सरस्वती की जगह अब उन्माद क्यों ?

मध्य प्रदेश के धार शहर में स्थित भोजशाला में यही उन्माद कई मर्तबा तब हिंसक हो जाता है जब कभी बसंत पंचमी शुक्रवार के दिन मनाई जाती है. जहां कभी ‘सरस्वती’ बहती थी वहां अब उन्माद क्यों तैरने लगा है?

मध्य प्रदेश। यही कोई हजार-डेढ़ हजार साल पहले की बात है. तब वर्तमान मध्य प्रदेश के लगभग पूरे मालवा क्षेत्र पर परमारवंशी शासकों का राज होता था. धारा नगरी (आज का धार शहर) उनकी राजधानी थी. इसी वंश के नौवें शासक का नाम था भोजदेव. यानी राजा भोज. वे ख़ुद उद्भट विद्वान थे. अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी भी थे. उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, काव्य, कोश रचना, भवन निर्माण, औषध शास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी थीं. इनमें से कुछेक के नाम यूं बताए जाते हैं- सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि.
राजा भोज ने सन् 1000 ई. से 1055 तक राज्य किया. उनकी सभा में बड़े-बड़े विद्वानों का जमावड़ा होता था. देश-देशांतर के ख़्यात विद्वानों का वहां आना-जाना लगा ही रहता था. कई को वहां स्थायी अश्रय मिला हुआ था. स्थिति कुछ इस तरह थी कि उसे एक प्रचलित श्लोक के जरिए कुछ इस तरह बयान किया जाता था, ‘अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती. पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते.’ यानी ‘राजा भोज धरती पर हैं तो ये धारा नगरी सद्-आधारा (अच्छे आधार वाली) है. सरस्वती को सदा आलंब (सहारा) मिला हुआ है. सभी पंडित आदृत (आदर के साथ पूजनीय) हैं.’
राजा भोज के समय की एक झलक बल्लाल मिश्र के लिखे ‘भोज प्रबंध’ नामक ग्रंथ में भी मिलती है. इसमें क़रीब 85 रोचक कथानक हैं जो उस दौर के जनजीवन पर प्रकाश डालने में काफ़ी हद तक समर्थ हैं. हालांकि इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता पर कुछ सवाल भी हैं. फिर भी इन्हें पूरी तरह ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता. इसमें बताया गया है कि तब संस्कृत न केवल राजभाषा बल्कि आम बोलचाल की भाषा भी थी. भोजनगरी में ऐसा एक भी गृहस्थ न था जो संस्कृत में कविता न रच सके. यहां तक कि कोई लकड़हारा भी राजा द्वारा संस्कृत व्याकरण के अशुद्ध प्रयोग पर आपत्ति कर सकता था. भोज प्रबंध में ऐसा ही एक कथानक राजा भोज की सभा में कश्मीर से आए विद्वान कोविंद कवि से जुड़ा है.
‘जब कोविंद राजा भोज की सभा में आए तो उनके ठहरने के लिए उचित आवास चाहिए था. भाेज ने इस तरह के विद्वानों के लिए जो शाला बनवाई थी उसमें क़रीब 500 लोगों के रहने का इंतज़ाम था. लेकिन उस समय वहां सभी स्थान भरे थे. ऐसे में विचार किया गया कि राज्य में कोई मूर्ख व्यक्ति ढूंढा जाए. उससे उसके मूर्ख होने के दंडस्वरूप थोड़े समय के लिए उसका आवास ले लिया जाए. और वहां कोविंद कवि के रहने का इंतज़ाम कर दिया जाए. सो तलाश शुरू हुई और एक जुलाहा मिला. उसे मूर्ख समझकर राजा भोज की सभा में लाया गया. उससे कहा गया कि चूंकि वह संस्कृत में कविता नहीं करता इसलिए एक विद्वान कवि के लिए उसे अपना आवास छोड़ना पड़ेगा. तब जुलाहे ने वहीं सभा में तुरंत एक श्लोक कह दिया, ‘काव्यं करोमि न हि चारूतरं करोमि. यत्नात्करोमि यदि चारूतरं करोमि. भूपाल मौलिमणि मंडित पादपीठ हे साहसांक कवयामि वयामि यामि.’ हे राजन! मैं कविता नहीं करता मगर मैं कवियाें से अच्छी कविता कर सकता हूं. लेकिन फिर मेरे बच्चों का भरण-पोषण कैसे होगा? इसलिए जुलाहे का काम करता हूं.’ इतना सुनते ही राजा भोज और उनकी पूरी सभा प्रसन्न हो गई. कोविंद कवि के लिए अलग आवास का प्रबंध किया गया और जुलाहे को छोड़ दिया गया.
हो सकता है यह जनश्रुति हो. संभव है कथानक ही हो जो लेखक की कल्पना से उपजा हो. मगर राजा भोज और उनके समय के गौरवशाली इतिहास के पुष्ट हो चुके प्रामाणिक संदर्भ-प्रसंग भी इतने व्यापक हैं कि उनके बारे में जानने के बाद किसी की भी विद्वता का अहंभाव चूर हो सकता है. ऐसे तमाम प्रामाणिक प्रसंगों से रू-ब-रू होना हाे तो आज के धार शहर का रुख़ कर सकते हैं. यहां लाल बाग परिसर में स्थित विक्रम ज्ञान मंदिर की इमारत के एक हिस्से में भोज शोध संस्थान का दफ़्तर भी है. सत्याग्रह से बातचीत में संस्थान के निदेशक दीपेंद्र शर्मा बताते हैं कि कैसे वे लोग बरसों की मेहनत के बाद राजा भोज के ऐतिहासिक कालक्रम के अनेकों साक्ष्य जुटा चुके हैं, और अब भी जुटाए जा रहे हैं.
