हिंदी की कथा-भाषा को विलक्षण ताज़ग़ी देने वाली वरिष्ठ साहित्यकार कृष्णा सोबती को दिया जाएगा वर्ष 2017 का ‘ज्ञानपीठ’ पुरस्कार
संजीव कुमार झा
साहित्य मानवीय परिवार की सांझी संपदा है। इस लोक में व्यक्ति की जीवंतता का आख्यान है। साहित्य और कलाओं के अपने-अपने अनुशासन हैं। लेकिन, इसके बावजूद उन्हें लेकर शील और अश्लील के प्रश्न और विवाद उठते रहते हैं, जिन्हें साहित्यिक बिरादरी कभी उचित नहीं ठहराता। इस बिरादरी का हमेशा से मानना रहा है कि नैतिकता और तथाकथित पवित्रता के आग्रह मानवीय मन की उन्मुक्तता और कलात्मक स्वतंत्रता को संकीर्णता की ओर धकेल सकते हैं। इसके पीछे उनकी दलील होती है कि साहित्यिक विधाओं और धर्मगाथाओं में अंतर है। जब इन दोनों को एक कर डालने की तानाशाही प्रवृत्ति सिर उठाती है, वहां न मात्र मानवीय सृजनशीलता छीजती है, बल्कि मूल्यों का भी हनन होता है।
भाषिक रचनात्मकता को अगर हम मात्र ‘बोल्ड’ के दृष्टिकोण से देखेंगे, तो लेखक और भाषा दोनों के साथ अन्याय करेंगे, क्योंकि भाषा लेखक के बाहर और ‘अंदर’ को एकसम करती है। उसकी अंतर दृष्टि और समाज के शोर को एक लय में गूंथती है। उसका ताना-बाना मात्र शब्द कोशी भाषा के बल पर ही नहीं होता। जब लेखक अपने कथ्य के अनुरूप उसे रूपांतरित करता है, तभी कुछ ‘नया’ घटित होता है। यही वजह है कि लेखकीय अनुशासन को मात्र भाषाई कौशल नहीं माना जाता। किसी भी लेखक का विचार विशेष, कथ्य, शैली, अनुभव और एकाग्रता उसके साधारण को असाधारण बना देती है। खासकर, स्त्री की अंतर्दृष्टि छोटी-छोटी बातों को पकड़ने की आदी है और यह तमाम गुण अपने अंदर समेटे हैं वरिष्ठ साहित्यकार कृष्णा सोबती, जिन्हें इस वर्ष का ‘ज्ञानपीठ’ पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। दरअसल, कृष्णा सोबती अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुथरी रचनात्मकता के लिए जानी जाती हैं, क्योंकि उन्होंने हिंदी की कथा-भाषा को विलक्षण ताज़ग़ी दी है। उनके भाषा संस्कार के घनत्व, जीवंत प्रांजलता और संप्रेषण ने हमारे वक्त के कई पेचीदा सत्य उजागर किए हैं। कृष्णा सोबती महज एक नाम नहीं, बल्कि एक पहचान है, जिन्होंने अपने अनेकों उपन्यासों, कहानियों और सोच के माध्यम से हिंदी कथा साहित्य को पिछले 50 वर्षों में नए आयाम दिए हैं। उनका मानना है कि धर्मग्रंथ और साहित्यिक रचनाओं में अंतर होता है और दोनों को एक करके नहीं देखना चाहिए। साथ ही उनका यह भी कहना है कि साहित्य और कला के अपने-अपने अनुशासन होते हैं और उनके लिए श्लील-अश्लील के सवाल नहीं उठाने चाहिए। कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी, 1925 को गुजरात (अब पाकिस्तान)) में हुआ था।
