“पाश” के पास बीच का कोई रास्ता नहीं था…

पाश को सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए एक समतावादी दुनिया की चाह थी और इसे पाने की लड़ाई में उनके पास बीच का कोई रास्ता नहीं था.वे अकेले कवि हैं जिनकी कविताओं में जितना ज्यादा प्यार है, उतना ही आक्रोश भी. यह आक्रोश, क्रांति या फिर वैचारिक प्रतिबद्धता उनका शौक नहीं थी. यह उनके लिए लाचारी और मजबूरी थी.पाश की जिंदगी का सबसे बड़ा गम था ‘उच्च शिक्षित’ नहीं होने का. हालांकि अपने बेहतर कवि होने को वे अपने विधिवत शिक्षित न होने के बहुत ऊपर रखते थे..

उन्हें क्रांति का कवि माना गया. उनकी तुलना भगत सिंह और चंद्रशेखर से भी की जाती रही पर वे जिंदगी और इस दुनिया को बेपनाह प्यार करनेवाले कवि थे. अवतार सिंह संधू यानी हम सबके प्यारे कवि ‘पाश’ जिंदगी की धूल, धूप, ऊष्मा और नमी को अपनी सांसों में महसूस करने वाले और मिटटी की गंध से भी किसी प्रेमिका की देह-गंध की तरह बेपनाह इश्क करने वाले कवि थे.
पाश के लिखे में गांव की मिटटी की महक है. उनकी कविताओं में बैल, रोटियां, हुक्का, गुड़, चांदनी रात, बाल्टी में झागवाला फेनिल दूध, खेत खलिहान सब अपने पूरे वजूद में जीते-जागते मिलते हैं. उनका पूरा वजूद जिंदगी के इन्हीं बहुत छोटी-छोटी बिंदुओं से मिलकर बना था. पाश के बारे में एक सबसे खासबात यह भी है कि पंजाबी भाषा का कवि होने के बावजूद पूरी हिंदी पट्टी उन्हें अपना मानती है. अपनी भाषा का कवि. अपवाद के रूप में यदि अमृता प्रीतम की बात न की जाए तो इस भाषा के किसी और कवि को हिंदी में शायद ही इतनी प्रसिद्धि प्राप्त हुई हो.
पाश ने खुद भी कहा है – ‘मैं आदमी हूं / बहुत-बहुत छोटा-छोटा कुछ/ जोड़कर बना हूं.’ वे जिंदगीभर इसी छोटे–छोटे बहुत कुछ को बचाने की जिद और इस बहाने इंसान को इंसान बनाए रखने की ललक में लहूलुहान होते रहे. कभी-कभी उनमें कंटीलापन भी दिखा पर हां कड़वाहट कभी नहीं आई. वे अकेले कवि हैं जिनकी कविताओं में जितना ज्यादा प्यार है, उतना ही आक्रोश भी. यह आक्रोश, क्रांति या फिर वैचारिक प्रतिबद्धता उनका शौक नहीं थी. यह उनके लिए लाचारी और मजबूरी थी. दुनिया को जीने लायक बनाने में, उसका सपना देखने की चाह में, चुनी गई मजबूरी – ‘मैं जो सिर्फ आदमी बना रहना चाहता था, यह क्या बना दिया गया हूं.’ इसी तरह ‘अब मैं विदा लेता हूं’ शीर्षक के तहत पाश कहते हैं –‘मुझे जीने की बहुत-बहुत चाह थी / कि मैं गले-गले तक जिंदगी में डूब जाना चाहता था / मेरे हिस्से की जिंदगी भी जी लेना मेरे दोस्त.’
क्रांति ऐसा शब्द है जिसके नीरस और कठोर स्वरूप की कल्पना सबसे पहले आती है लेकिन पाश इस रूप में क्रांतिकारी कवि कतई नहीं थे. वे एक बेहद भावुक और प्रेमी हृदय व्यक्ति थे. एक ऐसे इंसान जिसका पोर-पोर संवेदनशीलता से पगा था लेकिन जिसे जिंदगी ने वैसा रहने नहीं दिया. अपनी इस मजबूरी पर उनके भीतर दुनिया को अथाह प्यार करने वाला, एक साधारण-सी खुशहाल जिंदगी के सपने देखनेवाला बहुत मामूली-सा इन्सान दुखी होता और खीजता भी बहुत था -‘बहुत ही बेस्वाद है / इस बेरंग दुनिया के नक़्शे से निबटना.’
