कहानी: बरसात
कथाकार: रंजना झा
होगा वसंत ऋतुराज लेकिन विरह, अभिसार और कजरी तो बरसात में ही संभव है। वसंत अगर ऋतुराज है तो बरसात मधुमास। इसका अर्थ यह भी नही की बरसात में सबकुछ मधुर-मधुर है। सुख और दुःख तो जीवन के दो चक्र हैं। जब हम अपने जीवन के व्यक्तिगत इतिहास में देखते हैं तो लगता है कहाँ चुक गये, कहाँ तीर मार दी। एक से अनेक, व्यक्ति से समिष्ट का निर्माण होता है। जीवन की छोटी-छोटी घटनाये हमें बहुत कुछ सिखा देती हैं। खट्टे-मीठे अनुभव। जीवन को जीवन से समझना। कुछ खुद के लिये ग्रहण करना, कुछ पाठकों के लिये और अंशमात्र ही सही बाकी आनेवाली पीढ़ी के लिये।
चलिये अपने जीवन को झाँकती हूँ। स्मृति के उस क्षण को स्मरण करती हूँ जब नन्ही थी। निश्छल थी। तब बारिश का स्वरुप कैसा था? प्रश्न का उत्तर तो देना होगा। जब मैं बहुत छोटी थी तो तबक़ी की बारिश आजकी बारिश से बहुत अगल हुआ करती थी। सच बोलूँ? “घनघोर” शब्द का हमारे बचपन के बारिश में ज्यादा दम था। वो मूसलाधार बारिश जब हुआ करती थी तो पूरा आँगन, हाता, पानी से लबालब भर जाता था। नदी, नाले उफनती हुई अलग दिशा बना लिया करती थी। अन्धर, बबंडर, पानी का झोंका, बिजली का फटना, कभी-कभी इतना प्रलयंकर हो जाता था की मत पूछिये। न जाने कितने पेड़, पौधे अपने साथ बहा ले जाया करती थी। हमलोग इतनी बारिश में भी बाहर क्यारी का मेंढ जो बह जाया करता था फिर से बनाने की कोशिश करने लगते थे और वह फिर बह जाया करती थी। माली हमलोगों को आवाज देकर कहता: “अरे बबुआ! बारिश में बीमार हो जाओगी! घर चली जाओ।” उसके कहने में प्रेम था, भावनात्मक लगाव था। मै उनके लिये उनकी बेटी थी, साहब की बेटी नहीं। अब कहाँ मिलता है ऐसा लगाव! कहाँ जा रहे हैं हम?
इधर हमलोग नन्हे नटखट बच्चे। कौन ध्यान देता उनकी ओर! कोई भी नही। हमलोग माली काका की एक भी न सुनते और फिर से मेढ़ को बनाने की कोशिश करने लगते थे। वह मेढ़ फिर तेज बहती हुई पानी में बह जाया करती थी। पानी को रोकने की कोशिश करते लेकिन भला वह कहाँ रूकने वाली थी?
इतने में फिर माली काका की आवाज आती है “अरे कहाँ हो?” “हाँ माली काका अभी जाती हूँ।” हमरा रटा रटाया जवाब था।
और जब घर पहुचते तो माँ का ताण्डव! भावना और प्रेम में पागल माँ भाव-गर्जना के साथ फटकारने लगती – लगातार बिना किसी अविराम के।
लेकिन बचपन जो था वह मानता न था!
फिर एक दिन
एक दिन की बात है स्कूल से हमलोग घर आ रहे थे कि अचानक बादल घिर आया। काले काले बादल उमड़ घुमड़ करने लगे । बिल्कुल अँधेरा छा गया था। डर भी लग रहा था और घर भी जल्दी जाने की थी। मेरी सहेली मेरा हाथ पकड़कर बोली: “जल्दी चलो, तेज बारिश होने वाली है।”
हमलोग अपना बस्ता माथे पर रख तेज-तेज कदमों से चलने लगे। बिजली कड़क रही थी। हवा भी काफी तेज हो गयी और बारिश भी अपना रंग दिखाने लग गयी। झमाझम बारिश होने लगी। सामने कुछ दिखाई भी नहीं पड़ रहा था। तेज हवा के कारण बड़े -बड़े वृक्ष की डलिया भी इतनी झुकी जा रही थी कि मानों धरती को वंदन कर रही हो! तभी सामने एक चनाचूर वाला दिखाई दिया। यह वही चनाचूर वाला था जो हमलोगों के स्कूल के सामने अपनी दुकान लगाता था जब छुट्टी होती थी तो हमलोग चार आना आठ आना का खरीद लिया करते थे।
वह भी उसी बारिश में भींगता घर जा रहा था वह अपने चने को पन्नी से बहुत अच्छी तरह लपेट रखा था ताकि वह भींग न जाए ! अपनी परवाह कम थी और चने की ज्यादा। बस, चना किसी तरह बच जाए!
