संघ में रोम-रोम में व्याप्त है गुरुजी का दर्शन

संघ के द्वितीय सरसंघचालक की पुण्यतिथि 5 जून पर विशेष

धनंजय गिरि

“राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” पूज्‍य श्री गुरूजी का राष्‍ट्र को समर्पित यह मंत्र आज भी संघ के रोम रोम में व्याप्त है। ‘इदं न मम’ अर्थात यह मेरा नही है, कुछ भी मेरा नहीं है यही भारतीय दर्शन है। वही दर्शन शाश्वत होता है जो प्राकृतिक होता है और इदं न मम ही प्राकृतिक है। आपने कभी पशुओं को देखा है, वे पूर्ण आस्था और ममत्व से अपने बच्चों का पालन करते हैं, उन्हें देख कर ऐसा भ्रम होता है कि इन्हे अपने बच्चों में पूर्ण आसक्ति है, परन्तु जैसे ही बच्चा अपनी उदर पूर्ति में सछम हो जाता है, माता और संतति का वह सम्बन्ध स्वतः समाप्त हो जाता है। आपने कभी पक्छियों को देखा है, कैसे एक एक दाना चुन कर माता शिशु के मुख में रखती है, परन्तु जैसे ही वह शिशु उड़ने में सछम हो जाता है माता चिंता मुक्त हो जाती है। आप वृक्षों को देखें, उनमें फल लगते हैं और जब फल पकने लगते है तो वृक्ष स्वयं उन्हें अपने से दूर कर देते हैं। कभी आम के वृक्ष को देखें, पपीते के वृक्ष को देखें, उसका कच्चा फल तोडें तो वृक्ष से एक द्रव स्त्रावित होता है, यह उस वृक्ष की पीड़ा है, क्यों कि उस फल को पोषण के लिए अभी वृक्ष की आवश्यकता थी; परन्तु फल पक जाने पर फल को तोड़ने से कोई द्रव स्त्रावित नही होता है। यह प्राक्रतिक दर्शन है कि इस जगत में जो कुछ भी है उसमें हमारा कुछ भी नहीं है। भारतीय दर्शन प्राकृतिक दर्शन है, इसीलिये शाश्वत है, यह यहाँ के जीवन में रचा बसा है, इसी लिए ‘सबै भूमि गोपाल की’ और ‘तेरा तुझको अर्पण’ जैसे वाक्य जन जन के मुख पर रहते हैं; परन्तु मुख से कहना अलग बात है और उसे ह्रदयंगम करना अलग बात है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालाक प.पू. श्री.माधव सदाशिवराव गोलवलकरजी का स्मरण करते हि एक ऋषितुल्य मूर्ति हमारे अंत:चक्षु पर प्रकट होती है ! लम्बे कोमल केश तथा लम्बी दाढ़ी उनके विरागी अनुभव का रंग दर्शाती तथा उनके निम्न गौर मुखमंडल की आभा और बढाती दिखायी पड़ती है ! आँखों पर चश्मा और उसके अन्दर से झाकती शिशु जैसी निर्मल आंखे हमारे ह्दयका भाव सहज हि पढ़ले ! सफ़ेद कुर्ता और सफ़ेद धोती उन्हें लोक- परिव्राजक छबी प्रदान करती ! उनका खिलखिलाता हास्य किसी पर्वतीय जलधारा जैसी प्रसन्नता बिखेरता प्रतीत होता ! बच्चे, नवजवान तथा बुढे सभी से ऐसे मिलते मानो कोई चिरपरिचित व्यक्ति वर्षो बाद मिला हो ! उनका वह मिलना सहज,सुलभ था ! कोई विद्वत्ता का अम्बार नहीं कि संघ जैसे बड़े संगठन के प्रमुख पद का गर्व नहीं !
