त्रिपुरा ,मेघालय और नागालैंड में त्रिकोणात्मक संघर्ष

पूर्वोत्तर के इन राज्यों में बीजेपी की राजनीति कितनी सफल होती है और कांग्रेस राहुल की अगुवाई में क्या कुछ कर पाती है। खासकर मेघालय से अगर कांग्रेस बेदखल होती है तो पूर्वोत्तर से वह पूरी तरह बेदखल हो जायेगी।

अखिलेश अखिल

”इस बार पूर्वोत्तर की राजनीति बदलकर रहेगी। देश का मिजाज बदला है तो पूर्वोत्तर की राजनीति भी बदलेगी। अब पहले वाला समय नहीं रहा। अब पूर्वोत्तर से कांग्रेस को बेदखल कर देगी बीजेपी। अब कांग्रेस के पास बचा ही क्या है। हम इस बार पूर्वोत्तर के इन तीनो राज्यों को जीतेंगे और कांग्रेस को कहीं का नहीं छोड़ेंगे।” कुछ इसी तरह के बयान बीजेपी के एक नेता दे रहे थे। यह बात और है कि बयान देने वाले को नेता को पूर्वोत्तर के भूगोल का भी ज्ञान नहीं है। जब उनसे पूछ गया कि मेघालय की सियासत किन पहाड़ों के बीच सिमटी है ,नहीं बता सके। कहने लगे हमें इससे कोई लेना देना नहीं। हर जगह मोदी जी की सरकार होनी चाहिए तभी देश आगे बढ़ेगा। गौरतलब है कि पूर्वोत्तर के नागालैंड, त्रिपुरा और मेघालय के विधानसभा चुनाव का औपचारिक ऐलान हो चुका है। इन तीनों राज्यों में फरवरी में मतदान होगा। त्रिपुरा लेफ्ट का दुर्ग है, तो मेघालय कांग्रेस का मजबूत किला है। जबकि नगालैंड की सत्ता पर बीजेपी-एनपीपी की साझा सरकार है। जाहिर है इस बार पूर्वोत्तर में त्रिकोणात्मक संघर्ष होंगे।
हर कोई जानता है कि त्रिपुरा लेफ्ट का मजबूत किला है। पिछले पांच विधानसभा चुनावों से यहां लेफ्ट का कब्जा है। लेकिन अभी इस राज्य का सियासी खेल चार्म पर है। लेफ्ट के इस दुर्ग में बीजेपी सेंधमारी की लिए बेताब है। 1978 के बाद से वाम मोर्चा सिर्फ एक बार 1988-93 के दौरान राज्य की सत्ता से दूर रहा है। बाकी सभी विधानसभा चुनाव में लेफ्ट का कब्जा रहा है। 1998 से लगातार त्रिपुरा में 3 बार से सीपीएम के मुख्यमंत्री माणिक सरकार ही है। उनकी ईमानदारी और सादगी लेफ्ट की जीत का आधार रखती आई है। लेकिन बीजेपी ऐसा कुछ भी नहीं मानती। जाहिर है इस बार त्रिपुरा में कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी की धमक है। बीजेपी से ही असली लड़ाई दिखाई पड़ रही है।
आपको बता दें कि त्रिपुरा के 2013 विधानसभा चुनाव में राज्य की कुल 60 सीटों में से वाम मोर्चा ने 50 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस को 10 सीटों के साथ संतोष करना पड़ा था, लेकिन तीन साल के बाद 2016 में कांग्रेस के 6 विधायकों ने ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी ज्वाइन कर ली। ये छह विधायक टीएमसी में भी रह नहीं सके और अगस्त 2017 में उन्होंने बीजेपी ज्वाइन कर ली। जाहिर है अभी लेफ्ट का सीधा मुक़ाबला बीजेपी से है।
उधर ,मेघालय की सत्ता पर आसीन कांग्रेस के लिए अपनी सत्ता बचाए रखने की बड़ी चुनौती है। बीजेपी से लेकर नेशनल पीपुल्स पार्टी सहित अन्य क्षेत्रीय दल पूरी तरह से कमर कसकर चुनावी मुकाबले में उतर चुके हैं। सूबे में कांग्रेस संकट में है, उनके कई विधायकों ने पिछले दिनों पार्टी को अलविदा कहा है। कांग्रेस इसकी भरपाई करने में लगी हुई है। कई दूसरी पार्टियों के नेता कांग्रेस में शामिल किए जा रहे हैं। कांग्रेस के लिए मेघालय चुनाव जितने की चुनौती है। मेघालय में दशकों से कांग्रेस की सियासी मौजूदगी उसे यहां मजबूत बनाए हुए है, लेकिन पिछले दिनों कुछ विधायकों ने पार्टी को अलविदा कहा तो एनसीपी सहित कुछ अन्य पार्टी के विधायकों ने पार्टी का दामन भी थामा है। यहां बीजेपी की राजनीति अभी फलती नहीं दिखती लेकिन बीजेपी की हर कोशिश यहां से कांग्रेस को बेदखल करने का है। मेघालय में कुल 60 विधानसभा सीटें हैं। 2013 के विधानसभा चुनाव में इनमें से कांग्रेस ने 29 पर जीत दर्ज की थी, तो वहीं यूडीपी ने 8, निर्दलीय ने 13, एनसीपी ने 2 और अन्य ने 8 सीटें जीती थीं।
नगालैंड की राजनीति कुछ अलग तरह की ही है। अभी सत्ता पर नगा पीपुल फ्रंट और बीजेपी गठबंधन की साझा सरकार है। राज्य की सत्ता से कांग्रेस को 2003 में बेदखल करके नगा पीपुल फ्रंट ने यहां कब्जा किया था, उसके बाद से लगातार सत्ता में वो बनी हुई है। बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी सीटों को बढ़ाने की है। इसके अलावा अपनी सहयोगी पार्टी एनपीपी के साथ सत्ता में बहुमत के साथ वापसी करना भी एक चैलेंज है। जबकि कांग्रेस 14 साल बाद सत्ता में वापसी के लिए हाथ पांव मार रही है माना जा रहा है कि इस बार नागालैंड में कांग्रेस की हालत पहले से बेहतर है। नगालैंड में कुल 60 विधानसभा सीटें हैं। पिछले 2013 के विधानसभा चुनाव में नगा पीपुल फ्रंट ने 45 सीटें जीती थीं। इसके अलावा 4 बीजेपी और 11 सीटें अन्य के खाते में हैं। अब देखना होगा कि पूर्वोत्तर के इन राज्यों में बीजेपी की राजनीति कितनी सफल होती है और कांग्रेस राहुल की अगुवाई में क्या कुछ कर पाती है। खासकर मेघालय से अगर कांग्रेस बेदखल होती है तो पूर्वोत्तर से वह पूरी तरह बेदखल हो जायेगी।

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