नई दिल्ली। भारत में थैलेसेमिया के लगभग 4 करोड़ वाहक या कैरियर्स हैं, जिनके कारण अपने देश को दुनिया की थैलेसेमिया राजधानी कहा जाता है। करीब 1,00,000 से अधिक थैलेसेमिया पीड़ितों को हर महीने खून चढ़ाया जाता है। विश्व थैलेसेमिया दिवस पर इस तथ्य के बारे में जागरूकता फैलाई जानी चाहिए कि प्रसवपूर्व परामर्श और परीक्षणों से रोग की पहचान होने और सही निर्णय लेने में मदद मिल सकती है।
थैलेसेमिया आनुवंशिक या जेनेटिक रक्त विकारों के एक समूह को कहा जाता है, जिसमें हीमोग्लोबिन के उत्पादन के लिए जिम्मेदार जीन की गैरमौजूदगी या उसमें कमियां शामिल हैं। इस कंडीशन वाले लोग जीवन भर, कम मात्रा में हीमोग्लोबिन बना पाते हैं, और कुछ समय बाद उनकी अस्थि मज्जा या बोन मैरो में स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाओं का उत्पादन बंद हो जाता है।
इसके बारे में बात करते हुए, हैल्दी के क्लिनिकल एडवाइजरी बोर्ड के हेड, डॉ. रामानंद श्रीकांतिया नादिग ने कहा, ‘यह एक भ्रांति है कि किसी रोगी के संपर्क में आने से थैलेसेमिया हो जाता है। हालांकि, यह कंडीशन विरासत में मिलती है, जिसका अर्थ है कि माता-पिता में से कोई एक इसका वाहक रहा है। थैलेसेमिया के बारे में अज्ञानता और जागरूकता की कमी से इस कंडीशन को पहचानने में देरी होती है, जिसके कारण लोग अपने बच्चों को दोषपूर्ण जीन ट्रांसफर कर देते हैं। यहां तक कि माता-पिता में से कोई एक भी अगर थैलेसेमिया माइनर है, तो बच्चे की भी थैलेसेमिया माइनर होने की संभावना लगभग 50 प्रतिशत रहती है। यदि दोनों माता-पिता थैलेसेमिया माइनर के वाहक हैं तो संभावना 25 प्रतिशत रह जाती है। नवजात शिशुओं का जन्म के समय परीक्षण कराना जरूरी है। गर्भ धारण करने वाली महिलाओं को यह पता लगाने के लिए परीक्षण कराना पड़ता है कि उनमें थैलेसेमिया के लक्षण हैं या नहीं।’
थैलेसेमिया के कुछ लक्षणों में कमजोरी, थकान, धीमी वृद्धि, चेहरे पर पीलापन, असामान्य सूजन, हड्डियों की असामान्य संरचना (खासकर चेहरे व सिर में), हृदय की समस्याएं और आयरन की अधिकता आदि शामिल हैं।
अपनी बात जोड़ते हुए, डॉ. एम उदय कुमार मैया, मेडिकल डायरेक्टर, पोर्टिया मेडिकल, ने कहा, ‘भारतीयों को अभी भी रोगों की रोकथाम के लिए स्वास्थ्य परीक्षण कराने का महत्व नहीं मालूम है और न ही उन्हें इसकी आवश्यकता के बारे में पता है। इस प्रकार, थैलेसेमिया जैसे आनुवांशिक रोग से ग्रस्त लोग अनजाने में इसे अपनी संतान को दे देते हैं। गर्भवती महिलाओं में, प्रसव पूर्व परीक्षण जन्म से पहले ही इस कंडीशन का पता लगाने में मदद करते हैं। यदि माता-पिता में से किसी एक या दोनों में यह कंडीशन मौजूद है, तो जोखिम को खत्म करने के लिए डॉक्टर से परामर्श लेना एक अच्छा विचार है। रोकथाम और शुरुआत में ही पहचान शायद इस बीमारी को नियंत्रित करने के लिए सबसे प्रेक्टीकल और किफायती तरीका है। समय की मांग है कि कार्रवाई करने की एक ठोस योजना बनायी जाये, जिसमें विवाह से पहले और गर्भधारण से पहले थैलेसेमिया के वाहक की बड़े पैमाने पर स्क्रीनिंग शामिल हो।’
‘सरकार को ऐसे निर्देश जारी करने के निरंतर प्रयास करने चाहिए, जिनसे प्राइमरी हैल्थ सेंटर्स में ऐसे मरीजों को निःशुल्क या कम लागत में खून चढ़ाने और दवाएं देने की व्यवस्था की जा सके। किसी भी अन्य बीमारी की तरह, हमें तत्काल ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो शुरुआत में ही आनुवंशिक परामर्श और रोग की पहचान सुनिश्चित कर सकें। यह सुनिश्चित करने की भी जरूरत है कि थैलेसेमिया वाले सभी रोगियों को ओरल चिलेटिंग दवाएं मिल सकें। सरकार को उन लोगों के लिए ओरल चिलेटिंग दवाएं मुफ्त में मुहैया कराने की संभावना पर भी विचार करने की जरूरत है, जो कीमत अधिक होने के कारण इन्हें खरीद नहीं पाते हैं।’
थैलेसेमिया पीड़ितों को आम तौर पर जीवन भर खून चढ़वाते रहने और दवा लेने की आवश्यकता होती है। इसकी मुख्य उपचार विधियां हैं- ब्लड ट्रांसफ्यूजन, फालतू आयरन को हटाना या चिलेशन थेरेपी, स्टेम सेल या बोन मैरो प्रत्यारोपण एवं अन्य समस्याओं का इलाज। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि हर गर्भवती महिला गर्भावस्था के 14 सप्ताह से पहले एचबीए2 टैस्ट करवा ले। इससे थैलेसेमिया की समय पर पहचान यानी निदान में मदद मिल सकती है।