सन १९२५ में डॉ.हेडगेवारजी ने राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ की नागपुर में स्थापना की ! असंघटित, तथा आत्मविश्वास खोया हुवा हिन्दू समाज अपना पराक्रमी इतिहास और गरिमामयी संस्कृति को भी भूल चूका था , परिणाम बहुसंख्यक होने के बावजूद निस्तेज और निर्बल बन गया था ! पराभूत और पलायनवादी मनोवृति की काली छाया मंडरा रही थी ! हिन्दू धर्मं का गौरवमयी परचम विश्व मंच पर स्वामी विवेकानंद फहेरा चुके थे ! लेकिन समाज को संगठित करनेवाले किसी यंत्र की आवश्यकता थी ! डॉ.हेडगेवारजी ने ‘संघ शाखा ‘ नमक ऐसे अद्भुत यंत्र का निर्माण कर लिया था ! नित्य शाखा नित्य काम का पथ और भारतमाता को पुनह परमवैभव तक ले जाने का संकल्प यह लक्ष्य लिए संघ चल पड़ा था ! डॉ.जी नेअपने अनथक परिश्रम , प्रखर धेयनिष्ठा और प्रचंड उर्जा से केवल पंधरा सालोमें हि संघ को एक लघु अखिल भारतीय स्वरूप दे दिया था !‘श्रीगुरूजी’ १९३३-३४ से डॉ.जी के संपर्क में आये और संघमय हो गये! १९३७ में सारगाछई में स्वामी अखंडानंद जी द्वारा दीक्षा प्राप्त की लेकिन स्वामी अखंडानंदजी ने उन्हें हिमालय नहीं किन्तु समाजसिन्धु की और जाने का निर्देष दिया ! डॉ जी के पश्चात उनकी हि इच्छानुसार संघ का दायित्व ‘श्रीगुरूजी’ पर सोपा गया ! उस समय हुआ उनका भाषण विलक्षण था , उपस्थित संघप्रेमी जनता तथा स्वयंसेवको को उन्होंने कहा “ डॉक्टर महान द्रष्टा थे , त्यागी और परिश्रमी थे ! उनका जीवन याने , माँ की करुणा,पिता का कर्त्तव्यबोध तथा शिक्षक जैसी कौशल्य मंग्नता का अनुपम उदहारण है ! उनको याद करना है तो ‘ शिवो भूत्वा शिवम् यजेत‘ अर्थात शिव बनकेही भगवान शिव का पुजन करना चाहीये !”
‘श्रीगुरूजी’ का जीवन इसी आदर्शतत्व का मूर्तिमंत उदहारण था ! सरसंघचालक बनने के बाद अखंड ३३ वर्ष उन्होंने परिव्राजक बनकर भारतवर्ष की परिक्रमा की ! हजारो लोगोंसे उनका व्यक्तिगत सम्बन्ध था वैसाही उनका पत्र व्यवहार विलक्षण था ! संघकार्य कीवृध्ही यह एकमात्र उद्देश उनके जीवन का रहा ! उनके कार्यकाल में संघस्वयंसेवको ने समाज के अन्य गतिविधियों को स्पर्श किया! विश्व हिन्दू परिषद् , विद्यार्थी परिषद् , भारतीय मजदुर संघ , वनवासी कल्याण आश्रम , विवेकानंद शीला स्मारक , तथा जनसंघ बाद में भारतीय जनता पार्टी यह उदहारण पर्याप्त है! “ न हिन्दू पतितो भवेत् “ यह उदघोषणा आगे जाकर सेवाकार्योका आधार बनी ! “ इदं राष्ट्राय , इदं नमम “यही मन्त्र का अनुसरण करने की प्रेरणा उन्होंने लाखो स्वयंसेवको को दी! आधुनिक ऋषितुल्य व्यक्तित्व को शत शत नमन … !
