और तुम मेरे सपने में आते ज़रूर हो
पर छट-पटा रहे होते हो
किसी और के इंतज़ार में।
इधर क्या ख़्वाब, क्या हक़ीक़त
बुनती रही मोहब्बत आस की गोटेदार, रंग-बिरंगी रस्सियों से आस का आशियाना।
जिसकी नर्म, गुदाज़ और मज़बूत हो बाहें तुम जैसी।
तुम्हारी ही बाहों में दुबकी हंसूं, धड़के सांस मेरी
अंतिम हिचकी भी रब्बा
लूँ यहीं।
जब तेरी देह की मादक खुशबु के साथ नथुनों में कोई और गंध मुझमें समाई जाती है।
सांस अटक-अटक जाती है प्रिये।
उदास नहीँ हूं
स्पंदहीन हो गई हूँ।
ये जिस्म और रूह के बीच की कशमकश है
जो न जीने दे रही
न मरने ही।
बेवफ़ा या मतलबी कह देने भर से रिश्ते बे-मानी नहीँ हो जाते, जैसा तुम कहते और सोचते हो।
क्योंकि बिना वफ़ा के बे-वफ़ा भी नहीँ हुआ जाता।
ये यक़ीन मेरा है।
और यही है कशमकश मेरी।
रीतू कलसी, नोएडा