शिक्षा से ही समाज का विकास संभव

निशिकांत ठाकुर

छुआछूत, भेदभाव, असमानता, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी के अंतर को मिटाकर अशिक्षा को दूर करना, जाति प्रथा के दुर्गुणों से समाज को मुक्त करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था हमारे महान बुद्धिजीवी संविधान निर्माताओं ने संविधान में कुछ ही समय के लिए की थी। दरअसल उन्हें उम्मीद थी कि जल्द ही समाज से इन असमानताओं से ऊपर उठकर, इन बुराइयों को खत्म कर भेदभाव वाली उबड़-खाबड़ सामाजिक व्यवस्था रूपी जमीन को समतल कर दिया जाएगा। वह इसलिए, क्योंकि विकास रूपी पानी खेत के एक कोने में डाला जाए तो वह पूरे खेत में सामान्य रूप से पहुंच सके। उन महापुरुषों का विचार था कि हमारा भारत, जो सैकड़ों वर्षों तक गुलामी का जीवन जिया है, कभी मुगलों और कभी अंग्रेजों के अधीन होकर, ऐसे व्यक्ति अब स्वतंत्र होकर जीवन जीने के लिए आजाद होंगे और कुछ वर्षों में ऊंच-नीच की जो खाई समाज के बीच फैला दी गईं है, वह ठीक हो जाएगी। इसी दूरदर्शिता के कारण तभी उन्होंने राष्ट्रपति से लेकर एक आम आदमी तक को केवल एक ही मत का अधिकार दिया। फिर इस बात को संविधान के प्रस्तावना की शुरुआत ही यह लिखकर किया कि ’हम भारत के नागरिक…’। अद्भुत सोच और कितने उच्च विचार थे और कितने दूरदृष्टा थे वे महामानव। श्रद्धा से मस्तक उनके नाम से झुक जाता है। उनकी सोच शायद यह थी कि ऐसा करने से कुछ दिनों से देश में वर्ण-व्यवस्था नामक जो बीमारी फैल चुकी है, वह दूर हो जाएगी। यह एक प्रयोग था।

यह सच है कि एक पत्थर से गंगा में तूफान नहीं आ सकता, लेकिन इतना तो तय है कि वह पत्थर क्षणिक उथल-पुथल तो पैदा कर ही देता है। एक हल्का सा ही सही, झोंका तो जरूर आता है। ऐसा ही हुआ। जिस गति से आरक्षण का लाभ समाज के दबे-कुचले, गरीब-दलित समाज को मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। समाज के शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं ने इस तरफ कोई शायद ध्यान ही नहीं दिया कि ऐसा किस कारण से हुआ कि उस वर्ग को सारी सुविधाओं को देने के बाद भी उसका उस गति से विकास नहीं हो सका, जिसकी आशा संविधान निर्माताओं ने की थी। इसमें जो एक बड़ी कमी रही, वह शिक्षा है। हमारा वह समाज उस प्रकार सभी सुविधाओं को पाने के बाद भी शिक्षित नहीं हो सका, जिसकी आशा की गई थी। जब भी, जो भी सरकार केंद्र और राज्यां में काबिज होती है, सबकी सोच अमूमन यही रही कि वह जहां पहुंचे हैं, वह उनकी निजी उपलब्धि है और देश, वह तो आगे बढ़ ही रहा है। सभी नियमों के अनुसार उच्च पदों पर पहुंचते रहे, लेकिन जिस नियम और जिनके बल पर उन्हें वह पद मिला है, उस नियम-कानून को वह भूलते चले गए। उससे वही हुआ कि तमाम सुविधाओं के बावजूद हमारा पिछड़ा समाज उन बुलंदियों पर नहीं पहुंच सका। पलट कर यदि देखें तो हमारा देश सामान्यतः अन्य देशों की तुलना में कहीं बेहतर तरीके से विकसित हुआ है, लेकिन इतनी बड़ी आबादी को लेकर शून्य से शिखर पर पहुंचना कतई आसान नहीं था, लेकिन पर हम विश्व गुरु बनने का जो सपना देख रहे हैं, वह कोई अब भी संभव नजर नहीं आ रहा है। ऐसा क्यों? कहीं गंगा में मारे गए उस पत्थर का तूफान रुक तो नहीं गया!

