आखिर क्या है पदमावति विवाद की सियासत ?

‘पद्मावती’ पर विवाद कौन लोग कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? और किस पद्मावती पर चर्चा जारी है? मलिक मोहम्मद जायसी की पद्मावती, जिसे उन्होंने पद्मावत में 1540 में रचा था या कि संजय लीला भंसाली की पद्मावती, चर्चा किस पर है? संजय ने अपनी फिल्म में एक पात्र का चयन किया, उसका निर्वहन उन्होंने राजपूती मर्यादा में किया या नहीं, इसका पता भी फिल्म देखने के बाद ही चलेगा।

अनंत अमित

आजकल जो भी फिल्म बन रही है, उसमें जान-बूझकर ऐसे प्रसंग डाले जा रहे हैं जिससे उसका विरोध हो और फिल्म को बैठे-ठाले बिना किसी प्रयास के, बिना आना-पाई खर्च किए अचानक बला का प्रचार मिल जाए। कोई भी फिल्म निर्माता संदर्भों, अभिनय कला, नृत्य और गुणवत्ता के आधार पर दर्शकों के बीच जाना ही नहीं चाहता। आजकल निर्माताओं के बीच एक चलन विकसित हुआ है कि उनकी फिल्म प्रदर्शन के पहले ही दिन करोड़ के क्लब में शामिल हो जाए। सवा अरब से अधिक की आबादी वाले देश में महज करोड़ी क्लब में शामिल होने की चाहत निर्माताओं की सोच का बौनापन नहीं तो और क्या है? संजय लीला भंसाली का विरोध पुणे में बाजीराव मस्तानी फिल्म को लेकर भी हुआ था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विवादित विषयों को अपनी फिल्म में स्थान देना उनका शगल रहा है। यह अलग बात है कि उन्हें शशि थरूर जैसे राजनीतिक समर्थक भी मिलते रहते हैं लेकिन उन्हें भी अपने ही दल के माधवराव सिंधिया के प्रतिवाद के समक्ष मुंह की खानी पड़ती है।
मलिक मोहम्मद जायसी की पद्मावती, जिसे उन्होंने पद्मावत में 1540 में रचा था या कि संजय लीला भंसाली की पद्मावती, चर्चा किस पर है? सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत में प्रेम ज्योति भास्वर है, वहां शब्द और अर्थ दोनों रूपों में उनका रचना संसार अनूठा है। अब यह कहना कि पद्मावती वस्तुत: इतिहास का पात्र नहीं है, इसलिए फिल्म में उदारवादी रुख अपना लिया गया है। पर्याप्त तर्क नहीं हैं। थोड़ी देर के लिए ऐसा ही मान लें कि वह इतिहास का पात्र नहीं है, एक मिथकीय संरचना है। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि मिथक संपूर्ण रूप में काल्पनिक नहीं होता, उसमें कल्पनाशीलता जरूर होती है, लेकिन वह समय और समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाता है, वह समाज के किसी वर्ग का हिस्सा भी हो सकता है, जैसा कि पद्मावत में भी है। वह राजपुतानी है।
इतना भी अगर मान लें तो फिर आपकी जिम्मेदारी हो जाती है कि आप उस समय की मान्यताओं को आहत करने से बचें, बल्कि हो सके तो उन्हें दुलराएं, ताकि समाज चिह्नित प्रेरक बिंदु की ओर अग्रसर हो। भाषागत रूप में अपनी विवरणिका में जायसी अद्वितीय हैं। उन्होंने लिखा- ‘नैनहि नैन जो बेधिगै, नहि निकसहि बै बान। हिए जो आखर तुम लिखे, ते सूठि घटहि परान।।’ ऐसे बाण नहीं निकाले जा सकते, जो नयनों के आपस में बिंध जाने से चुभते हैं, मेरे ह्दय में तुमने जो अक्षर लिखे वे सचमुच मेरे घट में अर्थात देह में बसे प्राण में बसते हैं। यह जो माधुर्य है, वह उनके अवधि में होते हुए भी काव्य-शिल्प को चिरस्मरणीय बनाता है। ऐसे पात्र पर काम करते हुए चलताऊ श्रेणी की फिल्म उस किरदार का अपमान होगा जिसे जायसी ने जन्माया है। यह तब भी आलोचना का विषय होगा, जब उसमें उत्सर्ग उत्सवी न बन पाया हो, यह तब भी आलोचना का विषय है, यदि उसमें केंद्रीय पात्र का समाज अपनी अवहेलना देख रहा हो या मानता हो कि ऐसा करना उन सब लोगों के पुरखों की मान्यता के साथ खेलना है।
