मिथिला ज्ञान परंपरा: स्वायत्त ग्रामीण परिप्रेक्ष्य

भारतीय दर्शन की अवहेलना जिस प्रकार भारतीय महाद्वीप में किया गया संभवतः किसी और दर्शन परंपरा की ऐसी ही गति किसी और विद्वत समाज ने उसके जन्मस्थान में की हो, जान नहीं पड़ता। चूंकि ज्यादातर दर्शन ज्ञान परंपरा के ग्रंथों की रचना संस्कृत भाषा में थी और नयी राज्य व्यवस्था को जातीय(पहचान) भावनाओं के उभार का खेल उपनिवेश पहले ही सिखा चुका था, इसलिए नये समीकरण में समस्त ज्ञान परंपरा को ब्राह्मण वाद कहकर उपेक्षित करना बहुत सरल हो गया। साथ ही जो दर्शन परंपरा यहां की खालिस ग्रामीण क्षेत्रों से जन्मे थे उनका अस्तित्व ही खत्म करने का रास्ता एक ‘समतामूलक’ समाज के लिए जरूरी माना जाने लगा।

डाॅ. सविता खान

आज हम शिक्षा के संदर्भ में जब भी चिंतनशील होते हैं तो पहला और सबसे अहम बिंदु शिक्षा और शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता होती है। शिक्षा की जिम्मेदारी और गुणवत्ता के नाम पर औपनिवेशिक काल में जब राज्य ने तमाम किस्म की सरंचनाओं को खड़ा करना शुरू किया तो सबसे पहला आघात ना सिर्फ भारतीय भाषाओं को पहूँचा बल्कि पाठ्यक्रम में शामिल किए गए विषय और उसकी रुपरेखा भारतीय सामुदायिक और सभ्यतामूलक संदर्भ से नहीं थे। यहां की लोकप्रचलित ज्ञान परंपरा को, उसकी समाज और उससे उपजे दर्शन परंपरा को भीषण आघात पहुंचाया गया। विद्वान गंगानाथ झा के एक आकलन के अनुसार १९१० ई तक मिथिला प्रदेश में १२०० के लगभग मीमांसक, नैयायिक बचे हुए थे पर पिछले ही वर्ष जब मिथिला के गांवों में मीमांसकों और नैयायिकों की खोज करने की पहल में यह संख्या चिंताजनक थीIयहां यह कहना बहुत जरूरी है कि भारतीय दर्शन की अवहेलना जिस प्रकार भारतीय महाद्वीप में किया गया संभवतः किसी और दर्शन परंपरा की ऐसी ही गति किसी और विद्वत समाज ने उसके जन्मस्थान में की हो, जान नहीं पड़ता। चूंकि ज्यादातर दर्शन ज्ञान परंपरा के ग्रंथों की रचना संस्कृत भाषा में थी और नयी राज्य व्यवस्था को जातीय(पहचान) भावनाओं के उभार का खेल उपनिवेश पहले ही सिखा चुका था, इसलिए नये समीकरण में समस्त ज्ञान परंपरा को ब्राह्मण वाद कहकर उपेक्षित करना बहुत सरल हो गया। साथ ही जो दर्शन परंपरा यहां की खालिस ग्रामीण क्षेत्रों से जन्मे थे उनका अस्तित्व ही खत्म करने का रास्ता एक ‘समतामूलक’ समाज के लिए जरूरी माना जाने लगा जहां संस्कृत को एक पहचान मूलक ज्ञान परंपरा का स्तंभ मान कर मुख्यधारा से अलग कर दिया गया(हैरत की ही बात है कि जर्मनी में कुल १४ विश्विद्यालय संस्कृत के विशिष्ट अध्यापन केन्द्रों को सफलतापूर्वक चला रहे हैं और भारतीय दर्शन खासकर न्याय को लेकर उनके शोधकार्य उल्लेखनीय हैं, न्याय की भूमि और केंद्र रहे मिथिला में इसकी अधोगति जारी है) इसका जाहिरी असर सिर्फ भाषा के विनाश में ही नहीं बल्कि उससे उपजे समस्त ज्ञान