हम कहते तो बहुत कुछ हैं परन्तु आचरण सर्वथा विपरीत करते हैं, सामान्य रूप से देखने को मिलता है कि व्यक्ति अपने तक अथवा अपने पुत्रों तक का ही प्रबंध नहीं करता है अपितु आगे की कई पीढियों की चिंता करता है। जिस देह को हम अपनी समझते हैं, वह भी अपनी रहने वाली नही है। इसी बात को धर्मराज युधिष्ठिर ने बहुत ही सुंदर शब्दों में व्यक्त किया था कि ‘ हर व्यक्ति जानता है कि एक दिन उसका अंत होगा परन्तु आचरण ऐसा करता है जैसे वही अमर रहेगा’हम सभी के मन में कहीं न कहीं से बीते कुछ दिनों से चल रहा कि आखिर देश के अगले राष्ट्रपति श्री आडवाणी जी क्यों नहीं? आप सभी को ज्ञातव्य है कि इसी बीजेपी ने जिसको खड़ा करने में आडवाणी जी का एक प्रमुख योगदान है। आडवाणी जी को कई मौके मिले। याद होगा कि बीजेपी ने 2004 का चुनाव और 2009 का चुनाव का आगाज़ भी आडवाणी जी को आगे रख कर किया था पर अभियान फुस्स हो गया। बीजेपी सत्ता से दूर खड़ी थी। आडवाणी जी की स्वीकार्यता आम जान मानस में व्यापक रूप से नहीं बन सकी। यह बीजेपी है और इसका मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है जहाँ कार्यकर्ता या स्वयंसेवक बना नहीं जाता अपितु गढ़ा जाता है और उस साँचे या कसौटी में जो शत प्रतिशत खरा बना कर निकालता है। जिस संगठन का धेय्य ही “हम करें राष्ट्र आराधन” के सूत्र व्याक्य पर हो उस संगठन में पद का कोई महत्व ही नहीं है अपितु समय समय पर अपने कार्यकर्ताओं को संघ राष्ट्र होम में स्वाहा करने के लिए तत्पर करता रहता है। दायित्व पर चेहरे समय समय पर बदल बदल जाते हैं शायद यही कारण है कि संघ आज युवा और तरुणाई से भरा नज़र आता है जो बना तो बहुत पहले पर आज भी बूढ़ा नहीं हुआ। यहाँ यह जरूरी नहीं कि राष्ट्रपति आडवाणी जी ही बनते। संगठन की जो रीति नीति है उसमे आप आज सब कुछ हैं पर कल ऐसा भी हो सकता है कि आप कुछ न हों यही तो राष्ट्र होम है। यहाँ मुख्य मंत्री स्वर्गीय राम प्रकाश गुप्ता भी बन सकते हैं।मुझे लगता है कि यूपी के मुख्यमंत्री पूज्य योगी जी बनेंगे इसका अंदाज़ा शायद ही किसी को हो। यह कांग्रेस नहीं जहाँ एक परिवार सब पर भारी हो जाता है।यह केवल बीजेपी में ही संभव है। और शायद पूज्य हेडगेवार जी ने जिस संघ की स्थापना की थी। और आज जिनकी पुण्य तिथि है। उनके ही बनाये रीति नीति से प्रेरित होकर ही यह पार्टी आज आगे बढ़ रही है। हम व्यक्ति की पूजा भले ही करें। पर यह संगठन या पार्टी कहीं से भी व्यक्तिवादी नहीं। और अगर किसी को कोई भूल हो तो उसका कुछ नहीं किया जा सकता। फिलहाल राजनीति में संवेदना सहानभूति का कोई स्थान नहीं।
वस्त्रों की क्या आवश्यकताहै? उनका स्पष्ट कथन था कि सुविधाओं का क्रम निम्न सोपान पर ख‹डे लोगों के साथ शुरू होना चाहिए और आदर्शों की जीने का दायित्व ऊपर के लोगों से शुरू होना चाहिए। अपने इस कथन को उन्होंने अपने ऊपर पूरी कठोरता से लागू किया। उन्होंने भावात्म राष्ट्रीयता पर बल दिया, एकात्मता की बातें कही, राष्ट्रीय चरित्र की आवश्यकता बतायी। राजनीति की मर्यादाओं का उल्लेख करते हुए सांस्कृतिक अधिष्ठान पर समाज के संगठन का संदेश दिया। उनका कहना था कि हम सब समाज के अंग हैं और एक ही चैतन्य हम सब में विद्यामान है और इस चैतन्य भाव से हम सब समान होने के कारण परस्पर पूरक हैं। एक-दूसरे के साथ एकरस हैं। वह अस्पृस्यता के घोर विरोधी थे और इसे क्षुद्रभाव और मानसिक विकृति का प्रतीक मानते थे। अस्पृस्यता का विरोध उन्होंने मात्र भाषणों में ही नहीं, इसे उन्होंने अपने जीवन में भी एकाकार किया था। एकबार वह बिहार में वंचितों की एक बस्ती में गए। चाय -पान कर