कमलेश भारतीय
दरबार में सन्नाटा इतना था कि सुई गिरा कर भी जाना जा सकता था कि द्वारपाल से लेकर महाराज तक सभी मौन संगीत के आनंद में हिलोरे ले रहे थे । दूर देश से आए संगीतज्ञ ने सबको अपने संगीत के वश में कर लिया था ।
एकाएक…
संगीतज्ञ के हाथ रूक । नेत्र खुल गये … फैल गये । सभी के आश्चर्य की सीमा न रही… जैसे सब नीद में थे और उन्हें बलपूर्वक जगा दिया गया हो …। अनिच्छा से जागने वालों की तरह ही उनकी आंखों में भी क्रोध उतर आया था ।
– यह उपद्रव जिसने भी किया हो , सामने आए ।
महाराज भूखे सिंह के समान गरजे । उनकी आवाज दरबार के मखमली गद्दों, रेशमी पर्दों से टकराने के बावजूद और भी खतरनाक होकर लौटी ।
हाथों में छेनी और हथोडा लिए शिल्पी ने प्रवेश किया। देश भर का शिल्पी था वह ।
– मैं हूं महाराज ।
धीमे से उसने बताया, मस्तक उठाए हुए ।
– जो उपद्रव अभी हुआ था उसमें तुम्हारा भी कोई हाथ है ?
– मैं नहीं , मेरे हथोडे छेनी की आवाज थी , महाराज ।
– तुम कुछ देर रूक नहीं सकते थे ?
– इतना समय कहां शेष रहा प्रभु ?
– मूर्ख यही समय मिला रंग में भंग डालने का ?
– रंग में भंग नहीं , राजन् । एक संगीत के सामने एक और संगीत सुनाने का । कल्पना के सामने सत्यता लाने का ।
– कैसा संगीत ? इस शोर को , हथोडे छेनी की आवाज को तुम संगीत कहते हो ? तुम शिल्पी हो , संगीतज्ञ नहीं । समझे ।
– राजन् , गलत समझे हैं आप । हथोडे छेनी का भी एक संगीत होता हैं । कभी आपने इस संगीत को सुना हो तब न । इस संगीत की साधना सिर्फ उंगलियों की थिरकन से ही नहीं की जाती बल्कि पूरी देह को मिट्टी में मिलाकर , मिट्टी बन कर की जाती है । तब कहीं जाकर …
– चुप रह मूर्ख । अपने उपदेश अपने पास रख और मरने के लिए तैयार होता जा ।
– स्वामी, यदि मेरे प्राणों से श्रम संगीत को प्रतिष्ठा मिल सके तो प्रस्तुत हूं ,,,
शिल्पी ने सिर झुका दिया । दो कदम आगे आ गया । सिपाही उसकी गर्दन काट सकें , उनसे पहले ही हथोडे छेनी वाले शिल्पी के हाथ असंख्य हाथों में बदल गये । मखमली दरबार को तोडने वाला संगीत गूंजने लगा ।
आपने नहीं सुना ?