Guest Column : आईना वही रहेगा, चेहरे बदल जाएंगे!

 


निशिकांत ठाकुर

एनडीए से अलग होने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्षी दलों को एकजुट करने के लिए सबसे पहले दिल्ली आकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी से मिलकर पहला कदम उठाया। इन दोनो नेताओं के अतिरिक्त भी वह कई विपक्षी दलों के मुखिया से मिलकर उन्हें एकजुट करने का लगातार प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयास में उनकी उपलब्धि क्या हुई है, यह तो अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन इस प्रयास से विपक्षी एकता के लिए और एनडीए से आगामी चुनाव में दो-दो हाथ करने का विपक्षी दलों का मन बनता तो नजर आ रहा है। कई विपक्षी दलों ने नीतीश कुमार के इस प्रयास को सराहा भी है और कुछ के लिए वह आलोचना के पात्र बने हुए हैं। आलोचना तो स्वास्थ लोकतंत्र के लिए हितकार है। इसमें नहले पर दहला यह हुआ कि कांग्रेस द्वारा अपने उदयपुर चिंतन शिविर में लिए गए निर्णय के आधार पर राहुल गांधी के नेतृत्व में कन्याकुमारी से कश्मीर तक 3,570 किलोमीटर की अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को मूर्त रूप देना शुरू कर दिया। इस पदयात्रा को देखकर कहा जा रहा है कि यह सत्तारूढ़ दल के ऊपर कांग्रेस द्वारा गरम लोहे पर चोट देने जैसा है। ऐसे में सत्तारूढ़ दल का अपने हाथ से सत्ता निकलने की संभावना देखकर बौखलाहट अनुचित नहीं है। राहुल गांधी का स्वागत जिस प्रकार दक्षिण भारत में किया जा रहा है और पदयात्रा में स्थानीय बच्चे, युवा और बुजुर्ग उन्हें गले लगा रहे हैं, इसमें लोगों का उत्साह तो कुछ और ही बेहतरीन संकेत दे रहे हैं। इसे देख उत्साहित जयराम रमेश कहते हैं कि अगर यह पदयात्रा (कन्याकुमारी से कश्मीर) सफल रही तो गुजरात से अरुणाचल प्रदेश तक दूसरे चरण की शुरुआत करेंगे।

भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में यह बात दर्ज है कि इंदिरा गांधी को आपातकाल के बाद हुए चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। हालांकि, इंदिरा विरोधी नेताओं का यह गठजोड़ ज्यादा वक्त नहीं चल पाया और 1980 के चुनाव में उन्होंने मजबूती के साथ वापसी की। 23 मार्च, 1977 तक देश में आपातकाल चलता रहा। लोकनायक जेपी की लड़ाई निर्णायक मुकाम तक पहुंची और इंदिरा गांधी को सिंहासन छोड़ना पड़ा। मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी का गठन हुआ। 1977 में फिर आम चुनाव हुए और कांग्रेस बुरी तरह हार गई। इंदिरा गांधी खुद राजनारायण से रायबरेली सीट से चुनाव हार गईं और कांग्रेस महज 153 सीटों पर सिमट गई। 23 मार्च, 1977 को 81 वर्ष की उम्र में मोरारजी भाई देसाई प्रधानमंत्री बने। यह आजादी के तीस साल बाद बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी। जनता पार्टी की सरकार में जल्द ही उथल-पुथल मच गई और जनता पार्टी बिखर गई। इसके कारण जुलाई 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई। इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने।जनता पार्टी में बिखराव के बाद 1980 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने विजय पताका लहराई। इंदिरा को आपातकाल के बाद जो झटका लगा था, उससे कहीं ज्यादा जनसमर्थन उन्हें इस चुनाव में हासिल हुआ । कांग्रेस ने इस चुनाव में 43 प्रतिशत वोट के साथ 353 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की । जबकि जनता पार्टी और जनता पार्टी सेक्युलर 31 और 41 सीटों पर ही सिमट गईं ।