तेज बारिश की वजह से रास्ता भी साफ नहीं दिख रहा था मैं और मेरी सहेली बारिश में भींगतें किसी तरह आगे बढ़ रहे थे। मन में डर भी अपने साथ लेकर चलना सिखा रही थी ।
उस समय मन में अनेक प्रकार के विचार उमड़- घूमड़ कर रहे थे—- बड़े बड़े कवियों की कविता को याद कर बढ़ रही थी “वीर तुम बढ़े चलो/ रूको न शूर साहसी” इत्यादि अनेक साहसभरी कविताओं को याद कर आगे बढ़ने लगी। प्रेरणा भरी कविताएँ मस्तिष्क में घूमने लगी। सच कहूँ तो एक ताकत मिल रही थी। कविता वाकई प्रेरणा श्रोत होती है। हमलोगों के लिए वह पल भी किसी वीर सिपाही से कम न थी।
पूरा शरीर भींग गया था। मै भी पूरी तरह गीली हो गयी थी। जूते में भी पानी भर आया। चर्र-चर्र की आवाज आने लगी तो मैनें जूते को हाथ में ले लिया। हमलोग थोड़ी दूर निकले ही थे कि वह चनाचूर वाला आगे जाकर किसी गढ्ढे में गिर गया। तेज हवा के कारण चनाचूर में लपेटी हुई पन्नी उड़ गयी उसका सारा चनाचूर बर्बाद हो गया।
चनाचूर वाला जिसका सपना ही था चना बेच कर परिवार का भरण पोषण करना एक बारिश ने उसके सपने को चूर चूर कर दिया। वह काफी दुखी हो गया और उस बारिश को कोशता जा रहा था।
हमलोग मूक होकर देख रहे थे लेकिन हमलोग मदद नहीं कर पाये क्योंकि नंगे पाँव होने की वजह से दौड़ भीं नहीं पा रहे थे। मेरी सहेली कृष्णा भीं अब जूते को हाथ में ले ली! अब वह भी भी चर्र -चर्र वाली आवाज और जूते में पानी घुस जाने की वजह से वह भी चलने में असमर्थ हो रही थी।
रास्ते में मास्टर साहब का घर आया। उनके घर के सामने बारिश का पानी कमर तक आ गया था। हमलोगों को क्या सूझी कि मास्टर साहब के हाते का गेट खोल कर हमलोग पानी में छप छप खेलने लगे। समय का ध्यान ही न रहा कि घर भी पहुँचना है। पीछे से मास्टर साहब भी आ गए। अब हमलोगों की हालत खराब हो गयी। उनको देखते ही हमलोग भागने लगे । भागने के क्रम में पाँव भी लड़खड़ा गया और गिर भी गयी। पीछे से मास्टर साहब ने आवाज दी लेकिन हमलोग मास्टर साहब के डर से भागते जा रहे थे। हमलोग पीछे मुड़कर देखा ही नहीं और काफी आगे निकल गए । बारिश अब धीरे धीरे कम होने लगी थी।
अब घर पहुँचने ही वाले थे कि दूर से मेरे घर के सामने कुछ लोग खड़े दिख रहे थे। उत्सुकता वश अपनी कदम को तेजी से बढ़ाते हुए घर की तरफ जाने लगी वहाँ जाकर देखा तो वह माली काका जो हमें आवाज देकर मेरी सुरक्षा की चिंता किया करते थे आज उसी माली काका पर बारिश ने जुल्म ढा दिए उनके ऊपर एक बड़ा वृक्ष गिर गया जिससे उनकी जान चली। प्रकृति ने भी कैसे कैसे रूप दिखाए । इस समय प्रकृति की सुंदरता को निखारूँ या प्रकृति की विपदा को जंजाल बना उसे कोसो दूर तक ऐसी विपत्ति की वितृष्णा करूँ कि जिस माली काका ने सारी जिन्दगी प्रकृति की सुन्दरता को काँट छाँट कर इसी धरती पर उसकी काया कल्प को एक आयाम दिया आज वही प्रकृति ने माली काका की जान ले ली! इसे प्रकृती की विडम्बना ही कहेगें!
मैं माली काका को एक टक देखी जा रही थी। मुझे महसूस हो रहा था उनका मृत शरीर बार बार आवाज दे रहा हो: “अरे बबुआ! आ गयी स्कूल से इतनी बारिश में कहाँ थी? घर में सभी परेशान थे। देखो माँ बाबुजी कितने चिन्तित हैं? तुम्हारे लिए गरम- गरम भुट्टा तोड़ कर पकायें हैं। खा लो बबुआ” मेरे दोनों आँखो से झर झर आँसू बहने लगते हैं। मैं एक टक माली काका को देखी जा रही थी। हाथ पाँव शून्य हो गए••••
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रंजना झा
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गाजियाबाद उत्तर प्रदेश