बीएचयू के कुलपति के रूप में मात्र एक रूपया लेते थे डाॅ लालजी सिंह

धनंजय गिरि

भारत के मशहूर डीएनए वैज्ञानिक और काशी हिंदी विश्वविद्यालय (बीएचयू) के पूर्व कुलपति डॉ. लालजी सिंह का 70 साल की उम्र में निधन हो गया है। डीएनए फिंगरप्रिंट के जनक लालजी सिंह हैदराबाद के सेलुलर और आणविक जीव विज्ञान केंद्र के पूर्व निदेशक भी रह चुके हैं। डॉ. लालजी सिंह को डीएनए फिंगरप्रिटिंग का जनक कहा जाता है।
जौनपुर के ब्लॉक सिकरारा कलवारी गांव निवासी डॉ. लालजी सिंह अपने गांव आए हुए थे। वे रविवार को हैदराबाद के लिए रवाना होने वाले थे, उनकी फ्लाइट बाबतपुर एयरपोर्ट से शाम साढ़े पांच बजे की थी। उन्हें शाम करीब 4 बजे दिल का दौरा पड़ गया। आनन-फानन में उन्हें बीएचयू के सर सुंदरलाल अस्पताल ले जाया गया, जहां इलाज के दौरान रात करीब 10 बजे उनका देहांत हो गया. डॉ. लालजी बीएचयू के 22 अगस्त 2011 से 22 अगस्त 2014 तक कुलपति भी रह चुके हैं.
लालजी संिह का जन्म 5 जुलाई 1947 को हुआ था। यूपी के जौनपुर जलिे के सदर तहसील और सकिरारा थानाक्षेत्र के कलवारी गांव के नविासी थे। इनके पतिा का नाम स्व. ठाकुर सूर्य नारायण सिंह था। इंटरमीडिएट तक शिक्षा जिले में लेने के बाद उच्च शिक्षा के लिए 1962 में बीएचयू गए, जहां उन्होंने बीएससी, एमएससी और पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। 1971 में देश में पहली बार 62 पन्नों का उनकी पीएचडी की थीसिस जर्मनी के फॉरेन जनरल में छपा था। उसके बाद कलकत्ता यूनिवर्सिटी के रिसर्च यूनिट (जूलॉजी) जेनेटिक में फेलोशिप के तहत 1971-1974 तक रिसर्च करने का मौका मिला। 1974 में पहली बार कॉमनवेल्थ फेलोशिप के तहत यूके जाने का मौका मिला। काफी दिन वहां रिसर्च के बाद भारत लौट आए। 1987 में कोशकीय और आण्वकि जीव विज्ञान केंद्र हैदराबाद (सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी) में साइंटिस्ट के तौर पर नियुक्त हुए। 1999 से 2009 तक यही डायरेक्टर के पद पर तैनात रहे।
डॉक्टर लालजी सिंह ने भारत में पहली बार क्राइम इन्वेस्टिगेशन के लिए साल 1988 में डीएनए फिंगरप्रिंटिंग का इस्तेमाल किया। पितृत्व से जुड़े इस मामले को सुलझाने के लिए साल 1991 में, सिंह ने पहला डीएनए फिंगरप्रिंटिंग आधारित सबूत भारतीय न्यायालय में पेश किया। इसके बाद से कई मामलों में इस तकनीक का इस्तेमाल किया गया। डीएनए फिंगरप्रिंटिंग से मामलों को सुलझाने में मिलने वाली बड़ी मदद के बाद इस तकनीक को भारत की कानूनी प्रणाली में सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। इस क्षेत्र में सिंह के काम को देख भारत सरकार ने जैव प्रौद्योगिकी के लिए 1995 में डीएनए फिंगरप्रिंटिंग एंड डायग्नोस्टिक्स (सीडीएफडी) के लिए एक स्वायत्त संस्थान, डीएनए फिंगरप्रिंटिंग एंड डायग्नोस्टिक्स (सीडीएफडी) बनाने के लिए प्रेरित किया, ताकि देश में डीएनए फिंगरप्रिंटिंग सेवाएं मिल सके. इसका प्रमुख उद्देश्य ह्यूमन आइडेंटिफिकेशन था।
डा. लालजी सिंह अगस्त 2011 से अगस्त 2014 तक बीएचयू के कुलपति रहे। लालजी सिंह ने जहां से शिक्षा-दीक्षा ली वहीं उन्होंने अंतिम सांस भी ली। कुलपति के कार्यकाल के दौरान वह मात्र एक रुपये वेतन लिया करते थे। इंटरमीडिएट तक शिक्षा जौनपुर जिले में लेने के बाद उच्च शिक्षा के लिए 1962 में श्री सिंह बीएचयू चले आए थे। यहां से उन्होंने बीएससी, एमएससी और पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। जून 1987 में सीसीएमबी हैदराबाद में वैज्ञानिक पद पर कार्य करने लगे और 1998 से 2009 तक वहां के निदेशक रहे। डॉ लालजी सिंह हैदराबाद स्थित कोशिकीय एवं आणविक जीवविज्ञान केन्द्र के भूतपूर्व निदेशक थे। वह भारत के नामी जीवविज्ञानी थे। लिंग निर्धारण का आणविक आधार, डीएनए फिं गरप्रिंटिंग, वन्यजीव संरक्षण, रेशमकीट जीनोम विश्लेषण, मानव जीनोम एवं प्राचीन डीएनए अध्ययन आदि उनकी रुचि के प्रमुख विषय थे। 45 वर्षों में 230 रिसर्च पेपर प्रकाशित हुए थे। 2004 में उन्हें भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें पद्मश्री से विभूषित किया गया।
