नई दिल्ली। वामदलों के गढ़ समझे जाने वाले त्रिपुरा में सत्तारूढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी 25 सालों बाद विधानसभा का चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हो गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक के बाद एक राज्यों में अपना परचम लहरा रही भाजपा ने यहां भी किला फतह कर लिया है. राज्य में शून्य से अपना सफर शुरू करने वाली इस पार्टी ने ताजा चुनाव में यहां की दो तिहाई से ज्यादा – 60 में से 35 – सीटें जीत ली हैं. वहीं पिछले चुनाव में 49 सीटें जीतने वाले वामदल केवल 16 सीटों पर ही सिमटकर रह गए हैं.
इस तरह अब भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन का देश की 68 फीसदी आबादी और 19 राज्यों पर सीधा शासन कायम हो गया है. वैसे आबादी के लिहाज से देखने पर त्रिपुरा के नतीजे बहुत महत्वपूर्ण नहीं लगते. त्रिपुरा जनसंख्या के लिहाज से देश के 36 राज्यों में 22वें स्थान पर आता है. इसकी कुल आबादी 2011 में 36 लाख के आसपास थी. लेकिन आने वाले वक्त में इसके संभावित राजनीतिक असर को देखते हुए कई जानकार इस जीत को ऐतिहासिक करार दे रहे हैं. कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि हालिया चुनाव के नतीजे देश में नई राजनीतिक इबारत लिख सकते हैं. इसके तहत एक ओर देश की राजनीति में जहां भाजपा और उसकी दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा का दबदबा और बढ़ने और कायम रहने के आसार बढ़ गए हैं. वहीं दूसरी ओर देश की संसदीय राजनीति से वामदलों के लगभग सफाया हो जाने का खतरा पैदा हो गया है. आलोचकों की आशंका है कि आने वाले वक्त में वामपंथी विचारधारा केवल बहस-मुबाहिसों तक सीमित होकर रह सकती है. यही वजह है कि कई जानकार त्रिपुरा चुनाव को आबादी और सीटों की संख्या के लिहाज से आंकने के बजाय राजनीतिक पटल पर पड़ने वाले इसके प्रभावों से जोड़कर देखने पर जोर दे रहे हैं.
क्या कम्युनिस्ट राजनीति का अस्तित्व वाकई खतरे में है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी तीनों राज्यों के नतीजे आ जाने के बाद शनिवार की शाम को राजधानी में आयोजित एक कार्यक्रम में राजनीति के इस नए दौर की ओर इशारा किया है. इस कार्यक्रम में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने प्रतीकों के जरिए उत्तर-पूर्वी राज्यों विशेषकर त्रिपुरा की जीत का महत्व समझाया है. उन्होंने कहा कि जिस तरह से वास्तुशास्त्र में घर का उत्तर-पूर्वी कोना सबसे महत्वपूर्ण होता है, भाजपा के लिए भी वहां के राज्यों में मिल रही जीत काफी मायने रखती है.
इस कार्यक्रम में उन्होंने त्रिपुरा की निवर्तमान सरकार पर भाजपा के कार्यकर्ताओं की हत्या करवाने और राज्य में विकास न करने का आरोप भी लगाया है. उन्होंने राजनीतिक हिंसा को राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित करार देते हुए इसके लिए माणिक सरकार की निंदा भी की. इस तरह की कथित हिंसा में मारे गए अपने कार्यकर्ताओं की याद में उन्होंने दो मिनट का मौन भी रखवाया. इससे पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी इस कार्यक्रम में राजनीतिक हिंसा के लिए वामदलों की आलोचना की.
जानकारों के अनुसार त्रिपुरा की जीत के मौके पर प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष इस मुद्दे को उठाकर केरल को भी साधने की कोशिश कर रहे थे. पिछले कई सालों से केरल से भी राजनीतिक हिंसा में लोगों के मारे जाने की खबरें आती रहती है. यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने अपने कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने के लिए लाल रंग (यानी वामदल) को डूबते हुए सूर्य से जोड़कर पेश किया. वहीं उगते हुए सूर्य का रंग केसरिया बताकर यह बताने की कोशिश की है कि अब देश में वामदलों की राजनीति के दिन लद गए हैं.
