उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार में पाॅवर फाइट!

संदीप ठाकुर

नई दिल्ली। आखिर राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्ली में शासन का प्रमुख काैन है? आखिर दिल्ली में किसके आदेश का पालन हाेना चाहिए ? आखिर दिल्ली में कानून बनाने आैर फिर उसके पालन करवाने की जिम्मेदारी किसकी हाेनी चाहिए ? आखिर जनता किससे काम की उम्मीद कर सकती है ? आखिर जनता के प्रति उत्तरदायित्व काैन ? आखिर दिल्ली के विकास के लिए जवाबदेह काैन ? आखिर दिल्ली का बादशाह काैन ? उपराज्यपाल या मुख्यमंत्री।
दरअसल, केंद्र सरकार द्वारा मनाेनीत उपराज्यपाल आैर जनता द्वारा निर्वाचित मुख्यमंत्री के बीच छिड़े शीत युद्ध ने इन सवालाें काे जन्म दिया है। उपराज्यपाल आैर मुख्यमंत्री के बीच अधिकार का टकराव इस कदर बढ़ गया है कि मामला देश के शार्षस्थ अदालत सुप्रीम काेर्ट तक जा पहुंचा है। उधर सरकार के अधिकार काे लेकर ही विगत दाे वर्षाें से मामला उच्च न्यायालय में भी चल रहा है। अधिकार की इस लड़ाई का खामियाजा दिल्ली की पाैने दाे कराेड़ की आबादी काे भुगतना पड़ रहा है। विकास कार्य करीब करीब ठप्प है। दूसरे कई काम भी बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। नाैबत यहां तक आ पहुंची है कि दिल्ली सरकार के छाेटे से छाेटे आदेश पर भी उपराज्यपाल काेई न काेई अंड़गा लगा मामले काे लटका देते हैं।
लटकाने की राजनीति का असर विभागाें पर भी पड़ा है। दिल्ली सरकार में कर्मचारियों की भारी कमी हाे गई है। केजरीवाल सरकार और एलजी के बीच कई मसलों पर मतभेदों का खामियाजा यह है कि सरकारी कर्मचारियों के 50 फीसदी पोस्ट खाली पड़े हैं।
सूत्राें के अनुसार, दिल्ली के 20 महत्वपूर्ण विभागों में कर्मचारियों की 20 फीसदी से लेकर 87 फीसदी तक कमी है। बिजली विभाग में कर्मचारियों की 20 प्रतिशत तो कानून विभाग में 87 प्रतिशत पाेस्ट खाली पड़े हैं। सरकारी सूत्रों का कहना है कि हालत काफी गंभीर है और इससे कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं के लागू होने पर असर पड़ रहा है। दिल्ली में प्रदूषण घटाने के लिहाज से परिवहन विभाग की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है, लेकिन इस विभाग में कर्मचारियों के 62.7 फीसदी पोस्ट खाली पड़े हैं। इसी तरह राजस्व, आबकारी, मनोरंजन एवं लग्जरी टैक्स, समाज कल्याण, शिक्षा, सांख्य‍िकी एवं अर्थशास्त्र तथा नियोजन विभाग में आधे पोस्ट खाली पड़े हैं। बुनियादी ढांचे के विकास के लिए महत्वपूर्ण पीडब्ल्यूडी में कर्मचारियों की 40 फीसदी तक की कमी है। केंद्र के प्रतिनिधि उपराज्यपाल आैर जनप्रतिनिधि मुख्यमंत्री केजरीवाल की लडाई का खामियाजा आखिर किसे भुगतना पड़ रहा है। यकीकन दिल्ली की जनता हाे।
हाई काेर्ट ने दिल्ली का मालिक उपराज्याल काे बताया है। यानी उपराज्यपाल का आदेश ही सर्वाेपरि हाेगा। इसका नतीजा क्या हाे रहा है ? समझने-समझाने के लिए चंद बानगी पेश है। प्रदूषण के कारण दिल्ली में हाल ही में पार्किंग का चार्ज बढ़ा कर चार गुणा कर दिया गया था। दिल्ली सरकार ने अब चार्ज वापस ले लिया है। लेकिन दिल्ली मेट्राे ने सरकार के आदेश काे मानने से इंकार करते हुए कहा है कि वह चार्ज तभी वापस लेगा जब उपराज्यपाल कहेंगे। इसमें नुकसान किसका है। आम लाेगाें का। इसी तरह किसानो की ज़मीन का सर्किल रेट दिल्ली सरकार ने बढ़ाया, लेकिन एलजी की सहमति के बिना वह अवैध है। इसके ख़त्म हो जाने से किसे झटका लगा, अरविन्द केजरीवाल या दिल्ली सरकार को या दिल्ली के मेहनतकश किसानों को? दिहाड़ी बढ़ाने का कानून अवैध घोषित करने से किसको झटका लगा? दिल्ली सरकार को या दिल्ली में दिहाड़ी कर अपनी रोज़ी कमाने वाले मेहनती लोगो को? स्कूलों की मनमानी पर रोकने के दिल्ली सरकार के फैसले को ख़ारिज करके, भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम पर रोक लगाकर, बिजली कंपनियों पर कसी नकेल हटाकर इस फैसले ने आखिर किसे झटका दिया है? किसानों, मजदूरों, छात्रों, अभिभावकों, आम आदमी को या दिल्ली सरकार और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को?
वैसे दिल्ली का बॉस कौन पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एलजी ही दिल्ली के बॉस हैं । लेकिन साथ ही ये भी कहा कि वो दिल्ली सरकार की फ़ाइलें नहीं रोक सकते। उनकी भी जवाबदेही बनती है। दरअसल दिल्ली में अधिकाराें काे लेकर सारा मामला उलझा हुआ है। जैसे आईपीएस,आईएएस या डिप्टी सेकेट्री आदि तो केंद्र के अधीन हैं लेकिन दिल्ली सरकार के किस विभाग में वो काम करें, यह दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र का विषय है। लेकिन उपराज्यपाल दिल्ली सरकार के कर्मियों भी नियुक्तियों की फाइल पर भी फैसले ले लेते हैं। जैसे दिल्ली फायर सर्विस दिल्ली सरकार के अधीन है लेकिन नियुक्तियाें काे मंजूरी एलजी देते हैं।
सरकार और उपराज्यपाल के बीच मतभेद पॉलिसी मैटर में हो सकते है, मगर ये मतभेद सिर्फ मतभेद के लिए नहीं हो सकते। उपराज्यापाल के पास निहित दखल देने की जिम्मेदारी भी अपने आप में संपूर्ण नहीं है। वो हर फैसले में ना नहीं कर सकते, वो सिर्फ इसे राष्ट्रपति के पास उनकी राय के लिए भेज सकते हैं। लेकिन दिल्ली में एेसा नहीं हाे रहा। एलजी फैसले काे नामंजूर कर देते हैं। कुछ माह पहले दिल्ली सरकार ने हाेम सेक्रेटरी काे हटा दिया था लेकिन केंद्र सरकार ने साफ कहा कि दिल्ली सरकार हाेम सेक्रेटरी काे हटा ही नहीं सकती क्याेंकि उनके पास सेक्रेटरी काे हटाने का अधिकार ही नहीं है। तो सवाल फिर वही कि क्या ये हितो का टकराव नहीं है? क्या हमें मान लेना चाहिए कि प्रतिकों की इस लड़ाई में केन्द्र या दिल्ली सरकार में से किसी की भी जीत हो, लेकिन हारना हर हाल में दिल्ली की जनता को है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

 

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