बता दें कि सिंह ने अपनी बी.एससी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से 1 9 64 में डिग्री सिंह ने 1 9 66 में बीएचयू में अपनी मास्टर की डिग्री में उच्चतम अंक अर्जित किए, और योग्यता के क्रम में पहले खड़े होने के लिए बनारस हिंदू गोल्ड मेडल जीता। 1 9 66 में उन्हें यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (इंडिया) से जूनियर रिसर्च फैलोशिप (जेआरएफ) से सम्मानित किया गया था। सिंह ने 1 9 71 में ष्डॉक्टरों के विकास के लिए सांपों के विकासष् पर अपने काम के लिए 1 9 71 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अपने डॉक्टरेट प्राप्त करने के लिए चले गए। प्रोफेसर एस पी रे चैधरी के मार्गदर्शन में साइटोनेटिक्स के क्षेत्रफल उनके डॉक्टरेट की थीसिस को क्रोमोसोमा में प्रकाशित किया गया था, जो अंतर्राष्ट्रीय सहयोगी की स्प्रिंगर लिंक की जर्नल की समीक्षा की गई थी। सिंह ने 1 9 74 में युवा वैज्ञानिकों के लिए आईएनएसए पदक प्राप्त किया, साइटोगनेटिक्स के क्षेत्र में अपने अनुसंधान कार्य के लिए. 1 9 68 में एक परास्नातक छात्र के रूप में अपने शुरुआती विज्ञान के कैरियर के दौरान, सिंह को भारतीय सांपों के साइटोगनेटिक्स का अध्ययन करने में रुचि हो गई। 1 9 70 के दशक के दौरान, भारतीय सांप की एक प्रजाति में सेक्स क्रोमोसोम के विकास का अध्ययन करते समय, बैंडित क्रेट, सिंह और उनके सहयोगियों ने बैंडेड क्रैट और अन्य रीढ़ों में एक अत्यधिक संरक्षित दोएनए अनुक्रमों की पहचान की, जिसमें उन्होंने ष्बंद किए गए काल्पनिक माइनर ष्(बीकेएम) 1 9 80 में अनुक्रम। इन बीकेएम अनुक्रमों को विभिन्न प्रजातियों में संरक्षित किया गया और मानवों में बहुरूपता पाया गया। 1 9 87 से 1 9 88 में, सीसीएमबी में काम करते वक्त, सिंह ने स्थापित किया कि यह बीकेएम-व्युत्पन्न जांच का उपयोग फॉरेंसिक जांच के लिए मनुष्य के विशिष्ट डीएनए फिंगरप्रिंट उत्पन्न करने के लिए किया जा सकता हैय और 1 9 88 में उन्होंने भारत में मूल विवाद के मामले को हल करने के लिए पहली बार उस जांच का इस्तेमाल किया। 1 99 1 में, सिंह ने विवादित पितृत्व को सुलझाने के लिए भारतीय न्यायालय में पहला डीएनए फिंगरप्रिंटिंग आधारित सबूत पेश किया इसके बाद डीएनए फिंगरप्रिंटिंग सैकड़ों सिविल और आपराधिक मामलों के समाधान के आधार पर किया गया, जैसे कि बेअंत सिंह और राजीव गांधी, नैना साहनी तांडूर हत्याकांड, स्वामी प्रेमानंद केस, स्वामी श्रद्धानंद मामले, और प्रियदर्शनी मट्टू की हत्या के मामले हत्या का मामला
इसने डीएनए फिंगरप्रिंटिंग को भारत की कानूनी व्यवस्था में सबूत के रूप में इस्तेमाल करने की स्थापना की। इस क्षेत्र में सिंह के काम ने भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी के लिए 1 99 5 में डीएनए फिंगरप्रिंटिंग एंड डायग्नोस्टिक्स (सीडीएफडी) के लिए एक स्वायत्त संस्थान, डीएनए फिंगरप्रिंटिंग एंड डायग्नोस्टिक्स (सीडीएफडी) बनाने के उद्देश्य से डीएनए फिंगरप्रिंटिंग सेवाएं देश को विशेष रूप से मानव पहचान उद्देश्यों के लिए प्रदान की। भारत में स्वदेशी डीएनए फिंगरप्रिंटिंग प्रौद्योगिकी के विकास और स्थापना के लिए सिंह का आजीवन योगदान राष्ट्र द्वारा मान्यता प्राप्त था और अब वह भारत में डीएनए फिंगरप्रिंटिंग का पिता के रूप में लोकप्रिय है।
डीएनए फिंगरप्रिंटिंग की तकनीक का इस्तेमाल डॉक्टर लालजी सिंह ने हत्या से जुड़े कई मामलों को सुलझाने में किया। जिसमें से एक राजीव गांधी हत्याकांड का मामला भी था। इसके साथ ही नैना साहनी जो तंदूर मर्डर केस के नाम से मशहूर था, इस मामले में भी हत्यारे को पकड़ने में डॉ. लालजी सिंह की डीएनए फिंगरप्रिंटिंग तकनीक ने अहम भूमिका निभाई। इनके अलावा स्वामी श्रद्धानंद, सीएम बेअंत सिंह, मधुमिता और मंटू मर्डर केस की जांच और उसे सुलझाने के लिए इंडियन डीएनए फिंगर प्रिंट तकनीक का इस्तेमाल किया गया।

(लेखक सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र से जुडे हैं।)

Leave a Reply

Your email address will not be published.