पद्मावती फिल्म की अभिनेत्री दीपिका पादुकोण पहले भी विवादों में घिरी रही हैं। महिलाओं की दैहिक आजादी की वकालत का उनका तरीका प्रबुद्ध तबके को कभी रास नहीं आया। इसके लिए वोग मैग्जीन के लिए उन्होंने ‘माय चॉइस’ नामक वीडियो कराया था, वह भी काफी विवादों के घेरे में रहा। वीडियो में शादी से इतर संबंध बनाने को दीपिका ने अपनी मर्जी बताया, जिस पर कुछ लोगों की नाराजगी खुलकर सामने आई। एक पार्टी में रणबीर कपूर के रिश्ते के भाई अरमान और आदार जैन के साथ खिंचवाई तस्वीरों को लेकर भी वे इंस्टाग्राम पर खूब ट्रोल र्हुइं। करण जोहर के शो पर दीपिका से उनके और रणबीर कपूर के ब्रेक अप पर चर्चा शुरू हुई, तो रणबीर की बेवफाई के बारे में दीपिका ने कहा कि रणबीर को कंडोम का विज्ञापन करना चाहिए। बेटे के बारे में ऐसी बात सुन ऋषि कपूर काफी नाराज हुए थे। कॉफी विद करण पर दीपिका ने सोनम कपूर के साथ प्लास्टिक सर्जरी कराने वाली अभिनेत्रियों पर चुटकी ली थी। फिल्म उद्योग की कई हस्तियों को यह नागवार गुजरा। पद्मावती’ को लेकर भाजपा ही नहीं, कांग्रेस भी नाराज है। यह अलग बात है कि संजय लीला भंसाली और दीपिका के समर्थकों और विरोधियों के बीच वाचिक घमासान जारी है। फिल्म जारी होने पर क्या होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
लेकिन इस पर भी हरियाणा के मंत्री गोयल की टिप्पणी या कि तलवार लेकर प्रदर्शन करना, या कि हिंसा की धमकी देना किसी भी तरह से ठीक नहीं है। असहमतियां नजरिए की आवश्यकता निष्पति हैं। असहमति के लिए सभी स्वतंत्र हैं, लेकिन हिंसा के लिए नहीं। ठीक इसी तरह भंसाली को भी चाहिए कि चाहे इसमें कानून का उल्लंघन हो रहा हो या न हो रहा हो, इसमें हमारे देश के लोगों की मान्यताओं का उल्लंघन तो हो ही रहा है। यदि ऐसा कुछ फिल्म में नहीं है तो उन्हें स्पष्टीकरण देना चाहिए, जो नहीं किया जा रहा। कोशिश सिर्फ इतनी है कि फिल्म जैसी भी है, उसे स-समय रिलीज हो जाना चाहिए। मगर याद रखा जाना चाहिए कि भारतीय मिथक हो या इतिहास के पात्र किसी के साथ भी लिबर्टी की इजाजत इस देश का समाज नहीं देता।
संजय लीला भंसाली और अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के सिर पर क्षत्रिय समाज की ओर से इनाम रख दिया गया है। इनाम की राशि भी छोटी-मोटी नहीं है। देवेंद्र फड़नवीस सरकार ने भले ही संजय लीला भंसाली की सुरक्षा बढ़ा दी है। उन्हें सुरक्षा गार्ड उपलब्ध करा दिए हैं लेकिन इससे जन विरोध की त्वरा कम नहीं हो सकती। दीपिका की नाक-कान काटने, गला काटने और उन्हें जिंदा जलाने के लिए अलग-अलग लोगों द्वारा इनाम घोषित किए गए हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में यह खतरनाक प्रवृत्ति है और सरकार को ऐसा करने वाले लोगों को अविलंब दंडित करना चाहिए। किसी को हत्या के लिए उकसाना दंडनीय अपराध है। इसकी जितनी भी आलोचना की जाए, कम है। फिल्म निर्माताओं को भी विवाद का तड़का लगाने से पहले सौ बार सोचना चाहिए कि उनका यह प्रयोग समाज के किसी वर्ग को आहत तो नहीं करेगा। भाषा की मर्यादा होती है और मनोरंजन भी मर्यादा में ही अच्छा लगता है।
