एक पखवाडे की तपस्या, तब जाकर पूरी होती है मधुश्रावणी

कुमारी मीनू

पति की लंबी आयु की कामना के लिए चैदह दिवसीय यह पूजा सिर्फ मिथिला वासियों के बीच हीं होता है । यह पावन पर्व मिथिला की नवविवाहिता बहुत ही धूम.धाम के साथ दुल्हन के रूप में सजधज कर मनाती है।सावन का महीना आते ही मिथिलांचल संस्कृति से ओत-प्रोत मधुश्रावणी की गीत गूंजने लगे हैं।मैथिल संस्कृति के अनुसार शादी के पहले साल के सावन माह में नव विवाहिताएं मधुश्रावणी का व्रत करती हैं। सावन के कृष्ण पक्ष के पंचमी के दिन मधुश्रावणी व्रत की शुरुआत हुई और शुक्लपक्ष की चतुर्थी इसका समापन होगा। आज यानी 14 अगस्त को इस बार इसका समापन हो रहा है। अंतिम दिन को खासतौर पर मधुश्रावणी कहते हैं। मैथिल समाज की नव विवाहितों के घर मधुश्रावणी का पर्व विधि-विधान से होता है । इस पर्व में मिट्टी की मूर्तियां, विषहरा, शिव-पार्वती बनाया जाता है।


नागपंचमी से शुरू होकर 15 दिनों तक चलने वाला यह पर्व एक तरह से नव दंपतियों का मधुमास है। प्रथा है कि इन दिनों नव विवाहिता ससुराल के दिये कपड़े-गहने ही पहनती है और भोजन भी वहीं से भेजे अन्न का करती है। इसलिए पूजा शुरू होने के एक दिन पूर्व नव विवाहिता के ससुराल से सारी सामग्री भेज दी जाती है। अमूमन नव विवाहिता विवाह के पहले साल मायके में ही रहती है। पहले और अंतिम दिन की पूजा बड़े विस्तार से होती है। जमीन पर सुंदर तरीके से अल्पना बना कर ढेर सारे फूल-पत्तों से पूजा की जाती है। पूजा के बाद कथा सुनाने वाली महिला कथा सुनाती है, जिसमे शंकर-पार्वती के चरित्र के माध्यम से पति-पत्नी के बीच होने वाली बाते जैसे नोक-झोंक, रूठना मनाना, प्यार, मनुहार जैसे कई चरित्रों केजन्म, अभिशाप, अंत इत्यादि की कथा सुनाई जाती है। ताकि नव दंपती इन परिस्थितियों में धैर्य रखकर सुखमय जीवन बिताये। यह मानकर कि यह सब दांपत्य जीवन के स्वाभाविक लक्षण हैं।
पूजा के अंत में नव विवाहिता सभी सुहागिन को अपने हाथों से खीर का प्रसाद एवं पिसी हुई मेंहदी बांटती है। तेरह दिनों तक यह क्रम चलता रहता है फिर अंतिम दिन बृहद पूजा होती है। इस दिन पूजा के क्रम में लड़की के अंग को चार स्थानों पर, दोनों पैर व घुटनों को एक जलती हुई दीये की बाती यानी टेमी से दागा जाता है।
ऐसा शायद लड़की को सहनशील बनाने के लिए किया जाता हो। वैसे अब इस परम्परा को लोग नहीं मानते। फिर विसर्जन एवं भोज। लड़की के ससुराल पक्ष बढ़-चढ़कर भोज की सामग्री भेजता है। पंद्रह दिनों के रीति-रिवाज भावपूर्ण गीत एवं सामाजिक मेल-मिलाप के बाद नव दंपत्ति विभिन्न तरह के अनुभवों के साथ अपनी जीवन यात्रा पर मजबूत कदमों के साथ चल पड़ते हैं।
सावन महिना में पडÞने के कारण इसे ‘मधुश्रावणी’ कहा गया। यानी जो सावन मधु के समान मीठा हो, यानी मिथिलाञ्चल का ‘हनीमून’ भी इसे कहा जा सकता है। हमारी वैदिक परंपरा कितनी वैज्ञानिक तरीके की थी, जो सावन का महिना पूरे हरे भरे वातावरण से भरपूर और इस मौसम को भगवान शिव और पार्वती को भी पसंद करते हैं, शास्त्रों में भी कहा गया है कि यौनिक क्रिया के लिए ये मास सर्वोत्तम है। यही कारण है कि मिथिलाञ्चल में सावन मास को ‘हनीमून’ के लिए चुना गया। ‘मधुश्रावणी’ पर्व इसी का रूप हैं।