कृष्णा सोबती ने पचास के दशक से ही अपना लेखन कार्य प्रारंभ कर दिया था। इनकी पहली कहानी ‘लामा’ थी, जो 1950 ई. में प्रकाशित हुई थी। ऐसे में कहा जा सकता है कि कृष्णा सोबती ने इतिहास को जिया है। उन्होंने देश के विभाजन का दर्द सहा है। देश को आजाद होते हुए देखा है और राष्ट्र का संविधान बनते हुए भी। वे तीन पीढ़ियों की गवाह हैं और यह विराट अनुभव उनके हर उपन्यास और कहानियों में झलकता है। बता दें कि कृष्णा सोबती ने शुरुआत में अपने को लघु कथा लेखिका के रूप में स्थापित किया और उनकी ‘लामा’, ‘नफीसा’ आदि कहानियां बहुत चर्चित हुईं। विभाजन पर उनकी कहानी ‘सिक्का बदल गया’ ने उन्हें प्रोफेशनल लेखिका बना दिया और उन्होंने उपन्यास के क्षेत्र में प्रवेश करने का निर्णय लिया। फलस्वरूप 1952 में उन्होंने अपने पहले उपन्यास ‘चन्ना’ की पांडुलिपि इलाहाबाद की लीडर प्रेस को भेजी, जिसने उसे प्रकाशन के लिए स्वीकार कर लिया। लेकिन, जब उसका प्रूफ आया, तो पंजाबी व उर्दू के शब्दों को बदलकर संस्कृत शब्दों का प्रयोग कर दिया गया था। कृष्णा सोबती ने अपनी पुस्तक को प्रकाशन से वापस ले लिया और जो प्रकाशित कॉपियां नष्ट करवा दी गईं, जिसका पैसा इन्होंने अपनी जेब से भरा। बाद में भारी फेरबदल के बाद ‘चन्ना’ को 1979 में ‘जिंदगीनामा : जिंदा रुख’ के नाम से राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया और कृष्णा सोबती को इसके लिए 1980 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। इस तरह वह यह पुरस्कार पाने वाली हिंदी की पहली महिला लेखिका बनीं। यह उपन्यास 1900 के पंजाब के ग्रामीण जीवन पर आधारित है और उस समय के राजनीतिक व सामाजिक मुद्दों को संबोधित करता है। बहरहाल, इससे पहले 1966 में कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ आया था, जिसने उन्हें एक गंभीर उपन्यासकार के रूप में स्थापित कर दिया था। साथ ही उनकी शैली के बारे में यह भी सर्वविदित हो गया था कि उनके चरित्र जिस पृष्ठभूमि के होते हैं, उसी की बोली व मुहावरे का वह प्रयोग करती हैं।
इसके लिए आलोचकों ने उनकी बहुत तारीफें की हैं। ‘मित्रो मरजानी’ तीन भाइयों के संयुक्त परिवार में ब्याही गई एक महिला की कहानी है, जो अपनी सेक्सुअलिटी को व्यक्त करने में कोई शर्म महसूस नहीं करती है और अपनी यौन इच्छाओं के पूरे न होने पर अपने पति को डांटती है। वह गालियां बकती है और अक्सर न्याय व नैतिकता से संबंधित पारिवारिक मुद्दों पर स्टैंड लेती है। हालांकि, इस उपन्यास को शुरू में प्रकाशकों ने ठुकरा दिया था, लेकिन एक बार जब यह प्रकाशित हुआ, तो इसने हिंदी संसार को स्तब्ध कर दिया था। इसी तरह ‘ए लड़की’ (1991) में जीवन, मृत्यु, महिला जीवन में प्रेम व विवाह का स्थान जैसे विषयों पर एक मर रही बीमार बूढ़ी महिला व उसकी लड़की के बीच संवाद है। ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ फिक्शनल आत्मकथा है और ‘दिलो दानिश’ उनका नवीनतम उपन्यास है, जिसमें उन्होंने दिल्ली के जीवन व उसकी भाषा को व्यक्त किया है। कृष्णा सोबती ने 1960 के दशक में ‘हशमत’ के उपनाम से साथी लेखकों जैसे भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, नामवर सिंह आदि के खाके लिखने शुरू किए, जो 1977 में ‘हम हशमत’ के नाम से किताबी रूप में प्रकाशित हुए। अपने उपनाम के बारे में कृष्णा सोबती कहती हैं, ‘हम दोनों की अलग पहचान है। मैं छुपाती हूं, वह जाहिर करता है। मैं प्राचीन हूं, वह नया और ताजा है। हम दोनों विपरीत दिशाओं से काम करते हैं।’ तीन पीढ़ियों की गवाह कृष्णा सोबती कहती हैं कि भाषा, लिपि, वाचन, संस्कृति और संस्कार एक-दूसरे से गहरे जुड़े होते हैं। ये मात्र जाति-संप्रदाय और धर्म से परिभाषित नहीं हो सकते। भारतीय मानस अपनी राष्ट्रीय विविधता से गहरे तक जुड़ा है, जिसे हमारा साहित्य प्रतिबिंबित करता है। आजादी से पहले के लेखन में गुलामी से मुक्ति पर जोर रहता था। आजादी के बाद जनमानस नई ऊर्जा से ओत-प्रोत था। सभी भारतीय भाषाओं की रचनाओं में यह भाव तरंगित होने लगा था। लेखक समाज नए विचारों के प्रति जागरूक हुआ। विभिन्न विचारधाराओं के पक्ष-विपक्ष में वे अपनी बात कहने लगे। आज हमारा साहित्य समाज की टकराहटों को प्रतिबिंबित करने लगा है। भारतीय संयुक्त परिवार एक बड़े बदलाव की चपेट में है। यह हमारे देह की भाषा, भाव-भंगिमा और सोच की मुद्रा से जुड़ी पारिवारिक शब्दावली को एक नया रूप और ढंग दे रहा है। यही बदलाव आज की कहानियों में भी दिखता है। साहित्यकारों का कथ्य ही उनकी रचनात्मकता और ऊर्जा का स्रोत होता है। लेखक से भी महत्वपूर्ण
है उसकी किसी भी रचना का कथ्य। लेखक की अंतर्दृष्टि से समेटा हुआ कथानक ही अर्थ को कथ्य में गूंथता है। उसे विशेष पहचान देता है। अभ्यास कहें या परिश्रम, वह लेखक की भावनाओं को सजगता से उभारता है, निखारता है। अपनी सीमाओं और क्षमताओं के साथ लेखक अपनी कृति को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और, कृष्णा सोबती की कहानियों को लेकर काफ़ी विवाद भी हुआ और इस विवाद के केंद्र में रहा है इनकी कहानियों की मांसलता है। स्त्री होकर ऐसा साहसी लेखन करना ज्यादातर लेखिकाओं के लिए संभव नहीं है। लेकिन, आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि महिला होने के बावजूद कृष्णा सोबती खुद को ‘महिला लेखिका’ कहलवाना पसंद नहीं करती हैं, क्योंकि वह सिर्फ ‘लेखक’ हैं, जिनका लिंग स्त्री है, और जो अपनी पुस्तक ‘जिंदगीनामा’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार तो स्वीकार कर लेती हैं, लेकिन पद्म भूषण (2010) लेने से इंकार कर देती हैं, क्योंकि वह सरकार के निकट नहीं रहना चाहतीं। वह अपनी स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं करना चाहतीं। समाज में बढ़ती असहिष्णुता का विरोध करने के लिए पिछले दिनों उन्होंने अपना साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी लौटा दिया। एक लेखक के लिए कृष्णा सोबती के अनुसार, अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना सबसे महत्वपूर्ण है। यह विरोधाभास उनके जीवन में भी देखने को मिलता है और लेखन में भी। लंबे समय तक वह अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बनाए रखती हैं और फिर 70 बसंत देखने के बाद डोगरी लेखक शिवनाथ से विवाह कर लेती हैं। यह विरोधाभास संभवत: उन्हें विरासत में मिला है, क्योंकि उनकी मां दुर्गा ‘दबंग’ महिला थीं और शानदार घुड़सवार भी। सबसे खूंखार जंगली घोड़े को भी वह साध लेती थीं। लेकिन शादी के बाद जो पुस्तकें वह अपने साथ लेकर आईं, उनमें ‘सुहागरात’ व ‘रमणी रहस्य’ शामिल थीं, जो महिलाओं के लिए संभोग कला से संबंधित किताबें हैं। इस बारे में कृष्णा सोबती कहती हैं, ‘भारतीय साहित्य में अर्धनारीश्वर का एक शानदार कॉन्सेप्ट है, जो दोनों पुरुष भी है और महिला भी। मेरी कला में इसी को जाहिर किया गया है।’