लिंग समानता आदि।
लिंग का भेद न हो तो बेटियों के नाम जितनी भी संस्थाएँ बनी हैं वह सामान्य संस्था की श्रेणी में आ जाएगा और बेटियों के नाम चलने वाली योजना वह आम नागरिक की तरह सामान्य रूप से चलने लगेगी जरूरत है समाज को कंधे से कंधा मिला कर चलने की! देश की बेटी को भीख नहीं अधिकार और सम्मान चाहिए।
हमारी न्याय पालिका भी बेटियों पर पूर्ण न्याय नहीं कर पाती है कहीं कहीं तो महिलाओं पर झूठे आरोप लगा दिए जाते हैं और साबित कर दिया जाता है कि यह तो बदचलन थी जिसका न्याय उसे नहीं मिल पाता और समाज में उसे लोग घूरते तथा उसका गलत इस्तेमाल करते हैं।
बेटियों की सुरक्षा को लेकर घर, समाज यहाँ तक की सरकार को सोचना पड़ता है। ऐसी नौबत ही क्यों आती है कि बेटी है तो सुरक्षा की जरूरत है क्यों हम बेटियों की तरफ बुरी नजर से ही देखते हैं बेटों को क्यों नहीं संस्कार देते कि चलते राह बहु ,बेटियों पर गलत नजर मत रखो अगर यह मानसिकता बदल जाए तो बेटियों के लिए समाज में बोझ और अगल से सुरक्षा की जरूरत नहीं पड़गी।

(लेखिका साहित्यकार हैं। साहित्य के साथ सामाजिक विषयों पर लिखती हैं।)

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