तेरह दिनतक चलनेवाला इस पर्व में, नवविवाहिता नए-नए कपडे, जेवर पहनकर, साज श्रृंगार कर शाम को विभिन्न प्रकार के फूल-पतियां तोडÞ कर लाती है, और सुवह नहा-धोकर इन्हीं फूलपतियों से शंकर-पार्वती की पूजा करती हैं और कथा सुनती हैं। मधुश्रावणी की कथा में भी शंकर पार्वती के प्रेम प्रसंगों की ही चर्चा होती है, पार्वती जी के रुप रंग यहाँ तक की उनके वक्षस्थल समेत और भी अंगों की खूबसूरती की प्रशंसा होती है। तेरह दिनों तक नवविवाहिता घर का कोई भी काम नहीं करती, स्वादिष्ट खाना, नए-नए कपडÞे पहनना ही उसका काम होता है। पर अचानक, तेरहवें दिन नये-नये वस्त्र, जेवर पहनकर दूल्हा-दूल्हन पूजा पाठ करते हैं और फिर पूजा में जो दीप जलता रहता है, उसी की बाती से दुल्हन को चार जगह दोनों घुटनों और पावों पर दागा जाता है, दागते समय दुल्हा पान के पत्तों से दुल्हन की दोनों आँखों को मुंदे रहता है। घर और पडÞोस की औरतें मिलकर दूल्हन को पकडÞे रहती हैं, और इस समय महिलाएं मंगलगान गाती रहती हैं। मिथिलाञ्चल के पंडितों का ये मानना है कि जलाने के बाद कितना बडÞा घाव हो पाता हैं, घाव जितना बडÞा होता है, उसे उतना ही शुभ माना जाता है, उस बधू को पति ज्यादा प्रेम करता है। २१वीं सदी चल रही है, और यहाँ की महिलाएँ धर्म और परम्परा को अभी भी विश्वासपर्ूवक मान रही हैं।
यदि घाव ही पति के मानने का मापदण्ड है तो फिर ये मापदण्ड पुरुषों के लिए क्यों नहीं – जगतजननी माँ सीता की ही धरती है मिथिला, पर सीता को तो त्रेता युग में श्रीराम ने अग्निपरीक्षा ली थी पर अब कलियुग में राम तो कहीं हैं नहीं, पर उनके द्वारा शुरु की गई यह परंपरा आज की दौड में भी बरकरार है।

यहाँ के तथाकथित धर्म और परम्परा के ठेकेदार इस हिंसा को बढÞावा दे रहे हैं। महिलाओं मे व्याप्त अशिक्षा, और धर्म के नाम पर अन्धविश्वास के कारण आज भी ये प्रथा मिथिलाञ्चल में फल-फूल रही है। और दुःख की बात तो यह है कि इसमें महिलाएँ ही मिलकर एक नवविवाहिता के साथ ये हिंसा कर रही हैं। आज की इस २१वीं सदी में जब महिलाएँ भी पुरुषों के साथ चाँद, मंगल या एभरेष्ट की चोटी पर पहुँच चुकी हैं तो फिर मिथिलाञ्चल में कुछ खास समुदाय -ब्राहृमण, कायस्थ, देव, वैश्य) में ही महिला हिंसा क्यों – जिसके कारण ये मिथिलाञ्चल का हनीमून ‘मधुश्रावणी’ ‘टेमी’ प्रथा के कारण महिलाओं के लिए दुःख और दर्द का कारण बन रहा है।


इस ‘मधुश्रावणी’ पर्व को पर्यावरण के दृष्टिकोण से अगर देखा जाय तो हमें लगता है कि हमारे पर्ूवजों ने इस पर्व की महत्ता पर्यावरण के संरक्षण के लिए आवश्यक माना होगा। इस पर्व में विभिन्न प्रकार के पुष्प, पत्तियां, इकट्ठा कर पूजा होती है। वनस्पतियाँ हमारे वातावरण में हमेशा मौजूद रहें। साथ ही इसमें नाग देवता -विषहारा) की भी पूजा होती है। इसलिए पृथ्वी पर जानवरों का भी उतना ही अधिकार है जितना मनुष्यों का। विषैला होने के कारण र्सप को मार देते हैं, ऐसे मे इसकी प्रजाति कही विलुप्त न हो जाय। सावन महिना में उसकी पूजा की व्यवस्था की गई होगी।’

 

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