एक बार की बात है। गौत्तम बुद्ध अपने कुछ शिष्यों के साथ किसी शहर में प्रवास कर रहे थे। जब उनके शिष्य शहर घूमन निकले तो लोगों ने उन्हें बहुत बुरा भला कहा। वे क्रोध में भरकर बुद्ध के पास लौटे। बुद्ध ने पूछा क्या बात है, आप सब तनाव में क्यों हैं? उनका एक शिष्य बोला हमें यहां से तुरंत प्रस्थान कर देना चाहिए। क्योंकि वहां रहना उचित नहीं है, जहां हमारा आदर न हो। यहां तो लोग दुव्र्यवहार के सिवा कुछ जानते ही नहीं। इस पर बुद्ध मुस्कुराकर बोले क्या किसी जगह पर तुम सदव्यवहार की अपेक्षा करते हो? दूसरा शिष्य बोला कम से कम यहां से तो भले लोग ही होंगे। बुद्ध बोले किसी स्थान को केवल इसलिए छोडऩा गलत है कि वहां के लोग दुव्र्यवहार करते हैं। हम तो संत हैं। हमें ऐसा करना चाहिए कि उस स्थान को तब तक न छोड़ें जब तक वहां के हर व्यक्ति के व्यवहार को सुधार न डालें। वे हमारे अच्छा व्यवहार करने पर सौ बार दुव्र्यवहार करेंगे लेकिन कब तक? आखिर उन्हें सुधरना ही होगा और उत्तम प्राणी बनने का प्रयास करना ही होगा। संभवत: संतों का वास्तविक कर्म तो ऐसे ही लोगों को सुधारने का है। असली चुनौती तो विपरित परिस्थितियों में स्वयं को साबित करना ही होती है।
प्रस्तुति कमलेश भारतीय