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपनी पराजय के बाद इस तरह निराश हुई कि उसके बाद लगभग जितने भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव हुए, हारती चली गई। उसपर भाजपा के आक्रामक रुख से यही अनुमान लगाया जाने लगा कि अब यह सरकार भारतीय जनता को काफी कुछ देने वाली है। जनता संतुष्ट होती गई और सतारूढ़ दल अहंकारी होता गया। जनता पार्टी भी जब 1977 में चुनाव जीतकर आई थी तो वह काल आज भी याद है। तब कहीं किसी की कोई सुनवाई नहीं होती थी और जनता पार्टी की सरकार से जुड़े लोग आम जनता पर इतने आक्रामक हो गए थे कि सामान्य जनता ने चार वर्ष चली उस जनता पार्टी की सरकार को 1980 में बुरी तरह हरा दिया। कांग्रेस फिर सत्ता में लौटी और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। आज तक अपने आठ वर्षीय कार्यकाल में एनडीए की सरकार ने कथित रूप से विकास तो किया, लेकिन जनता के प्रति नकारात्मक ही रही। इसलिए आज तमाम उपलब्धियों के बावजूद एनडीए को घोर असंतोष और विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसके कई कारणों में बेरोजगारी और महगाई प्रमुख है, जो विकराल रूप धारण कर चुकी है।

राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस द्वारा ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने प्रमाणित कर दिया है कि भाजपा या एनडीए के लिए निकट भविष्य में होने वाले चुनाव जीतना आसान नहीं होगा और यह भी हो सकता है कि यदि विपक्षी दल एकजुट हो गए तो कोई शक नही कि भाजपा को नाकों चने चबाने वाली स्थिति का सामना करना पड़ जाए। भाजपा का अहंकार यह हो गया कि सत्ता में आते ही उसने देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी के लिए ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया और अभी हाल में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का यह दंभ कि भाजपा राज्य स्तरीय सभी दलों को समाप्त कर देगी, का अच्छा संदेश आम जनता में नहीं गया। जनता यह भी आरोप लगा रही है कि अपने विपक्षियों को भ्रष्टाचार के नाम पर सत्तारूढ़ सरकार द्वारा सरकारी संस्थाओं के माध्यम से डराना-धमकाना, लोकतंत्र की आवाज को दबाना, झूठे आश्वासन देकर सामान्य लोगों को भ्रमित करना सत्तारूढ़ दल का काम नहीं है, लेकिन भाजपा की सरकार इस प्रकार के कार्य सरेआम झूठ बोल कर रही है। नीतीश कुमार ने अभी हाल ही में केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि जो लोग काम नहीं कर रहे हैं, वह यह प्रचारित कर रहे हैं कि कितना अधिक काम हो रहा है। नीतीश कुमार विपक्षी दलों को राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट करने के अभियान में भाजपा के विरुद्ध संभावित गठबंधन को मेन फ्रंट बता रहे हैं। उन्होंने हाल ही में कहा है कि यदि विपक्षी एकता सफल हो गई, तो भाजपा को पचास सीटों पर सिमटा दिया जाएगा ।

यदि नीतीश कुमार द्वारा किए जा रहे विपक्षी एकता के प्रयास तथा साथ ही राहुल गांधी का ‘भारत जोड़ो यात्रा’ सफल हो गई और आम लोगों की सुगबुगाहट को देखें तो ऐसा लगता है निकट भविष्य में जो होगा, वह अप्रत्याशित होगा। वह इसलिए क्योंकि राष्ट्रीय स्तर की छवि और राष्ट्रीय स्तर की पार्टी केवल कांग्रेस ही है और छवि अब केवल राहुल गांधी की बनीं है । नीतीश कुमार यदि अपने लोभ को त्याग दें और राहुल के लिए अपना मन बना लें तो प्रधान मंत्री की जो करिश्माई छवि है उसे डेंट किया जा सकता है और 2024 में नए सरकार की उम्मीद की जा सकती है । ऐसा नहीं है कि भाजपा को इसकी जानकारी नहीं होगी, इसलिए वह कांग्रेस और विपक्षियों के हमले का किस प्रकार काट करती है, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इतनी बात तो है ही कि भाजपा के नीति-निर्धारकों ने निश्चित रूप से इस पर विचार किया ही होगा। क्योंकि, लंबे समय तक सत्ता पर काबिज हुए भाजपा इतनी आसानी से किसी को सत्ता सौंप देगी, यह इतना सहज नहीं है, जबकि सत्तारूढ़ दल का कहना है कि उसे वर्षों तक सत्ता पर काबिज रहना है। देखना अब यह होगा कि इतनी बातों के घालमेल का परिणाम क्या निकलता है। मुख्य उद्देश्य चाहे सत्तारूढ़ दल हो या कांग्रेस या नीतीश कुमार के एका का प्रयास, सबकी सोच सत्तारूढ़ होना ही है। इसलिए, जोड़-घटाव कोई चाहे कितना ही कर ले और अपने को कोई कितना भी पारदर्शी कह ले, सच तो यही है कि किस प्रकार सत्ता पर काबिज किया जाए, सभी राजनीतिक दलों द्वारा इसी उद्देश्य से साम-दाम-दंड-भेद की नीति का पालन किया जाता है।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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