इसे त्रासदी ही कहा जाएगा कि प्रेम और जिंदगी की दूरी पाटने के बीच जिसकी कविता पूरे जीवनभर घूमती रही, उसकी कविताएं आखिरकार उसका दोष बन गईं. विचारधारा उसका सबसे बड़ा अपराध. उनके शब्द क्रांति के किसी भी औजार से कम नहीं थे.
पाश को अपने शब्दों की इस शक्ति पर पूरा यकीन था और उनसे भी ज्यादा यकीन उनके हत्यारों को था. पाश के शब्दों में शायद यह ताकत इसलिए थी कि इन्हें सबसे पहले उन्होंने खुद ही झेला. पाश को अपने शब्दों की इस शक्ति पर पूरा यकीन था और उनसे भी ज्यादा यकीन उनके हत्यारों को था. पाश के शब्दों में शायद यह ताकत इसलिए थी कि इन्हें सबसे पहले उन्होंने खुद ही झेला. उनके तीखे नुकीले नाखूनों को पहले अपने भीतर गहरे धंसने दिया था. फिर बाहर की दुनिया में उन्हें छोड़ा था. इन शब्दों को बाहर अकेला और निहत्था लड़ने के लिए छोड़ने की इस त्रासदी पर उनका कवि हृदय खूब रोया भी था – ‘ सिर्फ अपनी सुविधा के लिए तुमने / शब्दों को तराशना सीख लिया है / तुमने उन्हें इस तरह कभी नहीं देखा / जैसे अंडे में मचल रहे चूजों को / मैंने शब्दों को झेला है / ..अपने रक्त में शरण दी है / मैं गुरु गोबिंद सिंह नहीं / अपनी कविता का कवच पहनाकर / इन्हें भेजने के बाद / बहुत-बहुत रोया हूं’.
यह संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है जिसके अपने खतरे होते हैं. कितने ही लेखकों, कलाकारों के जीवन अनुभवों से हम सब यह जानते हैं. सबसे बड़ा खतरा तो यही होता है वे आत्महत्या कर सकते हैं. उनकी रचनाओं में कोई क्रांति या यथास्थिति में बदलाव की आग देख ले तो उनकी ह्त्या की संभावना बन जाती है. पाश के साथ तो ठीक ऐसा ही हुआ था. उनकी कविताएं हद दर्जे की संवेदनशीलता से निकली थीं. सबको यही लगता था और आज भी लगता है कि उन्होंने बिलकुल वही कहा जो हम सब महसूसते हैं पर किन्हीं अज्ञात भयों से डरकर कहते नहीं या फिर हमें उस तरह कहना नहीं आता. इसी खूबी ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया था और कई अराजक विचारों के लिए खतरा भी.
पाश 15 वर्ष की किशोरवय उम्र से ही कविताएं लिखकर छोटे-छोटे कदमों से प्रसिद्धि की ऊंचाइयों की तरफ बढ़ने लगे थे और 20 साल की उम्र में जब उनका पहला कविता संग्रह ‘लौह कथा’ छपा उससे पहले ही वे क्रांतिकारी कवि के रूप में प्रसिद्धि पा चुके थे. पाश का कविता संग्रह ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ पंजाबी भाषा की सबसे अधिक बिकने वाली किताब है. (हिंदी में भी इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए हैं) पाश का इस किताब के साथ एक बुरा अनुभव भी रहा. जिस प्रकाशक ने पंजाबी में इसे छापा था, सालभर के भीतर उसने इसकी सारी प्रतियां बेच लीं पर पाश को इस बिक्री से एक पाई भी नहीं दी. पाश इस बात को लेकर बहुत क्षुब्ध रहे. वे खुलकर मानते थे कि वे पंजाबी भाषा के बड़े कवि हैं. लेकिन खुद को स्थापित करने के लिए उन्होंने कभी आलोचकों की खुशामद नहीं की. दुनिया के तमाम इंसानों की आन-बान और उनकी रीढ़ की हड्डी सधी रहे इस बात की चिंता के साथ उतने ही शदीद तरीके से उन्हें अपना स्वाभिमान भी प्यारा था.