परंपरा के विनाश में देखा जा सकता है( जर्मनी में हाय्डेलबर्ग विश्वविद्यालय में इंडोलोजी विभाग के प्रमुख प्रो. एक्सेल मायकेल हैरत में दीखते हैं कि राजनीती और एक खास विचारधारा की आड़ में एक समस्त ज्ञान परंपरा को ख़त्म कर देना कितना त्रासद है), साथ ही आजाद भारत के खड़े हो रहे नये मंदिरों में गांव की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं की गई, उद्योग धंधों की सफलता के इर्द गिर्द जिन शहरी विकास के प्रारूपों का निर्माण किया गया उसमें गांधी के स्वराज के मूल कर्णधार गांव कहीं पीछे धकेल दिये गये, अब उन्हें मात्र कृषि क्षेत्र मान बाकी सारे सभ्यता मूलक गतिविधियों यथा ज्ञान परंपरा और भाषाई विकास की परिकल्पना से बाहर कर दिया गया। जबकि आजादी पूर्व जब हम भारत की ज्ञान परंपरा की तहकीकात करते हैं तो भारत के गिने चुने नवोदित शिक्षा केंद्रों से कहीं व्यापक और प्रशस्त परिवेश गांव-गांव में फलफूल रहा था।
इसी ग्रामीण सन्दर्भ में यहां उत्तर बिहार के प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र मिथिला की गिनती और जिक्र इसलिए आवश्यक है क्योंकि भारत के प्रमुख दार्शनिक धाराओं जैसे न्याय और मीमांसा, वैशेषिक और वेदांत दर्शन परंपरा के साथ ही संकृत व्याकरण वैकासिक दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण और विख्यात रहा है:
जाता सा यत्र सीता सरिदमल जला वाग्वती यत्रपुण्या।
यत्रास्ते सन्निधाने सुर्नगर नदी भैरवो यत्र लिङ्गम्‌ ॥
मीमांसा-न्याय वेदाध्ययन पटुतरैः पण्डितेमर्ण्डिता या।
भूदेवो यत्र भूपो यजन-वसुमती सास्ति मे तीरभुक्‍तिः ॥
यह जिक्र करना भी यहां जरुरी होगा कि आखिर यह ज्ञान परंपरा का स्वरूप लोकोन्मुखी था या नहीं, पुराण और उपनिषदों की व्याख्या यहां लोक धर्म के अनुसार किया जाता रहा है इसका प्रमाण हमें याज्ञवल्क्य स्मृति(इसी पर लिखी टीका मिताक्षरा से आज भी संपत्ति सम्बन्धी विवादों में भारतीय न्यायालयों में प्रमाण मानी जाती है) निर्णय लिया जाता है, याग्यवलक्य की भूमि भी मिथिला ही मानी जाती है) में मिलती है:
धर्मस्य निर्णयो ज्ञेयो मिथिला व्यवहारतः – याज्ञवल्क्य स्मृति(धर्म के निर्णय को समझना हो तो मिथिला के व्यवहार को देखना होगा, साबित करता है कि सामान्यतया इस प्रदेश में प्रचलित ज्ञान परंपरा अंततः कोई निर्जीव वस्तु नहिं होकर लोक व्यवहार में परिलक्षित थी और इसके लोकोन्मुखी होने के कई आख्यान हमें वहां की प्रचलित किस्सों में मिलता है और यदि फ्रांसिसी विद्वान रोलां बार्थेस की मानें तो हर क्षेत्र की भाषा उसका सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होती है जहाँ से ये किस्से निकल कर आते हैं, भाषा कभी शुन्य से नहीं निकल कर आती है)I यहीं यह उल्लेख जरूरी हो जाता है कि भारत के प्रधान न्यायाधीश रहे मार्कंडेय काटजू ने मिथिला की ज्ञान परंपरा का स्तम्भ रहे मीमांसा शाष्त्र के इंटरप्रिटेशन सम्बन्धी तकनीक को लेकर एक व्यापक समझ पैदा करना चाहते थे कि न्यायालयों में लाखों लंबित पड़े मामले दरअसल इंटरप्रिटेशन सम्बन्धी गुथियों के कारण है जिसका निदान स्थानीय भाषाई ज्ञान परंपरा से उपजे मीमांसा बेहतर कर सकती है पश्चिमी भाषाई मूलक मैक्सवेल का ग्रन्थ कहीं चुक जा रहा हैI
