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हिंदी साहित्यजगत के चर्चित आलोचक नामवर सिंह ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के अलावा दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में लंबे अरसे तक अध्यापन कार्य किया था। बीएचयू से हिंदी साहित्य में एमए और पीएचडी की डिग्री हासिल करने वाले नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य जगत में आलोचना को नया मुकाम दिया।
दीप्ति
डॉ. नामवर सिंह हिंदी साहित्य के बड़े रचनाकार हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य थे। उनकी गिनती हिंदी साहित्य जगत के बड़े समालोचकों में थी। उन्हें साहित्य अकादमी अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था। आलोचना में उनकी किताबें पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कहानी नई कहानी, कविता के नये प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज, वाद विवाद संवाद आदि मशहूर हैं। उनका साक्षात्कार कहना न होगा, भी साहित्य जगत में लोकप्रिय है।
डॉ. नामवार सिंह हिंदी आलोचना की वाचिक परंपरा के आचार्य कहे जाते हैं। जैसे बाबा नागार्जुन घूम-घूमकर किसानों और मजदूरों की सभाओं से लेकर छात्र-नौजवानों, बुद्धिजीवियों और विद्वानों तक की गोष्ठियों में अपनी कविताएं बेहिचक सुनाकर जनतांत्रिक संवेदना जगाने का काम करते रहे, वैसे ही नामवर जी घूम-घूमकर वैचारिक लड़ाई लड़ते रहे, रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, कलावाद, व्यक्तिवाद आदि के खिलाफ चिंतन को ही प्रेरित करते रहे हैं। इस वैचारिक, सांस्कृतिक अभियान में नामवर जी एक तो विचारहीनता की व्यावहारिक काट करते रहे हैं, दूसरे वैकल्पिक विचारधारा की ओर से लोकशिक्षण भी करते रहे हैं।
नामवर जी मार्क्सवाद को अध्ययन की पद्धति के रूप में, चिन्तन की पद्धति के रूप में, समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में, जीवन और समाज को मानवीय बनाने वाले सौंदर्य-सिद्धांत के रूप में स्वीकार करते हैं। एक माक्र्सवादी होने के नाते वे आत्मालोचन को भी स्वीकार करके चलते रहे हैं। वे आत्मालोचन करते भी रहे हैं। उनके व्याख्यानों और लेखन में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। आलोचना को स्वीकार करने में नामवर जी का जवाब नहीं। यही कारण है कि हिंदी क्षेत्र की शिक्षित जनता के बीच मार्क्सवाद और वामपंथ के बहुत लोकप्रिय नहीं होने के बावजूद नामवर जी उनके बीच प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हैं।
28 जुलाई, 1926 को तत्कालीन बनारस जिले के जीयनपुर गांव में नामवर सिंह का जन्म हुआ था। नामवर सिंह ने अपने लेखन की शुरुआत कविता से की और 1941 में उनकी पहली कविता ‘क्षत्रियमित्र’ पत्रिका में छपी। 1951 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमए करने के दो साल बाद वहीं हिंदी के व्याख्याता नियुक्त हुए। 1959 में चकिया चंदौली से कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव हारने बाद बीएचयू से अप्रिय परिस्थितियों में नौकरी छोड़नी पड़ी और उसके बाद सागर विश्वविद्यालय में कुछ दिन नौकरी की। 1960 में बनारस लौट आए। फिर 1965 में जनयुग साप्ताहिक के संपादन का जिम्मा मिला। 1971 में नामवर सिंह को कविता के नए प्रतिमान पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1974 में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त हुए और वहीं से 1987 में सेवा-मुक्त हुए।
नामवर सिंह एक प्रखर वक्ता भी थे। बकलम खुद, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियांष छायावाद, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, नई कहानी, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज उनकी प्रमुख कृतियां हैं।
हिंदी साहित्यजगत के चर्चित आलोचक नामवर सिंह ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के अलावा दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में लंबे अरसे तक अध्यापन कार्य किया था। बीएचयू से हिंदी साहित्य में एमए और पीएचडी की डिग्री हासिल करने वाले नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य जगत में आलोचना को नया मुकाम दिया। अध्यापन की कड़ी में जेएनयू से पहले उन्होंने सागर (मध्य प्रदेश) और जोधपुर यूनिवर्सिटी (राजस्थान) में भी पढ़ाया। जनयुग और आलोचना नाम की दो हिंदी पत्रिकाओं के वह संपादक भी रहे। 1959 में उन्होंने चकिया-चंदौली सीट से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से चुनाव लड़ा, लेकिन हार के बाद बीएचयू में पढ़ाना छोड़ दिया।
नामवर जी की विशिष्टता की परंपरा की ऐतिहासिक पहचान यदि की जाए, तो आधुनिक युग में इस परंपरा में भारतेंदु, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. भगवत शरण उपाध्याय जैसे लेखक और विद्वान ही दीखते हैं। इन विद्वानों ने जनचेतना की जरूरत से जुड़े प्रश्नों से संबंधित ज्ञान की जितनी शाखाओं में व्यापकता और गहराई के साथ विभिन्न विषयों पर लिखा है, उतने बड़े पैमाने पर नामवर जी ने लिखा भले ही न हो, लेकिन प्रतिक्रियावादी शक्तियों से वैचारिक संघर्ष करने तथा आज की जरूरत के मुताबिक सकारात्मक विचारधारा विकसित करने की उनकी तैयारी उन्हीं विद्वानों की तरह गहन और व्यापक है। इसीलिए कहीं भी, किसी समय, किसी भी विषय पर बोलने के लिए नामवर जी आमंत्रण स्वीकार कर लेते थे। आखिरकार, 19 फरवरी, 2019 की आधी रात को वे अनंत यात्रा पर निकल गए।
रचनाएं
बकलम खुद – व्यक्तिव्यंजक निबन्धों का संग्रह, कविताओं तथा विविध विधाओं की गद्य रचनाओं के साथ संकलित
शोध
हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग – 1952
पृथ्वीराज रासो की भाषा – 1956 (अब संशोधित संस्करण श्पृथ्वीराज रासोरू भाषा और साहित्यश् नाम से उपलब्ध)
आलोचना
आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां – 1954
छायावाद – 1955
इतिहास और आलोचना – 1957
कहानी: नयी कहानी – 1964
कविता के नये प्रतिमान – 1968
दूसरी परंपरा की खोज – 1982
वाद विवाद और संवाद – 1989
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