बुराइयों से करिए आत्म-रक्षा

जो मनुष्य बहुधा तर्क-वितर्क, शास्त्रार्थ, शब्द-कलह और खंडन-मंडन में लगे रहते हैं वे अपने सूक्ष्म शरीर को बड़ी हानि पहुँचाते हैं। इसमें शक्ति का अधिक अपव्यय होता है। समय नष्ट होता है और द्वेष बढ़ता है- उत्तेजना पूर्ण वाद-विवाद से सूक्ष्म शरीर भी वास्तव में प्रदीप्त हो जाता है। उसमें एक जख्म पैदा हो जाता है। रक्त गर्म हो जाता है। और अग्नि पर रखे हुये दूध के समान उबलने लगता है। ऐसे आवेशपूर्ण वाद-विवाद से सूक्ष्म शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है इसका अनुमान अनजान मनुष्य नहीं कर सकते। जो मनुष्य व्यर्थ के वाद-विवाद में बिना जरूरत पड़े रहते हैं उन्हें आध्यात्मिक मार्ग में उन्नति की कण मात्र भी आशा नहीं करनी चाहिये। साधकों को वाद-विवाद बिल्कुल छोड़ देना चाहिये।

श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती

आत्मानुसन्धान तथा अन्तरावलोकन द्वारा अपने दोषों को दूर करने की चेष्टा करो। यही सच्चा साधन है। और कठिन होने पर भी अपनी सर्वस्व देकर भी इसे प्राप्त करना होगा। पाण्डित्य प्राप्त कर लेना कोई कठिन बात नहीं। परन्तु पूर्वोक्त साधन के लिये कई वर्षों तक बड़े कठिन परिश्रम की जरूरत होगी। बहुत से पुराने दुराचरणों को परित्याग करना होगा। बड़े-बड़े मण्डलेश्वर गीता या उपनिषद् के श्लोक पर एक सप्ताह तक पाण्डित्व पूर्ण व्याख्यान दे सकते हैं। उनका बड़ा सम्मान होता है। फिर भी जनता उनको पसन्द नहीं करती क्योंकि इतना सब कुछ होने पर भी उनमें दोष होते हैं। उन्होंने कोई आत्मनिरीक्षण नहीं किया है। उन्होंने अपने दोष दूर करने के लिए कोई कठिन साधना नहीं की है। वे केवल बुद्धि की उन्नति में ही लग रहे हैं। कितने खेद की बात है।
अभिमान, चालाकी, कुटिलता, दम्भ, संकीर्ण, हृदयता, झगड़ालूपन, अपनी झूठी प्रशंसा, अपने आप को बहुत बड़ा समझना, दूसरों की निन्दा करना, दूसरों की बड़ाई की बातों को भी छोटा करके कहना ये सब पुराने संस्कार अब भी आपके मन में छिपे रह सकते हैं। जब तक आप इनको बिल्कुल दूर नहीं कर देते तब तक आपका विकास नहीं हो सकता। अपरा प्रकृति के इन अवाँछनीय दुर्गुणों को जब तक आप निर्मूल नहीं कर देते तब तक ध्यानयोग में सफलता प्राप्त करना सम्भव नहीं है। जो मनुष्य बहुधा तर्क-वितर्क, शास्त्रार्थ, शब्द-कलह और खंडन-मंडन में लगे रहते हैं वे अपने सूक्ष्म शरीर को बड़ी हानि पहुँचाते हैं। इसमें शक्ति का अधिक अपव्यय होता है। समय नष्ट होता है और द्वेष बढ़ता है- उत्तेजना पूर्ण वाद-विवाद से सूक्ष्म शरीर भी वास्तव में प्रदीप्त हो जाता है। उसमें एक जख्म पैदा हो जाता है। रक्त गर्म हो जाता है। और अग्नि पर रखे हुये दूध के समान उबलने लगता है। ऐसे आवेशपूर्ण वाद-विवाद से सूक्ष्म शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है इसका अनुमान अनजान मनुष्य नहीं कर सकते। जो मनुष्य व्यर्थ के वाद-विवाद में बिना जरूरत पड़े रहते हैं उन्हें आध्यात्मिक मार्ग में उन्नति की कण मात्र भी आशा नहीं करनी चाहिये। साधकों को वाद-विवाद बिल्कुल छोड़ देना चाहिये। उन्हें वाद-विवाद करने की वृत्तियों को ध्यानपूर्वक आत्मनिरीक्षण द्वारा नष्ट कर देना होगा।