हमारी परंपरा की गतिशीलता, लोककल्याणकारी एवं न्यायपरायण होने की शिक्षा हमें निश्चित तौर पर अपने शास्त्रों में पहले से ही भरपुर प्राप्त है, किसी पश्चिमी वाद ने हमें यह नहीं सिखाया, मसला दीगर है कि हमने अपनी कितनी ऊर्जा इन शास्त्रों को पढ़ने, खंगालने, समझने और अनुसरण करने में लगाया। परंपरा को एक सिरे से ख़ारिज करने के अंधे दौड़ ने हमें कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर वंचित रखा। जैसे हमारे पौराणिक ग्रंथों में एक समतामूलक समाज के प्रचुर संभावनाओं से इनकार कभी नहीं किया गया, दंड प्रावधानों के नीचे दिये गये उद्धरण से संभवत: यह स्पष्ट हो:
“यावद् भ्रियेत जठरं तावत स्वत्वं हि देहिनाम।
अधिकं योडभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।”
(श्रीमद्भागवत गीता 7.14.8)
जितने आहार से पेट भर जाय मनुष्य का अपने लिये उतनी ही सम्पत्ति पर अधिकार है, इससे अधिक धन पर अपना अधिकार माननेवाला परस्वत्वापहारी (दूसरे का अधिकार हरण करने वाला) होने के कारण स्तेन (चोर) है और इसीलिये दण्ड पाने योग्य है। अर्थात उसे दंडित किया जाना चाहिये।
मिथिला के कलेक्टिव विजडम, विपन्नता का विलास और कॉमन रिसोर्सेज के स्वतः स्फूर्त लोक उत्पत्ति का बड़ा ही रोचक नमूना था, यह खिस्सा दरभंगा के दग्धरि/चमैनिया पोखरि के उत्त्पति का था, कई परतों और प्रतीकों से गुजरता यह किस्सा(अयाची मिश्र, शंकर मिश्र, चमैन, दान) अंततः जल के श्रोत पर ठहर गया कि कैसे एक चमैन ढेर सारा धन मिलने पर चूँकि अपने मूल गुणों(स्किल) से च्युत होना नहीं चाहती, वह पोखरि खुदवा कर अंततः एक सर्वसामान्य के हित में निर्णय लेती हैI आखिरकार दर्शन का इससे उजागर चरित्र हम कहाँ और किनप्रकरणों में तलाश सकते हैं जहाँ जनसामान्य का जीवन एक दर्शन, नीति(एथिक्स) से चलता हो? संभवतः इतनी स्वायत्तता बिरले ही आज कोई विश्वविद्यालय वा शैक्षणिक संस्था सीखा पाए I मसला यह है कि यह लेयर्ड विजडम गया कहाँ? तालाब कहाँ गए और जातिगत प्रपंचों को इन जैसे प्रकरण क्यूँ नहीं दिशा दिखा पाए? कभी पौराणिक ग्रन्थ देवी भागवत मे मिथिला के प्रजा के सदाचारऔर समृद्धि का मनोरम वर्णन किया गया है :-
प्रविष्टो मिथिला मध्ये पश्यन्‌ सवर्द्धिमुत्तमाम्‌।
प्रजाश्‍च सुखिताः सर्वाः सदाचाराः सुसंस्थिता ॥