जब लौटने लगे तो उनके साथ के अन्य लोगों को उल्टियाँ होने लगी। पर गुरूजी सामान्य ही बने रहे। गुरूजी ने कहा कि आप लोगों का ध्यान बस्ती की गंदपी पर रहा और आप लोगों ने वहां की गंदपी पी डाली, पर मैंने उनका प्यार और स्नेह पी डाला, उसी से मुझे अमृत तुल्य पोषण प्राप्त होता है। फिर तो ऐसे स्नेह से उल्टी तो दूर मिचली, तक आने की कोई संभावना नहीं रहती। एकबूार शाजापुर के शिविर में स्वामी सत्यमित्रांनद जी भी मौजूद थे। भोजन परोसते वक्त उनसे कहा गया कि वह तो ब्राह्मण के पार्शव में ही बिराजेंगे। तब उन्होंने श्री गुरूजी से कहा कि आप कहां बैठेंगे? श्री गुरूजी बोले- मैं तो जाति पूछता ही नहीं हूँ, मैं तो मानव के बगल में बैठूंगा। इस पर सत्यमित्रानंद जी ने कहा कि मैं भी आपके पथ का अनुुसरण करूंगा। वामनराव वाडेगावकर गुरूजी के मित्र थे, वह अंधे थे। १९३४-३५ में उन्हें एक ब‹डी शल्य क्रिया से गुजरना था। संदेश मिलते ही गुरूजी उनकी सेवा के लिए मुम्बई आ गए। वामनराव ने लिखा है गुरूजी उनकी परिचर्या ब‹डे स्नेह एवं कोमलता के साथ करते, इतना ही नहीं, पेशाब और शौच में भी मदद करते। कुछ कहने पर जवाब देते क्या मैं अपने शरीर की सफाई नहीं करता। आपको और मेरे शरीर में क्या अंतर है? इस तरह से वह मानव-मात्र से भी तादाम्य कर चुके थे। श्री गुरूजी ने अस्पृस्यता मिटाने और सामाजिक समरसता लाने के लिए ही सभी धमार्चायों को एक मंच पर बैठकर विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना कराई। १९६६ के प्रयास अधिवेशन में जहाँ न हिन्दू पतितो भवेत यानी कोई हिन्दू पतित नहीं हैं। ऐसी घोषणा धर्माचार्यों से करायी। वहीं १९६९ के उड्पी सम्मेलन में संतों और धमार्चार्यों के मुख से qहदवा सोदरा सर्वे यानी सभी हिन्दू भाई है। यह मंत्र फूंका। एकबार एक साधु ने श्री गुरूजी से कहा कि असम में जो वनवासी रहते हैं, वे तो गौमांस खाते हैं, उनको हम हिन्दू कैसे कह सकते हैं? श्री गुरूजी ने इस पर कहा कि क्या वे लोग शौक से गौमांस खाते हैं? उनको कुछ दूसरा खाने को मिलता नहीं, हम लोगों ने क्या उनकी भोजन व्यवस्था के लिए कुछ किया? हम उनको कोई सिक्षा -दीक्षा एवं संस्कार देने नहीं गए, इसलिए यह उनका नहीं, हमारा पाप है। वह समन्वय के सुमेरू थे । सिख,जैन,बौद्ध, आर्य समाज रामकृष्ण मिशन के संबंध में उनका मत था कि समय-समय में अपने समाज में आई कमी को दूर करने के लिए ऐसे पंथों का उद्य हुआ । उनकी द्दष्टि और सोच इतनी व्यापक थी कि उन्होंने पंजाब में गैर केशधारी बन्धुओं को भी अपनी मातृभाषा पंजाबी लिखने को कहा था ताकि हिन्दू समाज समरस हो सके।
उनका मानना था कि-यह भूमि जो अनंतकाल से पावन भारत माता है, जिसका नाम मात्र हमारे ह्रदयों को शुद्ध सात्विक भक्ति की लहरों से अपूर्ण कर देता है। अहो यही तो हम सबकी माँ है, हमारी तेजस्विनी मातृभूमि। उनके अनुसार भारत भूमि को माता के रूप में देखने के कारण हम वंदे मातरम कहते हैं। इसलिए जो वंदे मातरम का विरोध करते हैं वह राष्ट्रीय कदापि नही ंहो सकता। यही बात भारत माता के जय के सन्दर्भ में भी लागू होती है। जो लोग राष्ट का एक ज‹ड भू-खण्ड मात्र मानते हैं, उनके बारे में श्री गुरूजी का कहना था कि फिर किसी के माता का शरीर भी उतना भौतिक है, फिर उसके प्रति भक्तिभाव क्यो? निस्संदेह इससे उन प्रशनों का उत्तर मिल जाता है, जो ह्वावंदे मातरम और भारत माता की जय बोलने के संबंध में ख‹डे किए जाते हैं।
तन समर्पित मन समर्पित और यह जीवन समर्पित, चाहता हूँ ये देश की मिटटी तुझे कुछ और भी दूं।

धनंजय गिरि

 

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