लालू चूक गए मंडेला ,मार्टिनलूथर किंग और अम्बेडकर बनने से

लालू की राजनीति की कोई काट नहीं। लालू जैसे नेता का फिर से बिहार में पदार्पण शायद ही संभव हो। लालू की भदेस और गवई शैली पर शायद ही अब बिहार का बड़ा तपका नर्तन करे क्योंकि लालू प्रसाद ने खुद को ही मोह और लोभ में डालकर राजनीति में अपने योगदान पर प्रश्नचिन्ह लगाया। 1990 से लेकर 2005 की राजनीति को गौर से परखे तो तो साफ़ हो जाता है कि केंद्र में चाहे जिसकी भी सरकार रहगी हो लालू के बिना केंद्र की राजनीती संभव नहीं थी। लालू बिहार से बाहर निकल चुके थे और देश के कोने कोने में लालू पूजित हो रहे थे। मंडल से जुड़े आरक्षण का विरोध हो या फिर सवर्ण -अवर्ण की लड़ाई हो लालू बहुसंख्यक समाज के साथ चट्टान की तरह खड़े रहे ,हर हमलों का कडा प्रतिवाद किया ,हीरो की तरह राजनीति करते रहे।

अखिलेश अखिल

खांटी भदेस और ठेठ गवई अंदाज में राजनीति में अलख जगाने वाले लालू यादव दुनिया के उन महान हस्तियों की सूचि में शामिल नहीं हो पाए जिन्होंने गरीबों ,मुज्लिमो ,शोषितों ,पीड़ितों और सबको समानता की लड़ाई लड़ी और अपने आदर्श का लोहा सामंती समाज और दुनिया से मनवाया। लालू यादव की राजनीति तो उन्ही महान हस्तियों की राह पर चली थी लेकिन ठगनी राजनीति और लोभी आचरण ने लालू यादव को कहीं का नहीं छोड़ा। लाली प्रसाद मंडेला ,अम्बेडकर और मार्टिन लूथर किंग बनते बनते चूक गए। कहीं के नहीं रहे। आने वाली पीढ़ी उनकी कृतियों की बजाय उनकी कुकृतियों का सदा बखान ही करती रहेगी। यह बात और है कि लालू प्रसाद की राजनीति भले ही लोगो की दया के कारण फिर से घनीभूत हो जाए लेकिन तब भी लालू वह नहीं होंगे जो 90 के दशक में हुआ करते थे। जिन लोगों को लालू यादव ने सामंती बिहार में हर तरह की आजादी के पैरोकार बने ,दबे कुचलों ,पिछड़ों ,दलितों को सामंती समाज के विरोध में उठ खड़ा होने का बीज मंत्र दिया, अब वही बिहार की विशाल आवादी लालू प्रसाद को चारा चोर के नाम से अलंकृत करती रहेगी। यही है समय की बिडंबना और काल का चक्र।
लालू प्रसाद का सामाजिक क्रांति बिहार जैसे सूबे में फलीभूत होना कोई मामूली बात नहीं है। अपने राज काज के 15 वर्षों में लालू प्रसाद ने भले ही बिहार की आर्थिक ढांचा को कमजोर किया हो लेकिन लेकिन उसी बिहार की 80 फीसदी दबी ,कुचली आवादी को जिस अंदाज से सामंतो की कथित गुलामी से निकालकर लोकतंत्र की मुख्य धारा से जोड़ने का काम किया था ,आजाद भारत में ऐसा उदाहरण कहीं देखने को नहीं मिलता। 1990 से लेकर सन 2005 तक लालू की राजनीति दम्भ भर रही थी। सामंती समाज कुढ़ रहा था और तमाम पिछड़े ,दलित और मुसलमान समेत समाज के सबसे निचले पायदान पर बेजान और बेकार समझे जाने वाले लोग लालू की जयजयकार कर रहे थे। यह सब बिना किसी हिंसा और उपद्रव मचाये समाज में हो रहा था। लालू की यह क्रांति पुरे देश को आकर्षित कर रही थी यहाँ तक कि भारत से बाहर दुनिया के लोग भी लालू की भूरी भूरी प्रशंसा करते फिर रहे थे। दुनिया की सभी मीडिया लालू से मिलकर और उनके आइडिआ का प्रचार प्रसार करते फिर रहे थे।