आज जब इस कृषिप्रधान, ‘कृषि’क्रांति’ वाले दार्शनिक देश में कृषि, कृषक और विद्या तीनों ही अपनी अत्यंत अधम दशा में हैं तो सवाल लाज़िमी है कि यह ह्रास कहाँ और कब से आया। जिस देश में जनक और विदेह जैसे अद्भुत नामकरण रहे हों, जनक जो हर किसी को जन्मने जैसा दायित्व बोध से प्रेरित हो और विदेह, जिसका अपना, स्व कुछ भी न हो और वो राजा हो, हल तक चलाता हो, बेटी को ज़िंदा खेत में गारता न हो, बचाता होIकुछ परिवर्तन जो बुद्धिजीवियों ने षड्यंत्र के तहत किये जैसे ग्यारह्न्वीं शताब्दी से धर्मशास्त्र का पक्ष प्रबल होता चला गया, ऐसे में 13-14 वि शताब्दी तक विद्याओं का वर्टीकल वर्गीकरण कर दिया गया, हॉरिजॉन्टल वर्गीकरण तो प्राचीनकाल से था मगर उसमें कोई भी व्यवसाय वा विद्या मुख्य या गौण नहीं था, पर अब कृषि और अन्य सेक्युलर वृत्तियों को गौण कर दिया गया, इसी काल से एक संस्कृत कहावत भी है: “शाश्त्रेषु नष्टः कव्यो भवन्ति, काव्येषु नशटाश्च पुराण प्रथाः, तत्रापि नष्टाः कृषिम अश्रायन्तेह, नष्टाः क्रिष्टेर भागवत भवन्ति” अर्थात वर्गीकरण में शाष्त्र, काव्य शाष्त्र, पुराण प्रवचन, कृषि कार्य और जो कुछ भी ना कर सकें वो साधू बनेंगे, जब कृषि पर ही पूरा समाज टिका हो ऐसे में इस विद्या को ही गौण कर देना रुग्णता ही थी, जबकि जनक का स्वयं हल चलाने का लीजेंड इस बात का द्योतक है कि कृषि विद्या का सम्मान अन्य विद्याओं के समान ही था जो मध्य युग आते आते हल छूना भी ब्राह्मण का पाप मान लिया गया, कृषि विद्या आधारित ग्रंथों में कृषि पराशर( दसवीं सदी) केपश्चात् शायद ही कोई ग्रन्थ की भी रचना हुई हो, पर जनक का हल प्रकरण एक अद्भुत मैसेज है आज के सिंघासनाधीन राजाओं केलिएI साथ ही एक उद्धरण से समझा जा सकता है कि आखिरकार इन राज्यों में किसी विद्या का पोषण था या नहीं यदि था तो उसका स्वरुप कैसा था:
इत्येते मैथिला:। प्रायणैते आत्मविद्याश्रयिणो भूपाला भवन्ति।
अर्थात् (यह समस्त मैथिल भू-पालगण हैं , प्राय: ये समस्त वर्ग ‘आत्मविद्या’ को आश्रय देनेवाली प्रवृत्ति के हैं ) तो आखिकार यह समझना होगा की यह आत्मविद्या क्या थी, कहाँ लोकेटेड थी और क्या इसका स्वरुप इतना लिबेरेटिंग था कि समस्त विश्व में चल रहे आत्मा-शरीर के द्वैधता समझ से उपजे क्राइसिस(कार्तेसियन द्वैधता) को एक समाधान दे सके और क्या इस सबके केंद्र रहे मिथिला और उसके ज्ञान परंपरा, व्यवहार विज्ञान और लोकोन्मुखी प्रवृत्तियों से ही गाँधी का उपनिवेश को दिया जा रहा ग्राम स्वराज जैसा इंक्लूसिव, सभ्यतामूलक डिस्कोर्स अपनी नियति को प्राप्त कर पायेगा? संभवतः मिथिला के गांवों में पिछले सदी तक फल फूल रही, स्वायत्त ज्ञान परंपरा जो कुछ खास गाँव में कम से कम संसाधनों में नैयायिकों और मीमांसकों के घरों से चलती थी उसमें राज्य वा कोई अन्य सत्ता न तो पाठ्यक्रम तय कर रहा था न ही डिग्री और परीक्षा का यह विकृत, जानलेवा, बाजारोन्मुखी, भौतिकवादी स्वरुप कहीं से भी ग्रामीण लोक समाज पर इस कदर हावी था कि आज की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी को महामारी बना