नई दिल्ली। फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट (एफएमआरआई), गुरुग्राम में डॉ मीत प्रीतमचंद कुमार, कंसल्टैंट, हिमेटोलॉजी, इंस्टीट्यूट ऑफ ब्लड डिसॉर्डर तथा डॉ दीप्ति अस्थाना, सीनियर कंसल्टैंट, गाइनीकोलॉजी, फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट (एफएमआरआई), गुरुग्राम के नेतृत्व में सुपर स्पेश्यलिटी डॉक्टरों की एक टीम ने एक दुर्लभ सर्जरी को सफलतापूर्वक अंजाम देते हुए, गर्भावस्था के दौरान हॉज़किन्स लिंफोमा से पीड़ित होने और कीमोथेरेपी उपचार लेने वाली महिला का सुरक्षित प्रसव कराया। उपलब्ध चिकित्सकीय साहित्य और प्रकाशित शोधपत्रों के अनुसार, दुनियाभर में इस प्रकार के मामलों को उंगलियों पर गिना जा सकता है जबकि भारत में यह अपनी किस्म का पहला मामला है जिसमें हॉज़किन्स लिंफोमा के इलाज के समानांतर किसी महिला ने गर्भावस्था को सफलतापूर्वक पूरा किया। इस प्रकार के मामलों में, या तो गर्भस्थ शिशु का बचता नहीं है या फिर प्रसवोपरांत उसकी मृत्यु हो जाती है। इस मामले में, जब मरीज़ ने एक स्वस्थ शिशु को जन्म दिया उस समय उनकी तीन चक्रों में कीमोथेरेपी पूरी हो चुकी है।
सोफिया का केस
सोफिया (मरीज़) को फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट में जब लाया गया तब वे 20 सप्ताह के गर्भ से थीं और उन्हें लगातार तेज़ बुखार बना हुआ था। शुरुआत में उन्हें अलग-अलग अस्पतालों में इलाज के लिए ले जाया गया जहां एंटीबायोटिक्स के कई दौरों से उन्हें गुजारा गया। यहां तक कि कुछ समय बाद उनका तपेदिक का इलाज शुरू किया गया, लेकिन उनकी हालत लगातार बिगड़ रही थी। उनके खून में प्लेटलेट्स की संख्या कम हो रही थी और तत्काल प्लेटलेट तथा ब्लड ट्रांसफ्यूज़न की जरूरत थी। एफएमआरआई में भर्ती कराने के बाद, उनके प्लेटलेट्स और हिमोग्लोबिन का स्तर गिरने लगा था। उस समय वे 5 माह के गर्भ से थीं और उनकी लगातार बिगड़ती सेहत के चलते डॉक्टरों ने उनकी बोन मैरो बायप्सी करवायी, जिसमें किसी तरह की कैंसरकारी कोशिकाएं नहीं पायी गईं।
आराम करते हुए भी उन्हें सांस लेने में तकलीफ बढ़ रही थी और गर्भस्थ शिशु का एम्नियोटिक फ्लूड भी लगातार घटते हुए पूरी तरह खत्म हो गया था। डॉक्टरों ने एमआरआई से उनकी दोबारा जांच करने पर पाया कि उनके सीने के अलावा पेट में भी लिंफ नोड्स मौजूद थीं। एक बार फिर बायप्सी रिपोर्ट से मरीज़ के शरीर में हॉज़किन्ए लिंफोमा की पुष्टि हो गई थी, और तब बिना देरी किए शिशु एवं भावी मां की जीवनरक्षा की खातिर तथा कैंसर को आगे बढ़ने से रोकने के लिए, उनकी तत्काल कीमोथेरेपी शुरू की गई।
डॉक्टरों के लिए चुनौतियां
इस मामले की चिकित्सकीय चुनौतियों के बारे में डॉ दीप्ति अस्थाना, सीनियर कंसल्टैंट, गाइनीकोलॉजी ने कहा, श्श् इस पूरे मामले में शिशु के जीवन को बचाना सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण था और एम्नियोटिक फ्लूड के कई दिनों से नहीं होने की वजह से यह काम काफी टेढ़ा था। इस बीच, मरीज़ के शरीर में प्लेटलेट्स कम होने की वजह से हम किसी और प्रक्रिया के बारे में सोच भी नहीं पा रहे थे। सौभाग्यवश, जैसे ही कीमोथेरेपी शुरू हुई, एम्नियोटिक फ्लूड में सुधार होने लगा और शिशु का विकास भी शुरू हो गया। हम शुरुआती कीमोथेरेपी सत्रों के बाद से ही शिशु के स्वास्थ्य पर लगातार नज़र रख रहे थे, मरीज़ के शरीर में प्लेटलेट्स में सुधार और सांस उखड़ने की तकलीफ में राहत मिलने से आशा की किरण दिखायी देने लगी थी।श्श्
गर्भावस्था में भी सुधार
एम्नियोटिक फ्लूड एकाएक बढ़ने से गर्भावस्था में भी सुधार होने लगा। पोषक खुराक और दवाओं के योग से गर्भस्थ शिशु के शरीर का विकास होने लगा और जल्द ही उसका वज़न भी बढ़ने लगा। हालांकि जैसे-जैसे गर्भावस्था आगे बढ़ रही थी, उस अनुपात में शिशु का विकास कुछ पिछड़ा हुआ था, लेकिन रक्तापूर्ति ठीक बनी हुई थी। 34 सप्ताह पूरे होने के बाद गर्भनाल की रक्वाहिका में रक्तापूर्ति प्रभावित होने की तरफ डॉक्टरों का ध्यान गया तो उन्होंने प्रसव कराने का फैसला किया। मरीज़ ने 1.5 किलोग्राम वजन के एक स्वस्थ शिशु को जन्म दिया जिसे किसी प्रकार के रेस्पीरेट्री सपोर्ट की आवश्यकता नहीं थी और डॉ टी जे एंथनी, डायरेक्टर एवं एचओडी, नियोनेटोलॉजी, फोर्टिस गुरुग्राम के नेतृत्व में कार्यरत एनआईसीयू टीम की देखरेख शिशु स्वस्थ बना हुआ है।
कीमोथेरेपी टीम के हेड
कीमोथेरेपी टीम का नेतृत्व कर रहे डॉ मीत प्रीतमचंद कुमार, कंसल्टैंट, हिमेटोलॉजी, इंस्टीट्यूट ऑफ ब्लड डिसॉर्डर, एफएमआरआई ने कहा, जब हमने कमोथेरेपी शुरू की थी, तो मरीज़ की गर्भावस्था की दूसरी तिमाही चल रही थी। कैंसर में बढ़त के अलावा उनके शरीर में प्लेटलेट्स की संख्या लगातार गिर रही थी और शुरुआती स्टेरॉयड का भी उन पर कोई असर नहीं हो रहा था। डिलीवरी के बाद, हमने उनके कई टैस्ट करवाए, जिनसे यह पता चला कि कीमोथेरेपी से उनके शरीर में कोई साइड इफेक्ट नहीं हुए हैं। यह मरीज़ पूरी दुनिया में उन गिने-चुने मामलों में से है जिनके हॉज़किन्स लिंफोमा के उपचार के दौरान, उनके गर्भस्थ शिशु पर कीमोथेरेपी का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। अब तक उनकी कीमोथेरेपी के तीन चक्र पूरे हो चुके हैं और जल्द ही अन्य चक्र भी जारी रखने की योजना है।