धार शहर में भोजकालीन गौरवशाली इतिहास का एक और जागृत प्रमाण वह इमारत है जिसका निर्माण राजा भोज ने सन् 1034 के आसपास ‘सरस्वती सदन’ के रूप में कराया था. यही वह जगह है जहां अपनी-अपनी विधा में देश-विदेश के प्रकांड पंडित आकर ठहरते थे. गर्भगृह में स्थित मां सरस्वती की प्रतिमा को साक्षी मानकर शास्त्रार्थ सत्रों के जरिए गूढ़ शास्त्रों का अर्थ समझते-समझाते थे. चर्चाएं-परिचर्चाएं होती थीं. वाद-विवाद होते थे. लेकिन..
आज इस ‘सरस्वती सदन’ में ‘मां सरस्वती’ की सिर्फ़ प्रतिमा ही है. ‘सरस्वती’ तो जैसे सालों पहले लुप्त हो चुकी है. इसीलिए इस इमारत को अब लोग ‘भोजशाला’ कहते हैं. खिलजी वंश के शासन के दौरान 1456 में मालवा के शासक महमूद खिलजी ने इस इमारत से सटाकर मौलाना कमालुद्दीन का मक़बरा बनवा दिया. और दरगाह भी. बस तबसे यहां सिर्फ़ विवाद होते हैं. मां सरस्वती के प्राकट्य दिवस ‘बसंत पंचमी’ के दिन यह कुछ ज़्यादा उग्र हो जाता है.
छोटे-छोटे बच्चाें के मुंह से उन्मादी नारे सुनाई देते हैं. उन बच्चों की मांएं उन्हें रोकती-टोकती हैं. पर वे भगवा झंडा लिए पूरे परिसर में दौड़ते-फिरते जोर-जोर से चिल्लाते दिखाई देते हैं, ‘बच्चा बच्चा राम का, भोजशाला के काम का.’ और ‘जो बाबर की चाल चलेगा, वह कुत्ते की मौत मरेगा.’ इनमें बच्चाें से शायद ही कोई ऐसा हो जो भोजशाला के इतिहास, उसके महत्व से वाक़िफ़ हो. लेकिन वह इतना ज़रूर जानता है कि ‘भोजशाला हमारी (हिंदुओं) है.’
सरस्वती के इस सदन के भीतर अब वैदिक मंत्रोच्चार का साम-गान न के बराबर सुनाई देता है. लेकिन हर मंगलवार को हनुमान चालीसा और शुक्रवार को नमाज़ के स्वर जरूर पुरज़ोर बुलंद होते हैं. बसंत पंचमी के मौके पर इस इमारत से बाहर कुछ दूरी पर ही स्थित संकल्प ज्योति मंदिर के सामने मैदान में बड़ा सा पंडाल लगता है. यहां ‘धर्म सभा’ होती है. बहुत से भगवा भेषधारी आते हैं. लेकिन वे इस सभा में धर्म के बजाय धार्मिक उन्माद की बातें किया करते हैं. और यही उन्माद कई मर्तबा तब हिंसक हो जाता है जब कभी बसंत पंचमी शुक्रवार के दिन मनाई जाती है.
यहां धार्मिक उन्माद अब कुछ इतना बढ़ चुका है कि ‘धार को मध्य प्रदेश की अयोध्या’ कहा जाने लगा है. और भोजशाला को राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जि़द जैसा ही विवादित स्थल. इसकी वज़ह? ख़ुद को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यकर्ता बताने वाले राधेश्याम दांगी की बातों में इसका ज़वाब मिलता है. वे बसंत पंचमी के क़रीब-क़रीब हर आयोजन में भोजशाला आते हैं. अपने जैसे और भी तमाम कार्यकर्ताओं के साथ. वे बताते हैं, ‘सामान्य दिनों में हिंदू जागरण मंच और भोज उत्सव समिति जैसे संगठन ही भोजशाला से जुड़ी गतिविधियां देखते हैं. लेकिन जब ऊपर से आदेश मिलता है तो यह ज़िम्मेदारी हम लोग संभालते हैं. उस समय हम जैसे तमाम कार्यकर्ताओं को संगठन के दायित्वों से मुक्त कर दिया जाता है.’
और यह आदेश कब मिलता है? सत्याग्रह के इस सवाल पर दांगी हंसते हुए कहते हैं, ‘आप तो समझते ही हैं, आदेश कब मिलता होगा.’ एक कार्यकर्ता तो खुलेआम भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के एक नेता और प्रदेश स्तर के कुछ बड़े नेताओं का नाम लेते हैं. वे कहते हैं, ‘नेता अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए भोजशाला के नाम पर राजनीति करते हैं. वोट के लिए दंगे कराते हैं. और जब मतलब निकल जाता है तो इस तरफ़ देखने भी नहीं आते.’
श्रुतियां बताती हैं कि जब राजा भाेज का देहांत हुआ तो किसी ने कहा था, ‘अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती. पंडिता: खंडिता: सर्वे भोजराजे दिवंगते.’ यानी ‘आज भोजराज के दिवंगत होने से धारा नगरी निराधार हो गई है. सरस्वती बिना आलंब की हो गई हैं. और सभी पंडित खंडित हो चुके हैं.’ और धारा नगरी का वर्तमान सदियों पहले कही गई इस बात को शब्दश: सही साबित करते हुए दिखता है.

 

(साभार: सत्याग्रह)

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