दे, अपेक्षा ज्ञान संकलन और आत्मविद्या से परिमार्जन की थी महज रोजगार की नहीं , मनुष्य को, युवा को महज रोजगार का माध्यम नहीं समझा जा रहा था, इसी ज्ञान परंपरा के ह्रास से संभवतः राज्य, रोजगार और शिक्षा को आवंटन करने वाली प्रबल शक्ति बनती चली गयी और लोक की, गांवों की स्वायत्तत्ता अपनी आत्मविद्या के बल पर कभी एक पुख्ता रिस्पांस नहीं खड़ा कर पायी जो राज्याश्रय के बिना भी अपनी ज्ञान परंपरा को अक्षुण्ण रख सकता था और आज हालत यह है कि हम दान नहीं अनुदानों के कुचक्र में अपनी स्वयत्तता को तलाशने का भागीरथ और असफल प्रयास कर रहे हैं I

पर इन्हीं विषम परिस्थ्यों में जब मिथिला के एक गाँव सरिसब-पाही और उसकी संस्था अयाची डीह विकास समिति, कुछ ग्रामीण नैयायिक विद्वान और वहां के आम लोग जब अपने ज्ञान परंपरा के मूल को लेकर एक भागीरथ प्रयास करने को अग्रसर हैं जिसमें उन्होंने भारत भर से न्यायशाष्त्र से प्रकांड विद्वानों को इकठ्ठा कर चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध मैथिल विद्वानों अयाची(भवनाथ मिश्र) और शंकर मिश्र( इनके गाँव सरिसब में इनका चौपाड़ी(गाँव के बीच बसा एक ओपन स्पेस) ही इनका ज्ञानकेंद्र था, किसी भवन, राजभवन और राज्य के इंफ्रास्ट्रक्चर पर आश्रित हो इनकी ज्ञान परंपरा ने दम नहीं तोडा बल्कि गाँव के खुले परिवेश में बिना किसी बंधन, भेदभाव की बाध्यता के बगैर उनके ज्ञान का विमर्श चलता रहा) पर परिचर्चा और चमैनिया डाबर(तालाब) पर सितम्बर माह में विमर्श करने जा रहे हैं तो आशा जरूर बनती है कि न तो भारत के गाँव मरेंगे, न उसकी लोक उर्जा कम होगी और न ही वहां की ज्ञान परंपरा के आत्मविद्या तत्त्व के प्रति विश्व का रुझान कभी कम होगा क्यूंकि गांधी का भारत वहीँ साकार है और इसी ज्ञान परंपरा को गाँधी ने ‘सुन्दर वृक्ष’(अ ब्यूटीफुल ट्री) कहा था जिसमें उपनिवेश के प्रतिरोध का भरपूर बीज छुपा था और जो आज के भी नव उपनिवेशवाद का एक व्यापक रिस्पांस(प्रत्युत्तर) देने की माद्दा रखता है बशर्ते कि ज्ञान परंपरा को उसके मूल ग्राम्य परिवेश से जोड़कर ही किसी विकास का मॉडल तैयार होI सवाल यह भी है कि पंद्रहवीं सदी के शंकर मिश्र के चौपाड़ी जैसे ज्ञान परंपरा, शिक्षा के प्रारूप पर अभी तक विमर्श क्यूँ नहिं हो रहा, क्यूँ आज के राज्य और लोक ऐसे ओपन स्पेस की स्वायत्तता को मूल्य नहीं दे रहे? आखिरकार एक गाँव और उसके ग्रामीणों के कलेक्टटिव विजडम ने ही इतना बड़ा बीड़ा उठाकर यह साबित किया है कि गाँव अभी मरे नहीं और शंकर मिश्र का चौपाड़ी अपना स्वरुप बदल कर ही सही फिर से ज्ञान परंपरा का केंद्र बनने की क्षमता रखता है.

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के जानकी देवी मेमोरियल काॅलेज में इतिहास विभाग में प्राध्यापक हैं।)
savita.khan@gmail.com

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