‘नाम’ की नहीं, काम की होंगी सरपंच

14 राज्यों में शहरी निकायों में और करीब 17 राज्यों की पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण है। देश के लगभग 14 राज्यों ने अपने पंचायती राज अधिनियमों में संशोधन करके महिलाओं को 50 प्रतिशत तक आरक्षण का प्रावधान कर दिया है। इसी वर्ष मानसून सत्र में पंचायती राज्य मंत्री परषोत्तम रूपाला ने लोक सभा में बताया कि देश में पंचायती और निकायों में महिला भागीदारी के तौर पर 14,39,436 महिला प्रतिनिधि हैं। उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 3,71,744 निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों में 19,992 महिला सरपंच हैं, उसके बाद महाराष्ट्र में 13,960 महिला सरपंच हैं।

प्रतिभा कुशवाहा

‘मुखिया पति’ या ‘सरपंच पति’, यह सम्बोधन उस व्यवस्था के लूप होल है, जिसे बड़ी सद्इच्छा से शुरू किया गया था। ढाई दशक पहले राजनीतिक सत्ता में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए त्रि-स्तरीय स्थानीय चुनावों में आरक्षण देकर उनके हक और हुकूक को पुख्ता किया गया था। इन प्रावधानों को बनाने के पीछे यह मान्यता थी कि इससे महिला सशक्तिकरण में इजाफा होगा। महिलाओं में आत्म-सम्मान, आत्मविश्वास और निर्णय लेने की क्षमता का विकास किया जाएगा। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि संविधान से मिले इस अधिकार का महिलाएं उपयोग नहीं कर सकीं, और वे पुरुषों की रबर स्टाम्प बनकर रह गईं। देश के विभिन्न राज्यों में पंचायत और निकाय चुनाव हुए, महिलाएं आरक्षण के बल पर चुनकर आईं, पर वे ‘डमी सरपंच’ ही बनकर रह गईं। 1993 से मिले इस अधिकार का उपयोग अब तक महिलाएं कर तो रही हैं, पर वे अपने पुरुष साथियों की छाया मात्र ही बनी रह गई हैं, फिर चाहे वे उनके पति हों, बेटे हों या पिता ही क्यों न हों। इस साल पंचायत दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ‘मुखिया पति’ या ‘सरपंच पति’ जैसी बुराई की तरफ इशारा किया था। ऐसा क्यों है, इसे समझने के लिए किसी बहुत बड़े शोध की जरूरत नहीं होगी? महिलाओं का सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा होना, शिक्षा की कमी, पुरुष सत्तात्मक समाज, महिलाओं की सार्वजनिक भागीदारी कम होना, उन्हें बाहर के कामों के लिए अयोग्य मानने की मानसिकता, ऐसे बहुत से कारक हैं, जो संविधान से मिले अधिकारों के उपयोग के लिए एक महिलाओं को नि:सहाय कर देते हैं।

शायद यही सब सोचकर और ध्यान में रखकर वास्तविक रूप से महिलाओं की भागीदारी बनाए रखने के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका संजय गांधी ने 27 नवंबर को पंचायती राज संस्थानों की निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों यानी ईडब्ल्यूआर और मास्टर ट्रेनर्स (प्रधान प्रशिक्षकों) के लिए एक गहन प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरूआत की। उनकी प्रशासनिक क्षमता विकास के इस कार्यक्रम का आयोजन महिला और बाल विकास मंत्रालय के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक कोऑपरेशन एण्ड चाइल्ड डेवलपमेंट (एनआईपीसीसीडी) करेगा। इस अभियान की योजना प्रत्येक जिले से लगभग 50 ईडब्ल्यूआर को प्रशिक्षित करते हुए मार्च, 2018 तक कुल 20,000 ईडब्ल्यूआर को प्रशिक्षित करने की है। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य एक आदर्श गांव पाने की कोशिश होगी, वहीं इसका सबसे बड़ा फायदा महिलाओं को भविष्य के राजनीतिक प्रतिनिधियों के रूप में तैयार करना होगा। अगर महिलाएं लोकसभा और विधानसभा के लिए आरक्षण की लड़ाई लड़ रही हैं, तो इसमें वास्तविक भागीदारी के लिए इस तरह से प्रशिक्षित होना और भी आवश्यक है।