सोशल मीडिया पर भी त्रिपुरा में कम्युनिस्ट पार्टी की हार चर्चा का विषय बनी हुई है. कई लोग इस नतीजे को देश में कम्युनिस्ट पार्टी के दिन लद जाने जैसा बता रहे हैं. जाने-माने पत्रकार और चुनाव विश्लेषक यशवंत देशमुख ने टिप्पणी की, ‘इस हार के बाद कम्युनिस्ट पार्टियां अब केवल और एक जगह सीमित होकर रह गई हैं. और हम सब जानते हैं कि वह जगह कौन सी है.’ चूंकि केरल हर पांच साल बाद सरकार बदलने के लिए जाना जाता है इसलिए जानकार मानते हैं कि जल्द ही कम्युनिस्ट पार्टियों का देश के हर राज्य की सत्ता से बाहर हो जाना तय है. इसलिए देशमुख की टिप्पणी को कुछ लोगकर जेएनयू से जोड़कर देख रहे हैं तो कुछ मीडिया से. उधर माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा है कि उनकी पार्टी अपनी कमियों की पहचान कर उसे दुरुस्त करने की कोशिश करेगी. हालांकि ऐसा होना अब आसान नहीं है.
वामदल और आरएसएस का सफर एक साथ शुरू हुआ था
वैसे दक्षिणपंथी राजनीति के उत्थान और वामपंथी राजनीति के पराभव के संकेत के बीच यह जानना दिलचस्प होगा कि देश में इन दोनों ही विचारधाराओं का उद्भव एक ही समय पर हुआ था. भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना 1925 में हुई थी. और वह अपनी स्थापना के समय से ही हिंदुत्व की राजनीति के लिए जाना जाता है. उसका लक्ष्य देश को हिंदू राष्ट्र बनाना है. इसकी राजनीतिक इकाई भाजपा भी दबे-छिपे यह लक्ष्य लेकर चलती है. इसके अलावा दक्षिणपंथी राजनीतिक रुझान होने के चलते भाजपा व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव का विरोध भी करती है.
दूसरी ओर आरएसएस के गठन के तीन महीने बाद देश की पहली वामपंथी पार्टी सीपीआई (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) की स्थापना हुई थी. उसके बाद से देश में कई कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन और विघटन हुआ है. विचारधारा के लिहाज से ये सभी कम्युनिस्ट पार्टियां राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव लाने की समर्थक हैं. कुछ जानकारों का मानना है कि इसके लिए कई बार इन्हें हिंसा का सहारा लेने से भी परहेज नहीं रहता है. हालांकि संसदीय राजनीति में सक्रिय कम्युनिस्ट पार्टियां प्रत्यक्ष रूप से खुद को हिंसात्मक गतिविधियों से दूर रखती हैं.
इस तरह आरएसएस और कम्युनिस्ट पार्टियों में कई बुनियादी अंतर रहे हैं. यह अंतर इनके राजनीतिक सफर में भी रहा है. कम्युनिस्ट पार्टियों को जहां जल्द ही राजनीतिक सफलता मिलने लग गई थी. वहीं शुरुआती सफलता के लिए भी आरएसएस को सालों संघर्ष करना पड़ा था. लेकिन पहले पश्चिम बंगाल और अब त्रिपुरा से बेदखल होने के बाद ऐसा लग रहा है कि वामदल देश की संसदीय राजनीति के इतिहास के सबसे बुरे दौर में प्रवेश कर गए हैं. दूसरी ओर पिछले चार सालों से लगातार सफलता का स्वाद चख रही भाजपा और आरएसएस अपने इतिहास के सबसे सुनहरे वक्त में दाखिल हो गए हैं.
जानकारों के अनुसार त्रिपुरा से वाम मोर्चे को हटाने के बाद मुश्किल इलाकों में भाजपा के कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के बीच पार्टी को लेकर विश्वास और बढ़ सकता है. ऐसे में आने वाले वक्त में हो सकता है पार्टी ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का अपना लक्ष्य ‘विपक्ष मुक्त भारत’ के रूप में विस्तृत कर ले. त्रिपुरा में भाजपा की जीत के सूत्रधार रहे पार्टी प्रभारी सुनील देवधर ने एक साक्षात्कार में कहा भी है कि देश के इतिहास में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला हुआ जिसे जीतकर भाजपा ने बता दिया है कि वह अब देश में कहीं भी जीत हासिल कर सकती है. इसलिए राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार अब भाजपा का लक्ष्य कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, ओडिशा जैसे राज्यों में अपनी जड़ें जमाने का होगा.
जानकारों के अनुसार भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में दुबारा लौटने के लिए अब उन राज्यों या इलाकों पर दोगुने जोश के साथ जुटेगी जहां 2014 तक उसकी पैठ न के बराबर थी. आलोचकों के अनुसार पार्टी की नजर 2022 तक राज्यसभा में एनडीए के लिए दो तिहाई बहुमत हासिल करने पर भी है. देश के दो तिहाई राज्यों पर काबिज हो चुके इस गठबंधन के लिए अब यह लक्ष्य हासिल करना भी संभव हो सकता है.
(साभार: सत्याग्रह)