‘सुंदर-मुंदरिए, तेरा की विचारा – दुल्ला भट्टी वाला…’

लोहड़ी का त्यौहार पंजाबियों तथा हरयानी लोगो का प्रमुख त्यौहार माना जाता है। यह लोहड़ी का त्यौहार पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू काश्मीर और हिमांचल में धूम धाम तथा हर्षो लाश के साथ मनाया जाता हैं। यह त्यौहार मकर संक्राति से एक दिन पहले 13 जनवरी को हर वर्ष मनाया जाता हैं।

लोहड़ी त्यौहार के उत्पत्ति के बारे में काफी मान्यताएं हैं जो की पंजाब के त्यौहार से जुडी हुई मानी जाती हैं। लोहड़ी का त्यौहार पंजाबियों तथा हरयानी लोगो का प्रमुख त्यौहार माना जाता है। यह लोहड़ी का त्यौहार पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू काश्मीर और हिमांचल में धूम धाम तथा हर्षो लाश के साथ मनाया जाता हैं। यह त्यौहार मकर संक्राति से एक दिन पहले 13 जनवरी को हर वर्ष मनाया जाता हैं।

लोहड़ी त्यौहार के उत्पत्ति के बारे में काफी मान्यताएं हैं जो की पंजाब के त्यौहार से जुडी हुई मानी जाती हैं। कई लोगो का मानना हैं कि यह त्यौहार जाड़े की ऋतू के आने का द्योतक के रूप में मनाया जाता हैं। आधुनिक युग में अब यह लोहड़ी का त्यौहार सिर्फ पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू काश्मीर और हिमांचल में ही नहीं अपितु बंगाल तथा उड़िया लोगो द्वारा भी मनाया जा रहा हैं !
लोहड़ी को दुल्ला भट्टी की एक कहानी से भी जोड़ा जाता हैं। लोहड़ी की सभी गानों को दुल्ला भट्टी से ही जुड़ा तथा यह भी कह सकते हैं कि लोहड़ी के गानों का केंद्र बिंदु दुल्ला भट्टी को ही बनाया जाता हैं। दुल्ला भट्टी मुग़ल शासक अकबर के समय में पंजाब में रहता था। उसे पंजाब के नायक की उपाधि से सम्मानित किया गया था! उस समय संदल बार के जगह पर लड़कियों को गुलामी के लिए बल पूर्वक अमीर लोगों को बेच जाता था जिसे दुल्ला भट्टी ने एक योजना के तहत लड़कियों को न की मुक्त ही करवाया बल्कि उनकी शादी की हिन्दू लडको से करवाई और उनके शादी के सभी व्यवस्था भी करवाई। दुल्ला भट्टी एक विद्रोही था और जिसकी वंशवली भट्टी राजपूत थे। उसके पूर्वज पिंडी भट्टियों के शासक थे जो की संदल बार में था अब संदल बार पकिस्तान में स्थित हैं। वह सभी पंजाबियों का नायक था।
लोहड़ी पर अनेक लोक-गीतों के गायन का प्रचलन है। ‘सुंदर-मुंदरिए, तेरा की विचारा – दुल्ला भट्टी वाला…’ शायद सबसे लोकप्रिय गीत है जो इस अवसर पर गाया जाता है। पूरा गीत इस प्रकार है:
सुंदर मुंदरिए – हो तेरा कौन विचारा-हो
दुल्ला भट्टी वाला-हो
दुल्ले ने धी ब्याही-हो
सेर शक्कर पाई-हो
कुडी दे बोझे पाई-हो
कुड़ी दा लाल पटाका-हो
कुड़ी दा शालू पाटा-हो
शालू कौन समेटे-हो
चाचा गाली देसे-हो
चाचे चूरी कुट्टी-हो
जिमींदारां लुट्टी-हो
जिमींदारा सदाए-हो
गिन-गिन पोले लाए-हो
इक पोला घिस गया जिमींदार वोट्टी लै के नस्स गया – हो!