भारतवर्ष जैसे विशाल लोकतंत्र में सभी को साथ लेकर चलना ही हमारी प्राथमिकता है। इस स्थिति में जब हमारे बीच ऊंच-नीच, अगड़ी-पिछड़ी, हिंदू-मुस्लिम की खाई बनी हुई है तो हम विश्व गुरु बन भी कैसे सकते हैं? पता नहीं इस बीच क्या हो गया हमारे देशवासियों को कि जिधर देखो, एकता का कहीं नाम-ओ-निशान तक नहीं दिखता है। पिछड़ा-सवर्ण, हिंदू-मुस्लिम सब आपस में एक-दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। ऐसा क्यों हो गया है!किस वजह से हो गया है! जब तक इन सवालों पर नए सिरे से मंथन नहीं किया जाएगा, कुछ भी ठीक नहीं हो सकता है। अपने कई विचारों में इसकी चर्चा करता रहता हूं कि आखिर क्या हो गया इस देश को, जहां भाई-भाई, अड़ोसी-पड़ोसी आपस में लड़ रहे हैं! फिलहाल कोरोना के कारण देश की जो स्थिति बन गई है, उस कारण उसे अपनी पटरी पर लाने में कितना समय लगेगा, यह कोई नहीं यह जानता।

अब तो यह स्थिति बन गई है कि यदि जातीय आधार न हो, तो आप देश के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मंदिर संसद या विधान सभा में नहीं पहुंच सकते। जबकि, जातीय व्यवस्था इसलिए की गई थी, ताकि सभी वर्णों का प्रतिनिधि संसद या विधान सभा में पहुंच सके। ऐसा संविधान निर्माताओं ने नहीं सोचा होगा कि जिसका न कोई राजनीतिक आधार है, जातीय आधार तो है ही नहीं, तब भी यदि वह व्यक्ति विशेष दल के विशेष का प्रिय है तो उसको भी चुनाव लड़ाया जाता है और उसे भी अपना बहुमत सिद्ध करने के उपयोग में लाया जाता है। ऐसे लोगों से समाज का भला तो नहीं होता, लेकिन उस दल को अपना एक नुमाइंदा जरूर मिल जाता है, जो हर स्थान पर उसकी हां में हां मिलाकर बहुमत सिद्ध करने में सफल हो जाता है। फिर ऐसे लोग देश का समाज का हित क्या करेंगे? हां, अपना हित जरूर साध लेते हैं। यदि हमें समाज से इन बुराइयों को दूर करना है, देश को एक स्वच्छ, जात-पात विहीन सामाजिक ढांचा देना है, तो हमें संपूर्ण समाज को सुशिक्षित करना होगा। शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा किसी बुराई को खत्म किया जा सकता है। जब तक समाज शिक्षित नहीं होगा, वर्णविहीन समाज का सपना साकार नहीं हो सकता। हो सकता है कि मेरे इस विचार से समाज के कुछ चिंतक सहमत न हों, लेकिन मुझे लगता है कि जिससे देश का भला भविष्य में होता हो, उसकी जानकारी समाज और सरकार को देना आवश्यक तो है ही, क्योंकि आदिकाल से कहा जा रहा है-

‘स्वगृहे पूज्यते मूर्खः, स्वग्रामे पूज्यते प्रभूः।
स्वदेश पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते।।
इसलिए यदि हम समाज को शिक्षित नहीं करेंगे तो लाख प्रयास कर लें, सब निरर्थक होगा।

(लेखक वरिष्ठ विश्लेषक और पाक्षिक पत्रिका शुक्लपक्ष के प्रधान संपादक हैं।)

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