जब विभिन्न राज्यों ने अपने यहां महिलाओं के लिए पंचायत और निकाय चुनावों में 50 प्रतिशत सीटों को आरक्षित करके उन्हें रसोई और घर सीमित भूमिका से निकालकर सार्वजनिक जीवन में खड़ा किया, तब यह महिलाओं के लिए ही आश्चर्य का विषय बन गया था। उन्हें जो बचपन और पीढियों से सिखाया गया था कि वे पुरुषों के कार्यक्षेत्र में हस्ताक्षेप नहीं कर सकती हैं, वह सब करने के लिए देश का कानून उन्हें कह रहा था। ना…ना… करते हुए महिलाएं जब अपना घर छोड़कर सार्वजनिक रूप से वोट मांगने, पंचायतों का कामकाज देखने के लिए बाध्य हुईं, तो उन्हें अपने पर विश्वास ही नहीं हुआ। कई जगह मुखिया बनी महिलाएं अपना घूंघट तक उठाने के लिए तैयार नहीं हुई थीं। फिर भी उन्हें सार्वजनिक जीवन में प्रवेश दिया गया, भले ही यह उनके लिए संविधान प्रदत्त था। भले ही वे अपने आश्रित पुरुषों के लिए रबर स्टाम्प थीं। भले ही वास्तविक रूप से ‘मुखिया पति’ या ‘सरपंच पति’ उनके प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहे थे, फिर भी उनका सार्वजनिक जीवन में प्रवेश हो गया था। वर्षों बाद यह बदलाव दिख भी रहा है। जब हमें यह सूचना या आंकड़े मिलते हैं कि हरियाणा पंचायत चुनाव, 2016 में महिलाओं के संवैधानिक आरक्षण 33 प्रतिशत होते हुए भी 42 प्रतिशत पंच, 41.37 प्रतिशत सरपंच, 41.9 प्रतिशत पंचायत समिति सदस्य तथा 43.5 प्रतिशत जिला परिषद सदस्य महिलाएं बन चुकी हैं। इतना ही नहीं हरियाणा के सरपंचों में 51 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं, जो सामान्य सीटों पर पुरुषों को चुनाव हराकर निर्वाचित हुई हैं। इससे समझा जा सकता है कि हरियाणा जैसे राज्य में जहां महिलाओं के साथ लिंग भेद काफी होता है, वहां इस तरह का परिणाम कुछ शुभ संकेत जरूर देता है। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश का भी यही हाल है, यहां प्रदेश की 43.86 प्रतिशत ग्राम पंचायतों में मुखिया महिलाएं हैं। उत्तर प्रदेश में महिलाओं को सिर्फ 33 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है। इसके बावजूद 11 प्रतिशत अधिक पदों पर महिलाओं ने अधिकार क्षेत्र में ले लिया है। राजस्थान में महिलाओं को जहां पंचायती राज व्यवस्था में 50 प्रतिशत आरक्षण है। यहां उनकी भागीदारी पुरुषों के मुकाबले अधिक है। इस व्यवस्था में कमी जिस चीज की है, उस पर देर से ही सही, महिला और बाल विकास मंत्रालय ने सही ध्यान दे दिया है।

इस समय करीब 14 राज्यों में शहरी निकायों में और करीब 17 राज्यों की पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण है। देश के लगभग 14 राज्यों ने अपने पंचायती राज अधिनियमों में संशोधन करके महिलाओं को 50 प्रतिशत तक आरक्षण का प्रावधान कर दिया है। इसी वर्ष मानसून सत्र में पंचायती राज्य मंत्री परषोत्तम रूपाला ने लोक सभा में बताया कि देश में पंचायती और निकायों में महिला भागीदारी के तौर पर 14,39,436 महिला प्रतिनिधि हैं। उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 3,71,744 निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों में 19,992 महिला सरपंच हैं, उसके बाद महाराष्ट्र में 13,960 महिला सरपंच हैं। यह आंकड़े बताते हैं कि महिलाएं बढ़-चढ़कर सार्वजनिक कामों में अपनी भागीदारी कर रही है। भले ही वे सीधेतौर पर अपनी भागीदारी सुनिश्चित नहीं कर पा रही है, जैसे-जैसे शिक्षा और जागरुकता बढ़ रही है, वैसे-वैसे महिलाएं अपने अधिकारों को लेकर सजग और प्रतिबद्ध होती जाएगी। महिला और बाल विकास मंत्रालय का यह प्रयास इस दिशा में महती भूमिका निभाने का काम करेगा, ऐसी अपेक्षा की जा सकती है।

(लेखिका पत्रकार हैं। सामाजिक-साहित्यिक विषयों पर खूब लिखती हैं।)

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