यह गीत दुल्ला भट्टी वाले का यशोगान करता है, जिसने दो अनाथ कन्याओं, सुंदरी-मुंदरी’ की जबरन होने वाली शादी को रुकवाकर व उनकी जान बचाकर उनकी यथासंभव जंगल में आग जलाकर और कन्यादान के रुप में केवल एक सेर शक्कर देकर शादी की थी।

बच्चों की टोलियां जिनमें अधिकतर लड़के होते हैं, उक्त गीत गाकर लोहड़ी माँगते हैं और यदि कोई लोहड़ी देने में आनाकानी करता है तो ये मसख़रे बच्चे उनकी इस तरह ठिठोली भी करते हैं:

‘हुक्के उत्ते हुक्का ए घर भुक्का!’

लड़कियां निम्न गीत गाकर लोहड़ी मांगती हैं:

‘पा नी माई पाथी तेरा पुत्त चढेगा हाथी हाथी
उत्ते जौं तेरे पुत्त पोत्रे नौ!
नौंवां दी कमाई तेरी झोली विच पाई
टेर नी माँ टेर नी
लाल चरखा फेर नी!
बुड्ढी साँस लैंदी है
उत्तों रात पैंदी है
अन्दर बट्टे ना खड्काओ
सान्नू दूरों ना डराओ!
चारक दाने खिल्लां दे
पाथी लैके हिल्लांगे
कोठे उत्ते मोर सान्नू
पाथी देके तोर!

इसके अतिरिक्त भी लड़कियां विभिन्न बधाई गाती हैं। लोहड़ी से 20-25 दिन पहले ही बालक एवं बालिकाएँ ‘लोहड़ी’ के लोकगीत गाकर लकड़ी और उपले इकट्ठे करते हैं। संचित सामग्री से चौराहे या मुहल्ले के किसी खुले स्थान पर आग जलाई जाती है। मुहल्ले या गाँव भर के लोग अग्नि के चारों ओर आसन जमा लेते हैं। घर और व्यवसाय के कामकाज से निपटकर प्रत्येक परिवार अग्नि की परिक्रमा करता है। रेवड़ी (और कहीं कहीं मक्की के भुने दाने) अग्नि की भेंट किए जाते हैं तथा ये ही चीजें प्रसाद के रूप में सभी उपस्थित लोगों को बाँटी जाती हैं। घर लौटते समय ‘लोहड़ी’ में से दो चार दहकते कोयले, प्रसाद के रूप में, घर पर लाने की प्रथा भी है।
जिन परिवारों में लड़के का विवाह होता है अथवा जिन्हें पुत्र प्राप्ति होती है, उनसे पैसे लेकर मुहल्ले या गाँव भर में बच्चे ही बराबर बराबर रेवड़ी बाँटते हैं। लोहड़ी के दिन या उससे दो चार दिन पूर्व बालक बालिकाएँ बाजारों में दुकानदारों तथा पथिकों से ‘मोहमाया’ या महामाई (लोहड़ी का ही दूसरा नाम) के पैसे माँगते हैं, इनसे लकड़ी एवं रेवड़ी खरीदकर सामूहिक लोहड़ी में प्रयुक्त करते हैं।
शहरों के शरारती लड़के दूसरे मुहल्लों में जाकर ‘लोहड़ी’ से जलती हुई लकड़ी उठाकर अपने मुहल्ले की लोहड़ी में डाल देते हैं। यह ‘लोहड़ी व्याहना’ कहलाता है। कई बार छीना झपटी में सिर फुटौवल भी हो जाती है। मँहगाई के कारण पर्याप्त लकड़ी और उपलों के अभाव में दुकानों के बाहर पड़ी लकड़ी की चीजें उठाकर जला देने की शरारतें भी चल पड़ी हैं।

 

 

 

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