गरीबो का मसीहा ,दुसरा आंबेडकर से लेकर मंडेला तक लालू को कहा जाने लगा था। लेकिन लालू अब कहाँ हैं ? उनकी क्रांति की गर्भ से पुरे देश में जातियों पर आधारित जो राजनीति निकली आज वह सब लालू प्रसाद से जुदा है। लेकिन इसमें दोष उनका नहीं। दोषी तो लालू प्रसाद ही है। कहते हैं कि लोभ और धन संग्रह की नशा इंसान को अंधा कर देता है। उसका विवेक मार देता है और उसकी आत्मा को ख़त्म कर देता है। लालू प्रसाद मोह और लोभ में फस गए और अपने महान कृत को अपने से ही शापित भी कर बैठे। अब पछताने से क्या होगा ?पाप का प्रायश्चित तो लालू प्रसाद को करना ही होगा। लेकिन दुःख है कि पाप प्रायश्चित समाप्त होने के बाद भी लालू प्रसाद की वह छवि नहीं रह जायेगी जिसके वे पहले हकदार थे।
लालू की राजनीति की कोई काट नहीं। लालू जैसे नेता का फिर से बिहार में पदार्पण शायद ही संभव हो। लालू की भदेस और गवई शैली पर शायद ही अब बिहार का बड़ा तपका नर्तन करे क्योंकि लालू प्रसाद ने खुद को ही मोह और लोभ में डालकर राजनीति में अपने योगदान पर प्रश्नचिन्ह लगाया। 1990 से लेकर 2005 की राजनीति को गौर से परखे तो तो साफ़ हो जाता है कि केंद्र में चाहे जिसकी भी सरकार रहगी हो लालू के बिना केंद्र की राजनीती संभव नहीं थी। लालू बिहार से बाहर निकल चुके थे और देश के कोने कोने में लालू पूजित हो रहे थे। मंडल से जुड़े आरक्षण का विरोध हो या फिर सवर्ण -अवर्ण की लड़ाई हो लालू बहुसंख्यक समाज के साथ चट्टान की तरह खड़े रहे ,हर हमलों का कडा प्रतिवाद किया ,हीरो की तरह राजनीति करते रहे। लालू राजनीति के अकेला क्रूसेडर माने जा सकते हैं। बिहार का कौन ऐसा नेता तब था जो लालू के आगे टिक पा रहा था। कोई तो नहीं। लेकिन लोभी लालू ने सबकुछ करके भी कुछ नहीं किया। लालू ने बहुसंख्यक समाज को राजनितिक आजादी दिलाई तो उन्ही के हमसफ़र रहे नीतीश कुमार अब उसी बहुसंख्यक आवादी के कल्याण के लिए डेट दिख रहे हैं। लालू ने आर्थिक आधार पर लोगो को छला तो नीतीश अब आर्थिक आधार पर लालू के बहुसंख्यक लोगों को पेट भरने की व्यवस्था करने में जुटे हैं। नीतीश की राजनीती दलगत आधार पर चाहे जैसी हो लेकिन बिहार को बनाने की जिम्मेदारी अब उनके ऊपर ही है।
संभव है कि जेल से लालू यादव को बहुत कुछ सिख मिलेगी। जेल से लौटकर अपनी राजनीति को फिर से धार भी देना चाहेंगे लालू प्रसाद लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी होगी। समाज बदल चुका होगा ,लोगो का मिजाज शिफ्ट कर गया होगा ,राजनीति बदल चुकी होगी। उत्तर भारत के राजनेताओं में लालू प्रसाद की तरह एक और वीर बांकुरा नेता शिबू सोरेन की कथा कही जा सकती है। गुरु जी की राजनीति ,उनकी सामाजिक क्रांति और उनके गरीबों ,दलितों और आदिवासियों के बीच के आंदोलन को भला कौन भुला सकता है। गुरूजी भी राजनितिक लोभ के शिकार हुए ,बदनाम हुए। ऐसा नहीं होता तो गुरु जी का कृत लालू प्रसाद से भी आगे का है। लेकिन समय को आखिर कौन बदल सकता है। लोभ और मोह ने दोनों महान नेताओं को डस लिया। इनकी राजनीति कलंकित हो गयी। बाकी की राजनीति इनसे भी ज्यादा कलंकित है और रहेगी लेकिन वे लालू और शिबू सोरेन नहीं है। इनकी निष्कलंक राजनीति बची रहती तो आज देश के कोने कोने में इनकी मूर्तियां विराजमान होती और लोग श्रद्धा के सुमन चढ़ाते।

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