पाश की जिंदगी का सबसे बड़ा गम था ‘उच्च शिक्षित’ नहीं होने का. हालांकि अपने बेहतर कवि होने को वे अपने विधिवत शिक्षित न होने के बहुत ऊपर रखते थे. उनके पिता फ़ौज में होने के कारण हमेशा घर से बाहर रहे. मां अशिक्षित थीं सो घर में पढ़ाई का कोई सवाल ही नहीं था. बड़े भाई को जब पढ़ाई के लिए बाहर भेजा गया तो वे अराजक लोगों की संगत का शिकार बन गए. लिहाजा पाश को कोई ऐसी टेक नहीं मिली जिसकी मदद से वे उच्च शिक्षा की सीढ़ियां चढ़ पाते. हालांकि अपने दमपर वे इसकी कोशिश करते रहे. इसी कोशिश में इंटर की परीक्षा तो पास कर गए पर बीए कर पाना उनके लिए संभव नहीं हो सका. दिलचस्प बात है कि इसकी एक वजह उनके पढ़ने की लगन ही थी. परीक्षा के बीच में भी उन्हें जो किताब सामने दिख जाती उसे शुरू से लेकर आखिर तक पढ़ने बैठ जाते. पाठ्यक्रम से इतर तमाम विषय पढ़ने की इस ललक ने उन्हें डिग्री तो नहीं दिलवाई लेकिन इसने उनकी संवेदनशीलता और समझ के दायरे को ऐसा विस्तार दिया कि वे अपने दिल की अकूत गहराइयों और उसके जरिए जनमानस की बातों को भी अभिव्यक्त कर सकने में सक्षम हो गए.
पाश अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे. चाहे इश्क हो या नशा, सब उन्होंने खूब खुलकर किया. अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे. विचारों या जीवन में उन्हें किसी तरह की मिलावट पसंद नहीं थी. घुट-घुटकर, डर-डरकर जीनेवालों में से पाश बिलकुल नहीं थे. उन्हें किसी अंतहीन समय में आनेवाले सुरक्षित दिन के इंतजार में दुबककर जीना भी मंजूर नहीं था. पाश को सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त समतावादी दुनिया चाहिए थी. यही उनका सपना था और इसके लिए लड़ाई मजबूरी. उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था.
वे सबको आगाह कर रहे थे – ‘यह वक़्त बहुत अधिक खतरनाक है साथी.’… और यह भी कि – ‘हम सब खतरा हैं उनके लिए / जिन्हें दुनिया में बस ख़तरा-ही-खतरा है.’ और उनका यह डर भी कोई बेबुनियाद डर नहीं था. पहले उन्हें 1969 में झूठे आरोपों में फंसाकर जेल भेजा गया फिर खालिस्तानी आतंकवादियों ने 23 मार्च, 1988 को उनकी हत्या कर दी. पर इस हत्या से पाश के शब्द नहीं मरे. उनकी कविताएं लोगों के दिल में जीती रहीं. हर गलत वक़्त में उन्हें ताकीद करती रहीं – ‘सबसे खतरनाक होता है / सपनों का मर जाना / न होना दर्द का / सब कुछ सहन कर जाना / सबसे खतरनाक वे आंखें होती हैं / जो सबकुछ देखते हुए भी जमा हुआ बर्फ होती हैं.’
नामवर सिंह ने पाश को श्रद्धांजलि देने के क्रम में उन्हें एक शापित कवि कहा था. पाश शापित कवि थे, किसी शापित यक्ष की ही तरह. जिंदगी से भरे इस कवि को कभी भी अपने मन लायक जीवन या दुनिया नहीं मिली. शायद पाश से शापित वह विचारधारा है जिसने उनकी जान ली. ये विचारधाराएं आज भी हमारे आसपास कभी-कभार प्रभावी होती दिख जाती हैं लेकिन, इनसे लड़ने के लिए अब हमारे पास पाश हैं.

(साभार: सत्याग्रह)

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