दरअसल, ‘बादलों के घेरे’, ‘डार से बिछुड़ी’, ‘तीन पहाड़’ एवं ‘मित्रो मरजानी’ कहानी संग्रहों में कृष्णा सोबती ने नारी को अश्लीलता की कुंठित राष्ट्र को अभिभूत कर सकने में सक्षम अपसंस्कृति के बल-संबल के साथ ऐसा उभारा है कि साधारण पाठक हतप्रभ तक हो सकता है। ‘सिक्का बदल गया’, ‘बदली बरस गई’ जैसी कहानियां भी तेज़ी-तुर्शी में पीछे नहीं। उनकी हिम्मत की दाद देने वालों में अंग्रेज़ी की अश्लीलता के स्पर्श से उत्तेजित सामान्यजन पत्रकारिता एवं मांसलता से प्रतप्त त्वरित लेखन के आचार्य खुशवंत सिंह तक ने सराहा है। नामवर सिंह ने कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘डार से बिछुड़ी’ और ‘मित्रो मरजानी’ का उल्लेख मात्र किया है और सोबती को उन उपन्यासकारों की पंक्ति में गिनाया है, जिनकी रचनाओं में कहीं वैयक्तिक, तो कहीं पारिवारिक-सामाजिक विषमताओं का प्रखर विरोध मिलता है। डॉ. रामप्रसाद मिश्र ने कृष्णा सोबती की चर्चा करते हुए दो टूक शब्दों में लिखा है, उनके ‘ज़िंदगीनामा’ जैसे उपन्यास और ‘मित्रो मरजानी’ जैसे कहानी संग्रहों में मांसलता को भारी उभार दिया गया है। केशव प्रसाद मिश्र जैसे आधे-अधूरे सेक्सी कहानीकार भी कोसों पीछे छूट गए। बात यह है कि साधारण शरीर की ‘अकेली’ कृष्णा सोबती हों या नाम निहाल दुकेली मन्नू भंडारी या प्राय: वैसे ही कमलेश्वर अपने से अपने कृतित्व को बचा नहीं पाए। कृष्णा सोबती की जीवनगत यौनकुंठा उनके पात्रों पर छाई रहती है। लेकिन, इन सबके बावजूद ऐसे समीक्षकों की भी कमी नहीं है, जिन्होंने ‘ज़िंदगीनामा’ की पर्याप्त प्रशंसा की है। डॉ. देवराज उपाध्याय की मानें, तो यदि किसी को पंजाब प्रदेश की संस्कृति, रहन-सहन, चाल-ढाल, रीति-रिवाज की जानकारी प्राप्त करनी हो, इतिहास की बात जाननी हो, वहां की दंत कथाओं, प्रचलित लोकोक्तियों तथा 18वीं, 19वीं शताब्दी की प्रवृत्तियों से अवगत होने की इच्छा हो, तो ‘ज़िंदगीनामा’ से अन्यत्र जाने की ज़रूरत नहीं।
कृष्णा सोबती की प्रमुख कृतियां
उपन्यासडार से बिछुड़ीयारों के यारतीन पहाड़मित्रो मरजानीसूरजमुखी अंधेरे केज़िंदगीनामादिलो-दानिशसमय सरगम कहानीबादलों के घेरेमेरी मां कहांदादी अम्मासिक़्क़ा बदल गयाविवाद
कृष्णा सोबती को मिले पुरस्कार व सम्मान
1999 – कथा चूड़ामणि पुरस्कार1981 – साहित्य शिरोमणि पुरस्कार1982 – हिंदी अकादमी अवॉर्ड2000-2001 – शलाका सम्मान1980 – साहित्य अकादेमी पुरस्कार1996 – साहित्य अकादेमी फ़ेलोशिपइसके अतिरिक्त इन्हें ‘मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार’ भी प्राप्त हो चुका है।