साथ साथ

सरल और सहज शब्दों में उद्धरित जीवन की कशमकश।।

– अंजना झा

 

साथ साथ

आम जन नहीं है परेशान
मन्दिर और मस्जिद से

कब सोच में आती उसे
राम लला की जन्मभूमि
और कब याद आता
बाबरी का मस्जिद ।।
उसकी सोच में तो है
मंहगाई का अस्तित्व ।।
पत्नी डूबी इस फिक्र में
क्या बने रोटी के साथ
सब्जी या फिर दाल
क्योंकि
इस भाव में नहीं दे
सकती दोनो साथ साथ ।।
पति की सोच सिमटी है
ईद और दिवाली पर
क्या दिलाउं परिवार को
उपहार के नाम पर ।।
काफी मशक्कत के बाद भी
दे नहीं सकता नये कपड़े
और
मिठाइयों के डब्बे
पूरे परिवार को साथ साथ ।।
बेटा भी तो समझ नहीं
पा रहा क्या करें
कम व्यय में कौन सी
डिग्री कर पायेगी उसका
उद्धार
मां की ईच्छा अभिलाषा
पिता के ईमानदार सपने
कैसे पूरे होंगे साथ साथ।।
अचानक मिला एक समाचार
रामलला को भूमि मिल गई
मस्जिद को भी मिला जमीन
बस इक पल थम गई सबकी
सोच
और विचार मिले साथ साथ।।
अचानक
घर की लक्ष्मी का स्वर
गुंजायमान हुआ इकबार
और कुछ नहीं कर सकते
मंदिर और मस्जिद को ही
निर्मित कर देते साथ साथ
ताकि बज उठता चहुँओर
समभाव का बिगुल और
निकलता सर्वधर्म का जुलूस
दशहरा और मुहर्रम का
परिलक्षित
होती इंसान की सोच
बिना किसी पहचान के हो
सकते हम साथ साथ।।

 

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