आपने कई विद्वान संन्यासियों के अच्छे-अच्छे व्याख्यान सुने हैं। आपने कथा सुनी है। गीता, रामायण, भागवत और उपनिषदों के प्रवचन भी सुने हैं। अपने अनेक अमूल्य नैतिक और आध्यात्मिक उपदेश सुने हैं। परन्तु आपने किसी बात का भी विश्वास के साथ दृढ़तापूर्वक निरन्तर साधना द्वारा अभ्यास करने का प्रयत्न नहीं किया है। किसी धार्मिक सिद्धान्त में अपनी सम्मति दे देना, प्रातः और रात्रि को थोड़ी देर आंखें बन्द कर लेना, अपने आपको, अन्तर वासी और साक्षी को धोखा देने के लिये आध्यात्मिक दिनचर्या के पालन करने का थोड़ा-सा प्रयत्न करना, और बेपरवाही के साथ अन्यमनस्कता से कुछ सद्गुणों का संग्रह कर लेना और अपने धर्म गुरु के उपदेशों का पालन करने का हल्का सा प्रयत्न कर लेना ही पर्याप्त नहीं होगा। इस प्रकार की मनोवृत्ति को बिल्कुल छोड़ देना होगा। साधक को शास्त्रों की आज्ञा और अपने गुरु के उपदेशों का अक्षरशः पालन करना चाहिए। मन के साथ नर्मी बिल्कुल नहीं बरतनी चाहिये। आध्यात्मिक मार्ग में बीच बचाव का मार्ग अवलम्बन करने से काम नहीं हो सकता। आध्यात्मिक पथ ऐन्द्रजालिक क्रियाओं से तय नहीं होने का? आप यह नहीं कह सकते कि -”मैं इन बातों को फिर देखूँगा। जब मैं अक्सर प्राप्त हो जाऊँगा तो ज्यादा समय लगा सकूँगा। मैंने इन उपदेशों का यथाशक्ति थोड़ा बहुत तो पालन किया ही है यह थोड़ा बहुत या “यथाशक्ति” की बात साधकों के लिये नाशकारी है। आध्यात्मिक उपदेशों में नियम का बचाव या किसी रियायत की बात बिल्कुल नहीं है। आपसे उपदेशों को ठीक-ठीक बेउजर पालन की आशा की जाती है।

बिना विचारे कोई बात न कहो। एक शब्द भी व्यर्थ मत बोलो। सब प्रकार की बात-चीत, जिसकी आवश्यकता नहीं हो, छोड़ दो। छोड़ दो और मौन रहो। इस क्षण भंगुर आधिभौतिक संसार में अपने कोई अधिकार मत रक्खो। अपने कर्त्तव्य की ओर विशेष ध्यान दो। और अधिकारों की बात कम करो। अधिकारों की बात राजसिक अंधकार से पैदा होती है। ये अधिकार निरर्थक है। इनके लिए झगड़ने में समय और शक्ति को खोना है। अपने जन्मसिद्ध अधिकार ईश्वर-ज्ञान “त्वं ब्रह्मासि” को प्राप्त करो। तभी आप त्यागी मनुष्य होंगे।

यदि आपके पास सदाचार, ब्रह्मचर्य, सत्य, दया, शुद्ध प्रेम, सहनशीलता, क्षमा और शान्ति प्रकृति आदि सद्गुण हैं तो यह बहुत से दुर्गुणों से भारी पड़ेंगे। धीरे-धीरे ये दुर्गुण भी दूर हो जायेंगे, यदि आप अपना पूरा ध्यान इन पर देकर इन्हें दूर करने में सतर्क रहोगे।

यदि आप किसी उन्नत महात्मा की संगति में रहोगे तो उनके आकर्षक खोज और आध्यात्मिक विद्युत शक्ति प्रभाव से आपको बड़ा लाभ होगा। उनका संग आपके लिये दुर्ग का काम देगा। आप पर बुरी बातों का प्रभाव नहीं पड़ेगा। पतन का डर नहीं रहेगा। आपकी आध्यात्मिक उन्नति जल्दी हो सकेगी। महात्मा की संगति से साधक में सात्विक सद्गुणों की वृद्धि होती है और उसे शक्ति मिलती है। जिससे वह अवाँछनीय दुर्गुणों और दोषों को दूर कर सकता है। छोटी अवस्था के साधकों को तब तक अपने गुरु या महात्माओं की संगति में रहना चाहिए जब तक कि वे आध्यात्मिक मार्ग और ध्यान में दृढ़ रूप से स्थिति न हो जाये। आजकल बहुत से नवीन साधक जहाँ तहाँ बिना किसी उद्देश्य के मारे-मारे फिरते हैं। वे अपने गुरु या महात्माओं के उपदेश नहीं सुनते। प्रारम्भ से ही वे स्वाधीनता चाहते हैं। इसलिए वे आध्यात्मिकता में कुछ उन्नति नहीं कर पाते। समाज पर वे भार बने रहते हैं। उन्होंने अपने को ऊँचा नहीं उठाया है। इनसे दूसरे लोग लाभान्वित नहीं हो सकते। उनकी गणना तो केवल स्वेच्छाचारी भद्र पुरुषों में ही की जा सकती है।

स्त्रोत : अखंड ज्योति
शांतिकुंज, हरिद्वार

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