सच तो यह है कि पद्मावती फिल्म बनाकर संजय लीला भंसाली बुरी तरह फंस गए हैं। राजस्थान ही नहीं, देश के अन्य राज्यों में इस फिल्म का विरोध हो रहा है। कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने केंद्र सरकार को पत्र लिख दिया है कि फिल्म से विवादित अंश को हटाए बिना इसे प्रदर्शित करने की अनुमति न दी जाए। इस तरह का पत्र लिखने वाले योगी आदित्यनाथ पहले मुख्यमंत्री रहे हैं। हालांकि उन्होंने इसके लिए कानून व्यवस्था के संकट की आड़ ली। उनके तर्क में दम भी था कि उत्तर प्रदेश में शहरी निकाय के चुनाव हैं। पुलिस चुनाव में व्यस्त रहेगी। ऐसे में फिल्म के प्रदर्शित होने के बाद होने वाले उपद्रव को रोक पाना सरकार के लिए कठिन होगा। एक तरह से मुख्यमंत्री का फिल्म ‘पद्मावती’ और उसके निर्देशक व कलाकारों के प्रति यह साॅफ्ट काॅर्नर है लेकिन जिन राज्यों में चुनाव नहीं हो रहे हैं, उन्हें तो हर हाल में फिल्म को प्रदर्शित होने से रोकना ही है। भाजपा शासित अधिकांश राज्यों में इस फिल्म का जमकर विरोध हो रहा है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने तो रानी पद्मावती को राजमाता की संज्ञा दे दी है। उन्होंने राज्य में इस फिल्म के प्रदर्शन पर पूरी तरह रोक लगा दी है। बीस से अधिक विधायकों ने मुख्यमंत्री को ज्ञापन देकर इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग की है। देश भर से इसी तरह की आवाज उठ रही है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने भी कहा है कि किसी भी फिल्म निर्माता को जन भावनाओं से खेलने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
फिल्में मनोरंजन ही नहीं है, वह जनमानस भी बनाती हैं। ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों पर फिल्म या सीरियल बनाते वक्त हमें रामानंद सागर और बीआर चोपड़ा जैसी संवेदनशीलता और अध्ययनप्रणवता का परिचय देना चाहिए। फिल्मकारों को सोचना होगा कि आज फिल्में बाॅक्स आॅफिस पर धमाल तो मचा रही हैं लेकिन समाज पर प्रभावी असर डाल पाने में नाकाम साबित हो रही हैं। अब समय आ गया है कि कमाई को लक्ष्य कर नहीं, देश को आगे रखकर फिल्में बनाई जाएं। भंसाली फिल्म निर्माण के वक्त ही करणी सेना का विरोध झेल चुके थे। जयगढ़ किले में उनका पूरा सेट नष्ट कर दिया गया था। इसके बाद भी उन्होंने मुंबई में शूटिंग की, यह उनकी दिलेरी ही है लेकिन क्या इस तरह की दिलेरी वे अन्य धर्मों पर भी फिल्म बनाकर दिखा सकते हैं। हिंदुओं को अपमानित करना ही क्या आज की निरपेक्षता है? शाहिद कपूर कह रहे हैं कि फिल्म अच्छी मंशा से बनाई गई है। अगर ऐसा है तो उसका विरोध क्यों हो रहा है? शाहिद ने फिल्म में काम किया है। स्वाभाविक है कि उन्हें अपना काम अच्छा लगे लेकिन सवाल यह है कि जो चीज सर्वविदित है। पूरी दुनिया जानती है, अगर उसमें विरोध होगा तो जनता को यह जानने का हक तो है ही कि किस अधिकार के तहत ऐसा किया गया? जनता के आक्रोश को दिल पर लेने की बजाय फिल्म निर्माताओं और कलाकारों को यह तो सोचना ही होगा कि मनोरेजन के नाम पर वे कितना फूहड़पन परोस रहे हैं। तिस पर तुर्रा यह है कि दृष्टा की आंख को ही गलत भी ठहरा रहे हैं। ऐसे में जनता के समक्ष विकल्प क्या है? धन का नुकसान तो फिर भी झेला जा सकता है लेकिन मानसिक प्रदूषण काबिले बर्दाश्त नहीं है। संजय लीला भंसाली को अपना पक्ष रखना चाहिए। गुपचुप प्रयासों से बेहतर होगा कि वे खुलकर मीडिया को बताएं कि उन्होंने इतिहास से कोई छेड़छाड़ नहीं की है। सेंसर बोर्ड से इस्तीफा देने वालों को भी सोचना होगा कि अब तक मसाला फिल्मों में मनोरंजन के नाम पर जो कुछ परोसा गया है, उस पर सहमति व्यक्त करने के लिए उन्हें क्यों न दोषी माना जाए?

 

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